मंगलवार, 12 दिसंबर 2017

शीर्षक-विहीन...

पिछली रात किसी ने दी आवाज़
मैं उस पुकार की खामोशी से
शिनाख़्त करता रहा ।
खिल उठते हैं फूल बेशुमार, रंग-बिरंगे
मोगरे-लिलि-गुलदाउदी के
जब-जब यह अजानी पुकार सुनी है
ऐसा ही होता आया है,
जीवन में तब-तब वसंत आया है।

यह मुगालता भी अजीब है
कि जो दीखता है
वह होता नहीं
और जो होता है
उसका वजूद नहीं।

सोचता हूँ,
किस रहस्य-लोक से आती है पुकार ?
कौन है जो पुकरता है मुझे
और आँखें खोलते ही हो जाता है विलुप्त
वह तुम नहीं हो सकते न?
तुम होते तो अंतर्धान क्यों होते?
मुझको ही तुम्हारे होने का
भ्रम हुआ होगा
वह होगा कोई गुल नया,
तुम्हें ही पता होगा?

अब इस फिक्र से हलकान हूँ कि
वह किसकी पुकार थी,
जो आवाज़ देकर हो गया ख़ामोश
क्यों उसकी पुकार इतनी बेकरार थी।

जानता हूँ,
परदों के पीछे भी
हो रहा यातनाओं का सफ़र
सामने जो मंज़र है
दिखावे की दुनिया है...
आवाज़ देकर तुम गुमसुम न रहो
तो कैसे चलेगा बापर्दा
यातनाओं का कारवां?

'जिन पर गुज़रता है हादसा,
वही जानते हैं,
हमदर्द तो अफ़सोस भी
डकार जाते हैं..।'
(--आनन्द. 6-12-2017)

बुधवार, 6 दिसंबर 2017

पाटलिपुत्र के सहित्याकाश में जब चमकी थी 'बिजली'...सजी थी 'आरती'...(समापन किस्त, 5)

फिर आया वह दौर, जिसमें बिहार की तरुणाई ने अंगड़ाई ली थी। लोकनायक जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति का दौर! आन्दोलन के समर्थन में जगह-जगह होनेवाली नुक्कड़ कवि-गोष्ठियों में नागार्जुन और फणीश्वर नाथ 'रेणु' के नेतृत्व में हम युवा उत्साही कवियों, साहित्यानुरागियों का एक दल अनायास बन गया था। जयप्रकाशजी की प्रेरणा से पटना सिटी के चौक पर तीन युवा कवि बारह घंटे की सांकेतिक भूख-हड़ताल पर बैठे थे, उनमें एक मैं भी था। भूख-हड़ताल की समाप्ति पर हमें शिकंजी पिलाने के लिए महाकवि नागार्जुन पधारे थे। उसके बाद जाने कितने चौराहों पर हमने उनकी अगुआई में कविताएँ पढ़ी थीं, भाषण दिए थे और चायखानों में बैठकर सम-सामयिक चर्चाएँ की थीं। आन्दोलन की धार को और अधिक पैनापन देने के लिए नागार्जुन के पास एक-से-बढ़कर एक कारगर साहित्यिक हथियार थे। युवा साथियों के साथ नागार्जुन नवयुवक बन जाते थे। वह अनूठी आत्मीयता और परम स्नेह के साथ हमें अपने साथ ले चले थे। हम सभी उन्हें प्यार से 'नागा बाबा' कहते थे। वार्धक्य की अशक्तता उन्हें रोक न पाती थी, स्वस्थ्य की नरम-गरम स्थितियाँ उनकी गति को अवरुद्ध न कर पाती थीं। सम्पूर्ण क्रांति के आन्दोलन में नागार्जुन मसिजीवियों के प्रखर नेता थे। उन दिनों उनकी एक कविता बहुत लोकप्रिय हुई थी, जिसका पाठ वह झूम-झूमकर और चुटकियाँ बजाकर करते थे --
''इन्दुजी, इन्दुजी!
क्या हुआ आपको, क्या हुआ आपको ?
बेटे को ताड़ दिया, बोड़ दिया बाप को ?
क्या हुआ आपको...?"

बिहार आन्दोलन की गर्म हवाओं में पूरा प्रदेश तपने लगा था। सर्वत्र हिंसक और अहिंसक अवरोध जारी था। हम नवयुवकों की टोली महाकवि नागार्जुन की अगुआई में नुक्कड़ कवि-गोष्ठियाँ करती चलती। कितने उत्साह और ऊर्जा से भरे दिन थे वे ! हम दिन भर एक नुक्कड़ से दूसरे नुक्कड़ का परिभ्रमण करते और जन-जागरण का अभियान चलाते। बीच-बीच में जब भी अवकाश मिलता, हम सभी पटना के कॉफ़ी हाउस या कॉफ़ी बोर्ड की शरण लेते। उन दिनों ये दोनों संस्थान आन्दोलन के युवा नेताओं, प्रबुद्ध नागरिकों, रचनाधर्मी युवा साथियों के प्रमुख अड्डे थे। वहीं आन्दोलन की दशा-दिशा पर गहन विचार-विमर्श होता और आगे की रणनीति तय होती थी। वहाँ एक कप कॉफ़ी का मतलब था--एक घंटे का विश्राम ! कॉफ़ी हाउस की प्रत्येक बैठक में रेणुजी अनिवार्य रूप से उपस्थित रहते थे। चर्चाओं का दौर चलता, कॉफ़ी पर कॉफ़ी पी जाती और हम युवा रचनाकार उत्साहपूर्वक आन्दोलन-समर्थित अपनी-अपनी रचनाएँ उन्हें सुनाते। रेणुजी और नागार्जुनजी पूरे मनोयोग से कविताएँ सुनते और आवश्यक संशोधन-परिमार्जन की सलाह देकर हमारा मार्गदर्शन-उत्साहवर्धन करते। जिस रचना को उन दोनों की स्वीकृति मिल जाती, वह नुक्कड़ कवि-गोष्ठियों में पढ़ी जाती।

पटनासिटी के चौक पर हमारे दो प्रमुख अड्डे थे--भज्जन पहलवान का होटल और सिटी स्वीट हाउस। नागा बाबा सिटी में होते तो हम सदल-बल वहीं जमे रहते। चाय, चर्चाओं, काव्य-विमर्श का दौर अनवरत चलता। हमारे लिए संघर्षों के बीच वे बहुत कुछ सीखने-समझने के दिन थे। हमारा दायरा बढ़ रहा था। हमें बुजुर्गों का आशीष, अग्रजों का मार्गदर्शन और समवयसियों का अतीव उत्साह मिला था। जैसे-जैसे हमारा संघर्ष बढ़ा, शासन का दमन-चक्र भी बढ़ता गया। मुझे याद आते हैं उस दौर के कई नाम, जो हमारी पूर्ववर्ती पीढ़ी के थे, अग्रज थे हमारे--कवि सत्यनारायण, प्रो. आनन्दनारायण शर्मा, गोपीवल्लभ सहाय, कवि राधेश्याम आदि, जिनकी पंक्तियों में तीखी धार थी और तेज आक्रामक अंदाज़ भी था। कवि सत्यनारायणजी की दो पंक्तियाँ देखिये--
'इस नगरी में यही हुआ है,
आग नहीं, सब धुआँ-धुआँ है।'

राधेश्यामजी ने उन्हीं दिनों की गर्म हवाओं में कहा था--
'लंग भरता हुआ आदमी तन के खड़ा हो जाता है।'

हमारी पीढ़ी के शायर प्रेम किरण उसी काल में चर्चित हुए थे और आज तो मकबूल शायरों में शुमार हैं। उनका यह मतला मुझे बहुत मुतासिर करता है--
'एक बच्चा न मिला गाँव में रोनेवाला,
अबके बैरंग ही लौटा है खिलौनेवाला।'
उस दौर में मेरी एक कविता की भी भरपूर सराहना हुई थी--
'तल्खियों से भरा एक जुलूस
चल पड़ा है...।'

बिहार आन्दोलन अपनी चरम परिणति पर पहुँचा ही था कि सन् 1974 में स्नातक अंतिम वर्ष की परीक्षा देकर मै पिताजी के पास दिल्ली चला गया, जो उन दिनों जयप्रकाशजी के आन्दोलन को समर्थित साप्ताहिक पत्र 'प्रजानीति' का संपादन कर रहे थे और जिन्हें जयप्रकाशजी ने ही यह दायित्व उठाने के लिए पटना से दिल्ली भेज दिया था। पटना (बिहार) तो छूटा, मेरी संपृक्ति न छूटी। वह आज भी यथावत् बनी हुई है।




पिताजी की छोड़ी हुई विरासत को परवर्ती पीढ़ियों ने बहुत आगे बढ़ाया है। 'बिजली' और 'आरती' को साहित्य की प्राचीन और नवीन धाराओं के संगम का उज्ज्वल आयोजन कहना उचित होगा। मुझे यह देखकर परम प्रसन्नता और गौरव की अनुभूति होती है कि पिताजी और अज्ञेयजी--दो अभिन्न मित्रों के अथक परिश्रम का स्मारक बनकर ये दोनों पत्रिकाएं तीन जिल्दों में बिहार हितैषी पुस्तकालय में आज भी सुरक्षित हैं।

--आनन्दवर्द्धन ओझा.
27/09/2017

[चित्र : 1) विशाल जन-समुद्र को संबोधित करते जयप्रकाश नारायणजी 2) पटना जंक्शन पर बायें से रेणुजी, अज्ञेयजी, मुक्तजी 3) पूज्य पिताजी 4) नागार्जुनजी।]

रविवार, 3 दिसंबर 2017

माँ की 49वीं पुण्यतिथि पर...!

[बस अर्ध शती पूरी होने में एक बरस बाकी है और माँ, तुम्हारे बिना मन का आँगन वैसा ही है--बियाबान-सा! 4 दिसम्बर 2014 की वही पुरानी कविता माँ की स्मृति में, उसके पूज्य चरण में अर्पित...]

माँ : एक अनुस्मृति...

अब बहुत याद नहीं आती उसकी--
वह, जो बहुत पहले
बीच राह में मुझे छोड़ गयी थी;
लेकिन मेरी स्मृतियों के
निर्मल कोश में
सदा-सदा के लिए अंकित है वह...!

अब बहुत याद नहीं आती उसकी,
किसी कार्य-प्रयोजन पर,
किसी अनुष्ठान-विशेष पर,
जैसे छोटे भाई का विवाह हो,
मेरी बिटिया की शादी हो
और देव-पितर के स्मरण के बाद
मातृका-पूजन करते हुए
उसके नाम का अन्न-ग्रास
निकाला गया हो और--
ज्येष्ठाधिकार के कारण
मुझे ही वह थाली उसे सौंपनी हो
तो बड़ी शिद्दत से याद आती है वह,
चुभती हुई यादें--
मर्म को बेधती हुई...!

हर साल मेरे साथ
दिसंबर माह में ऐसा ही होता है,
यादों के आसमान में
पीछे, बहुत पीछे कहीं
उड़ता चला जाता हूँ
और उसकी पतली किनारीवाली
सफ़ेद साड़ी का आँचल थाम लेता हूँ,
पूछता हूँ उससे--
'तुम कैसी हो अम्मा?
बहुत दिनों से याद भी नहीं आयीं,
क्यूँ...?'
वह कुछ नहीं कहती,
रहती है मौन
और जैसी उसकी आदत थी,
धूप में स्याह पड़ जानेवाले
पावर के शीशे का अपना चश्मा
वह ऊपर उठाती है और
आँचल के एक छोर से
पोछती है अपनी गीली हो आई आँखें...
यह दृश्य देखते हुए
मेरी आँखें धुंधली पड़ जाती हैं
और ओझल होने लगती है
उसकी सम्मोहक छवि...!

मेरे जैसे दुष्ट, अशालीन और उद्दंड बालक को
सही राह पर लाने के लिए
उसने जाने कितनी पीड़ा सही-भोगी थी,
कष्ट उठाये थे...
मेरी बड़ी-बड़ी शैतानियों पर
कैसे वह वज्र कठोर हो जाती थी
और मुझे दण्डित कर
स्वयं पीड़ित होती थी...!
ब्राह्म मुहूर्त्त में हमें जगाने के लिए
वह जीवन-भर
सुबह चार बजे जाग जाती,
शरीर, मन और मस्तिष्क के सुपोषण के लिए
सौ-सौ जतन करती
पूजा-पाठ, कीर्तन करती,
दफ्तर जाती, घर के दायित्व निभाती
विद्यालय-निरीक्षण के लिए यात्राएं करती...
उसका तपःपूत कर्ममय जीवन
याद करता हूँ तो हैरत होती है
और अपनी नादानियों के लिए
आज होती है ढेर सारी कोफ़्त...!

उसका अंतिम दर्शन तो
सचमुच अलौकिक दर्शन था--
सुबह-सबेरे वह गई थी गंगा के घाट
मैं उसे पानी के जहाज तक
छोड़ने गया था--
जेटी से होते हुए मैं उसके साथ
जहाज के सबसे ऊपरी तल पर
प्रथम श्रेणी में जा पहुंचा...
मेघाच्छादित आकाश था
नीचे गंगा की कल-कल निर्मल धारा थी
और तेज शीतल-स्वच्छ हवा
निर्द्वन्द्व बह रही थी,
मैंने जहाज के अग्र भाग में
एक छोर पर पड़ी आराम कुर्सी के पास
रखा उसका सामान,
झुककर उसके चरण छुए
और फिर वापसी के लिए चल पड़ा--
मैं पांच कदम ही बढ़ा था
कि उसने पुकारा मुझे,
मैंने पलटकर उसकी तरफ देखा
और हतप्रभ रह गया...!

श्वेत साड़ी में,
तेज हवा में लहराता उसका आँचल
उड़ते, खुले, घने कुंतल केश--
वह कोई देवदूती-सी दिखी मुझे...
जैसे माता जाह्नवी स्वयं
आ खड़ी हुई हों सम्मुख,
मैं मंत्रमुग्ध-सा उसके पास पहुंचा,
उसने अपने दोनों हाथ
मेरे कन्धों पर रखे और--
थोड़े उलाहने, थोड़े उपदेश दिए,
समझाया मुझे...!
मैं हतवाक था, कुछ कह न सका,
बस, उस दिव्य मूर्ति को
अपलक देखता रहा...
और अचानक--
जहाज का भोंपू बज उठा;
पुनः प्रणाम कर लौटना पड़ा मुझे...!
फिर कभी उसे देखना,
बातें करना नसीब न हुआ;
लेकिन उसकी दिव्य मूर्ति,
वह भव्य-भास्वर स्वरूप आज भी
मन-प्राण पर यथावत अंकित है
और उसका वह स्वर गूंजता है कानों में...!
खूब जानता हूँ,
उन्हीं स्वरों ने, उसी पुकार ने
मुझे कमोबेश ठीक-ठाक
आदमी बनाया है...!

सोचता हूँ,
क्यों नहीं बहुत याद आती है वह...?
क्या आधी शती के दीर्घ-काल ने
उसकी स्मृतियों को
इतना धुंधला कर दिया है
कि मन अब उसकी ओर जाता ही नहीं...??

उसकी पुण्य-तिथि पर
आज जब कलम उठाई थी,
सोचा था, स्मृति-तर्पण करूंगा ,
नमन करूंगा उसे,
लिखूंगा मैं भी
अपनी माँ पर एक कविता...!
मानता हूँ, मुझसे माँ पर कविता नहीं होती...!!

'विदा-जगत' कहने के ठीक पहले
एकादशी की पूर्व-संध्या में
वह बाज़ार से ले आई थी
भजन-मग्न पवन-सुत का एक चित्र,
दूसरा राम-जानकी का...!
भजन की मुद्रा में
आज भी मग्न हैं महावीर
और मंद-मंद मुस्कुराते हैं प्रभु राम...
बस, माता जानकी खुली आँखों से निर्निमेष
देखा करती हैं जगत-प्रवाह--
जिसे पार कर गई है मेरी माँ...!!

शुक्रवार, 1 दिसंबर 2017

पूज्य पिताजी की 22वीं पर पुण्य-तिथि पर... (समझ नहीं आता कैसे बीत गये बाईस बरस : एक पुरानी रचना...!)

।। बाबूजी की चरण-पादुका, चश्मा-चट्टी ।।
[पूज्य पिताजी के नाम एक भावुकतापूर्ण काव्य-पत्र]

"मैं ले आया हूँ गृह-प्रदेश से
बाबूजी की चरण-पादुका, चश्मा-चट्टी!
खोज रहा पगचिह्न 
डाल अपनी उँगली
जूते में,
हाँ, मुझे मिली है पगचिन्हों की
गहरी छाप, जिसे बारम्बार 
कांपती उँगलियों से
छूता हूँ, सहलाता हूँ,
फिर मस्तक से लगाता हूँ,
करके पॉलिश आज
उनकी जूती चमकाता हूँ,
सच कहता हूँ,
मेरी आँखें धुँधला जाती हैं,
कितनी यादें मेरे मन में 
उमड़ी आती हैं…!

वे कितने शुभ्र चरण थे
जो अथक यात्री-से 
आजीवन चलते आये थे,
पद से कर आघात 
पादुका दलते आये थे,
कहाँ गए वे चरण.… ?
कहाँ गए वे चरण 
जिनका मैं वंदन करता था,
जिनकी रज को
मैं मस्तक का चन्दन कहता था…?
जान रहा हूँ,
पूज्य चरण वे नहीं मिलेंगे,
अब वरद हस्त
सिर पर रखने को नहीं उठेंगे।

वो चट्टी की खट-पट घर में 
सुनने को भी नहीं मिलेगी,
कोई कलिका 
हृद-प्रदेश में नहीं खिलेगी।
ऋषि-तपस्वी की कुटिया में 
जो गूंजा करती थी,
उसी नाद-सी कर्ण-मधुर झनकार 
विलुप्त हो गई इस जीवन से,
खोज कहाँ से लाऊंगा वह स्वराघात 
किस जन-जीवन से, किस वन से…? 

धो-पोंछ कर साफ़ किया है उनका चश्मा 
सम्मुख रखकर देख रहा हूँ निर्निमेष, 
चुभता-सा कुछ लगता मन में,
कोई बाण से बींध रहा हो
जैसे मेरा ह्रदय-प्रदेश...!
वहाँ भी अतल-तल तक बेधती 
आँखें नहीं हैं,
झील-सी प्रशांति समेटे  
मर्मबेधी, पारदर्शी आँखें नहीं हैं !
कौन जाने कहाँ छुप गईं आँखें,
क्यों तारे-सी चमकती बुझ गईं आखें ?
पावर के शीशे के पार देखने की 
जब-जब करता हूँ मैं कोशिश 
बस, धुँधला-सा जैसे सबकुछ हो जाता है,
स्वप्न-भंग पर जैसे 
सपना खो जाता है!

जानता हूँ,
यही जीवन-सत्य है, फिर भी ,
मन के प्रश्न बहुत अकुलाते हैं,
स्मृतियों के एक भँवर में
हम तो डूबे जाते हैं…! 

आप नहीं हैं पास हमारे 
बरसों-बरस के बाद, सत्य 
स्वीकार किया मैंने,
इस चरण-पादुका, चट्टी पर
अधिकार किया मैंने…!
जब तक जीवन है,
इस पर मैं तो पॉलिश  करता जाऊंगा
और सँजोये रखूंगा मन में
स्मृतियाँ--मधुर-मनोहर, मीठी-खट्टी!
मैं ले आया हूँ गृह-प्रदेश से
बाबूजी की चरण-पादुका, चश्मा-चट्टी!!"...



(--आनन्द, 2 दिसम्बर.)

मंगलवार, 28 नवंबर 2017

पाटलिपुत्र के सहित्याकाश में जब चमकी थी 'बिजली'...सजी थी 'आरती'...(4)

सन् 1966 में मैं पटनासिटी की धरती पर नौवीं कक्षा का विद्यार्थी बनकर अवतरित हुआ। नया माहौल, नया विद्यालय (श्रीमारवाड़ी उ. मा. विद्यालय), नये मित्र मिले। घर में तो पुस्तकों का साम्राज्य था ही, अन्यान्य विषयों की पुस्तकें चाटने को बिहार हितैषी पुस्तकालय का विशाल भण्डार भी मिला। सायंकाल में मैं अपने नये मित्रों के साथ वहीं रमने लगा। कुछ ही समय में मेरे मित्रों की फेहरिस्त लंबी हो गयी, जिनमें प्रमुखतः कुमार दिनेश, शरदेन्दु कुमार, विनोद कपूर, नन्दकिशोर यादव, जगमोहन शारदा, शम्मी रस्तोगी, नीरज रस्तोगी, सुरेश पाण्डेय, राणा प्रताप, महेन्द्र अरोड़ा और वयोज्येष्ठ नवीन रस्तोगी आदि थे। विद्यालय और महाविद्यालय के द्वार लाँघने में छह-सात वर्षों की अवधि वहीं व्यतीत हुई। हम किशोर से नवयुवक बने, सुबुद्ध हुए और उत्साह-उमंग से भरे साहित्य-प्रेमी बने।

पटनासिटी की भूमि पर हम मित्रों ने खूब उधम मचाया, कचरी-अधकचरी कविताएं लिखीं और सुधीजनों का प्रचुर प्रोत्साहन प्राप्त किया। सन् 1968 से मैं आकाशवाणी, पटना के 'युववाणी' में अपनी कविताओं का पाठ करने लगा था। 1971 के बांगलादेश मुक्ति संग्राम के अनेक शरणार्थी जब हमारे नगर में आ ठहरे तो हमारी मित्र-मण्डली उनकी हितचिंता में कवि-गोष्ठियाँ आयोजित करती, जिसमें हम सभी जोशो-खरोश से भरी कविताएँ पढ़ते, भाषण करते।

इसी भूमि पर तखत श्रीहरमन्दिर साहब के दर्शनार्थ जब शहीदे-आज़म भगतसिंह की पूजनीया माताजी (जगत्माता विद्यावती देवी) पधारीं तो उनका एक कार्यक्रम हितैषी पुस्तकालय में भी रखा गया। वहीं मुझे उनके पूज्य चरणों को स्पर्श करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ और उन्होंने अपना वरदहस्त मेरे सिर पर रखा था। उनके तप, त्याग, बलिदान और संघर्षपूर्ण जीवन से आज सभी परिचित हैं। मेहनतकश उनके दायें हाथ का पंजा ख़ासा बड़ा था। उनके वरदहस्त ने मेरा पूरा मस्तक आच्छादित कर दिया था, अद्भुत शीतल छाया पाने की सुखद अनुभूति हुई थी मुझे।... पास आये हर प्राणी के लिए उनके आँचल में असीम स्नेह, अपरिमित आशीष था...!

संभवतः १९७० में, पटनासिटी के बिहार हितैषी पुस्तकालय के सभागार में छोटा-सा आयोजन हुआ था, जिसमें तेजस्वी सांसद, प्रखर वाग्मी और निर्भीक कवि श्रीअटल बिहारी बाजपेयीजी पधारे थे। उनका ओजस्वी भाषण हम मित्रों ने कृतार्थ होकर पूरे मनोयोग से सुना था। मैं उनकी वक्तृता पर मुग्ध था। वहीं मित्रवर कुमार दिनेश के सौजन्य से वाजपेयीजी के एकमात्र दर्शन और मुख्तसर-सी मुलाक़ात का सौभाग्य मुझे मिला था तथा उनकी सज्जनता-सरलता से मैं अभिभूत हो उठा था...!

मुझे 1972 के शरद महोत्सव की याद है, जब मैंने हितैषी पुस्तकालय के मंच से अपनी दो कविताओं का सार्वजनिक रूप से पहली बार पाठ किया था। इसकी अध्यक्षता महाकवि स्व. केदारनाथ मिश्र 'प्रभात'जी ने की थी और संचालन किया था आचार्यश्री श्रीरंजन सूरिदेवजी ने। मेरे काव्य-पाठ के बाद जोरदार करतल-ध्वनि हुई थी। आयोजन की सफलता और अपने काव्य-पाठ की प्रशंसा से आत्म-मुग्ध मैं जब घर लौटा और पिताजी के सामने पड़ा तो उन्होंने बताया कि "प्रभात और सूरिदेवजी आये थे और दोनों तुम्हारे काव्य-पाठ की मुखर प्रशंसा कर गये हैं। प्रभात कह रहे थे कि 'बड़ा तेजस्वी बालक है, मैं तो उसकी कविता सुनकर ही समझ गया था कि उसे यह संस्कार किसी सिद्ध-पीठ से ही प्राप्त हुआ है! लेकिन तब यह अनुमान न कर सका था कि वह तुम्हारे ही सुपुत्र हैं!'... जाने क्या-कैसा लिखने लगे हो तुम, कभी मुझे तो कुछ दिखाते नहीं।"





महाकवि प्रभातजी की प्रशंसा से मैं पुलकित हुआ था और यह सोचकर विस्मित भी कि कितना उदार और विशाल हृदय है उनका! नव-पल्लवों, नयी प्रतिभाओं और नवोदित कवि-कलाकारों में वह भविष्य की संभावना देखते थे, उन्हें बढ़ावा देते थे और उन्हें प्रोत्साहित करते थे।...
[क्रमशः]

[चित्र  : 1) जगत्माता विद्यावती देवी; 2) अटलबिहारी वाजपयी; 3) महाकवि केदारनाथ मिश्र 'प्रभात'; 4) बिहार हितैषी पुस्तकालय, पटनासिटी; 5) महाविद्यालय के दिनों के आनन्दवर्धन, तत्कालीन परिचय-पत्र में।

शनिवार, 25 नवंबर 2017

पाटलिपुत्र के सहित्याकाश में जब चमकी थी 'बिजली'...सजी थी 'आरती'...(3)

उसी काल (सन् 1942) की पिताजी से सुनी हुई एक मधुर कथा मन में कौंध रही है। पटना विश्वविद्यालय के रजत-जयन्ती-समारोह में सम्मिलित होने के आमंत्रण पर सुभद्रा कुमारी चौहान और कवि बच्चन पटना पधारे। बच्चनजी और सुभद्राजी ने पत्र द्वारा पटना आगमन की अग्रिम सूचना पिताजी को दी थी। बच्चनजी ने लिखा था कि उनके ठहरने की व्यवस्था विश्वविद्यालय की ओर से अन्यत्र की गयी है, पिताजी वहीं आकर मिलें। इसके पहले बच्चनजी जब कभी पटना आये, पिताजी के पास ही ठहरे। यह पहला मौका था, जब आयोजकों ने उनके ठहरने की व्यवस्था अन्यत्र की थी। इलाहाबाद विश्विद्यालय से उन्हें पर्याप्त अवकाश भी नहीं मिला था। सुभद्राजी से पिताजी के पुराने संबंध थे--अत्यन्त आत्मीय; उनकी प्रथम काव्य-पुस्तिका 'मुकुल' के प्रकाशन-काल से, जिसे पिताजी ने ही इलाहाबाद की अपनी प्रकाशन संस्था 'ओझा-बंधु आश्रम' से प्रकाशित किया था। बहरहाल, निश्चित तिथि पर पिताजी पहले बच्चनजी से मिले, फिर उन्हें साथ लेकर सुभद्राजी के पास पहुँचे। वह पूरा दिन तो विश्वविद्यालय के समारोह में बीत गया और रात की रेलगाड़ी से उन दोनों को क्रमशः इलाहाबाद तथा जबलपुर के लिये प्रस्थान करना था; लेकिन वे दोनों बज़िद हो गये कि उन्हें पिताजी के घर तो जाना ही है। समय कम था और पटना महाविद्यालय से पटनासिटी की दूरी तकरीबन 6-7 किलोमीटर थी। बच्चनजी का तर्क था कि पिताजी के घर गये बिना वह लौट जायेंगे तो उन्हें लगेगा ही नहीं कि वह पटना आये थे। सुभद्राजी की इच्छा उस घर को एकबार प्रणाम करने की थी, जिसमें पिताजी रहते थे। दोनों की शर्त थी कि वहाँ रुकेंगे बिल्कुल नहीं, पर जायेंगे जरूर। पिताजी विवश हो गये और दोनों को अपनी कार से ले चले पटनासिटी की ओर...।

घर पहुँचकर सुभद्राजी ने सकारण (संभवतः पितामह की स्मृति में) आवास को बहुत श्रद्धा-भाव से विनीत प्रणाम किया और पिताजी ने चाय बनवाने की बात पूछी तो बच्चनजी ने वहीं खड़े-खड़े अहाते के गमले से तुलसी-पत्र तोड़े और उसे मुँह में डालकर बोले--'लो, मैं तो तृप्त हुआ, अब लौट चलो।' पिताजी ने प्रतिवाद किया और कहा--'भाई, यह भी क्या बात हुई? एक कप चाय पीने का वक़्त तो है ही अभी।' बच्चनजी ने कहा--'बिल्कुल नहीं है। दो-दो ठिकानों पर जाना है, सामान समेटना और उठाना है, फिर स्टेशन पहुँचना है, वह भी समय से।' पिताजी का मन मान नहीं रहा था, उन्होंने कहा--'तुलसी के दो पत्तों से भला क्या होता है?'

बच्चनजी हुलसकर बोले--'क्यों नहीं होता? जब तुलसी के एक पत्ते से ऋषि दुर्वासा और सम्पूर्ण साधु-समाज तृप्त हो सकता है तो मैं क्यों नहीं हो सकता ?' बच्चनजी के तर्क से पिताजी विवश हो गये और उन्हें अपनी सुभद्रा बहन तथा परम मित्र के साथ तत्क्षण बाँकीपुर लौटना पड़ा था।... रात की गाड़ी में दोनों स्वजनों को बिठाकर, विदा करने के बाद ही, पिताजी घर लौटे थे...!





'आरती' की आभापूर्ण दीपशिखा दो वर्षों तक निष्कंप जलती रही और उसका हर अंक अपनी शान का परिचायक बना रहा। सम्माननीय राजेंद्र बाबू और वात्स्यायनजी ने उसके लिए क्या-कुछ किया, यह तो अवांतर कथा है, लेकिन सन् 42 के द्वितीय विश्वयुद्ध की विभीषिका में 'आरती' का प्रकाशन असंभव हो गया; क्योंकि बाजार से स्याही और कागज़ नदारद हो गया था। 'आरती' की ज्योति निष्प्रभ हुई।... लेकिन मुझे लगता है, वह अपने दायित्व की पूर्ति कर चुकी थी--साहित्यिक चेतना जगा चुकी थी जन-मन में।

सन् 1948 में पिताजी को आरती मन्दिर प्रेस से एक तरह से बलात् उखाड़कर आकाशवाणी, पटना के प्रांगण में पहुँचा दिया गया। पिताजी की जीवन-दिशा बदल गयी। ये बात और है कि वहाँ भी उनका काम लिखने-पढ़ने का ही था। थोड़े ही समय में वह हिन्दी सलाहकार से हिन्दी वार्ता विभाग के प्रोड्यूसर बना दिये गये। जीवन अपनी राह चल पड़ा और समय को पंख लगे।...
[क्रमशः]

[चित्र : 1) बच्चनजी-मुक्तजी, 1942; 2) सुभद्रा कुमारी चौहान; 3-4) 'आरती' में प्रकाशित कवि-रचनाकारों के चित्र; 5) आरती मन्दिर प्रेस का भग्नावशेष, जो आज भी अतीत की स्मृतियाँ समेटे खड़ा है।]

बुधवार, 22 नवंबर 2017

पाटलिपुत्र के सहित्याकाश में जब चमकी थी 'बिजली'...सजी थी 'आरती'...(2)

लेकिन, घर से इतनी दूर, पिताजी का पद्मा-प्रवास दीर्घकालिक न हो सका। वह मन में एक नया स्वप्न लेकर पटनासिटी लौट आये। लेकिन उस स्वप्न के साकार होने में वक़्त लगा। उन्होंने मित्रवर अज्ञेयजी (स.ही. वात्स्यायन) को सहयोग के लिए आवाज़ दी और अज्ञेयजी की सदाशयता देखिये, वह आ पहुँचे पिताजी के पास--भट्ठी के पास की एक गली में--मालसलामी। अज्ञेयजी आये तो दस दिनों तक पिताजी के साथ ही रहे। दोनों मित्रों ने मिलकर एक स्वप्न को साकार करने का संकल्प किया। सुबह-शाम गंगा-स्नान, साहित्यिक और पारिवारिक गप-शप और रात्रि में लालटेन की मद्धम रौशनी में पठन-पाठन। पटना के पुष्ट मच्छर सोने न देते तो अज्ञेयजी लालटेन बुझाकर उसका मिट्टी का तेल पूरे शरीर पर लगा लेते और गहरी नींद सो जाते--कच्ची मिट्टी के फर्श पर; पिताजी से कहते, "घासलेट' का यह प्रयोग और परीक्षण मैं जेल-प्रवासों में निरंतर करता रहा हूँ, आप चिंता न कीजिये।"

दस दिनों के प्रवास में अज्ञेयजी ने पिताजी के स्वप्न को साकार करने में पूरा सहयोग देने का वचन तो दिया ही, साहित्य की सर्वांग सुन्दर मासिक 'आरती' की परिकल्पना की और उसके प्रवेशांक का दुरंगा मुखपृष्ठ भी सजा गये।...

सन् 1940 में 'आरती' का आलोक चहुँओर फैला। पिताजी और अज्ञेयजी का स्वप्न साकार हुआ। ऐसा नहीं था कि इसके पहले पटना से साहित्यिक पत्र-पत्रिकाएं प्रकाश में आई ही नहीं थीं। वर्षों पहले पटना मध्य से 'शिक्षा' का संपादन पितामह द्वारा किया गया था। ब्रजशंकर वर्मा द्वारा संपादित 'योगी' और रामबृक्ष बेनीपुरी-गंगाशरण सिंह के सम्मिलित संपादन में 'युवक' का प्रकाशन हो चुका था, लेकिन दुर्योग कि पत्र अल्पजीवी सिद्ध हुआ। जब 'आरती' प्रकाशमान हुई, तब 'बालक' और 'किशोर'--ये दो पत्र प्रकाशित हो रहे थे। सन् 1940 में, पिताजी को संबोधित एक पत्र में, गया के सुप्रसिद्ध साहित्यकार मोहनलाल महतो वियोगीजी ने एक प्रवेग में कतिपय आलंकारिक पंक्तियाँ लिखी थीं :
"भाई,
'आरती' आई। धन्यवाद! प्रकाशमान है।...मगही बोली में एक शब्द है--'मराछ'। मराछ उस अभागी को कहते हैं, जिसका बच्चा नहीं जीता, मर-मर जाता है। बिहार की साहित्य-भूमि मराछ है। हाँ, 'बालक', 'किशोर' हैं, पर बालकों और अल्हड़ किशोरों के बल पर गृहस्थी कायम नहीं रह सकती। एक 'युवक' (बाबू गंगाशरण सिंह और रामबृक्ष बेनीपुरी के संयुक्त संपादन में पटना से प्रकाशित होनेवाली पत्रिका) था, जिससे आशा थी, भरोसा था, वह मर ही चुका! लड़का न सही, लड़की का ही वंश चले--कुछ चले तो। 'युवक' न सही, बिटिया 'आरती' ही घर को बेचिराग होने से बचावे।... जैसी भगवान् की  इच्छा!

मैं श्रीवात्स्यायनजी को दूर से जानता हूँ। हुतात्माओं के इतिहास में जो सबसे जाज्वल्यमान परिच्छेद है, उसमें बार-बार मैंने इनका नाम पढ़ा है। यदि इनका सारा क्रांतिकारी फोर्स साहित्य की ओर मुड़ जाये तो फिर क्या कहने हैं। और तुम--?

क्या मैं भूल गया हूँ तुम्हें? इस जन्म में तो शायद गंगा, मुक्त और बेनीपुरी--त्रिदेवों को भूल नहीं सकता, पर-जन्म की राम जाने!"...

समय साक्षी है, वियोगीजी ने अज्ञेयजी के लिए जो शुभेच्छा 1940 के पत्र में प्रकट की थी, कालांतर में वही सत्य सिद्ध हुई।... 'मेघमण्डल' के मित्र, 'बिजली' के लेखक-कविगण का सहयोग-समर्थन भी पिताजी को मिला और सबसे बड़ी बात, एक-दो अंक के प्रकाशित होते ही उन अंकों को देखकर देशरत्न डाॅ. राजेंद्र प्रसादजी ने पत्र लिखकर पिताजी को सदाकत आश्रम में मिलने का आदेश दिया। यथासमय पिताजी उनसे मिले और पहली मुलाकात में ही राजेंद्र बाबू ने 'आरती' को अपने संरक्षण में लेने की कृपा की। 'आरती' की थाली जगमगा उठी।




उस मुलाक़ात में राजेंद्र बाबू ने कहा था--"आरती' देश में बिहार का गौरव बढ़ायेगी। इसका प्रकाशन अवरुद्ध नहीं होना चाहिए।" पिताजी बहुत उत्साहित और प्रसन्नचित्त सदाकत आश्रम से लौटे।

पटना सिटी की पतली-सी कचौड़ी गली में आरती मन्दिर प्रेस की स्थापना कर पिताजी वहीं रहने लगे और वहीं से निकलने लगी 'आरती'। कालान्तर में उसी भवन में 'संगीत सदन' स्थापित हुआ। 'आरती' के दरबार में कौन नहीं आया! दिग्गज साहित्यिक आये तो नयी पीढ़ी के साहित्य प्रेमी भी। स्थानीय नवयुवक मण्डल के जिज्ञासुु प्रतिनिधि तो सुबह-शाम 'आरती' की लौ को अंजुरी में उठाकर अपने मस्तक से लगाने को तत्पर रहते, उनमें प्रमुख थे स्व. गिरिधारीलाल शर्मा 'गर्ग', स्व. रामजी मिश्र 'मनोहर, स्व. नारायण भक्त, स्व. सत्यदेव नारायण सिन्हा आदि। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि बिजली-आरती के युग में पीढ़ियाँ दीक्षित हुईं।...

'दिनकर की डायरी" के संयोजन-काल (अप्रैल-मई 1972) में, दिनकरजी के कक्ष में रखे बड़े-से लोहे की चादरवाले बक्से से जब पिताजी के 1936-40 के लिखे चार पत्र मेरे हाथ लगे तो उन्हें पढ़कर मैं रोमांचित हो उठा था। उन पत्रों को दिखाकर जब मैंने उनसे बातें कीं तो उन्होंने मुझसे कहा था--"मेरी कई प्रारंभिक रचनाएँ मुक्तजी ने ही 'बिजली' और 'आरती' में प्रकाशित की थीं। यह उसी समय का पत्राचार है।"... 30-35 वर्ष पुराने उन खतों में पिताजी के मोती-से अक्षर सर्वथा सुरक्षित कैसे थे, यही आश्चर्य का विषय था।

अतिशीघ्र 'आरती मन्दिर प्रेस' बड़ी-बड़ी साहित्यिक विभूतियों का रमणीय स्थल बन गया। अज्ञेयजी-बच्चनजी का वहाँ आना-जाना तो होता ही था। सुधीजन उनके दर्शन कर मुग्ध-विस्मित होते। बच्चनजी के काव्य-पाठ की गोष्ठियाँ होतीं। 'मधुशाला' के छंद सुनकर श्रोता झूम-झूम जाते और गहरी संपृक्ति से काव्य-सुधा का पान करते रहते। पिताजी के समवयसी और बुजुर्ग मित्र, जो उन दिनों पटना में थे, वे भी साथ आ जुटते। ऐसी संगोष्ठियों, सम्मेलनों और काव्य-पाठ से पटना शहर में साहित्यिक सरगर्मियाँ तेज हुईं, नवयुवक पढ़ने-लिखने की ओर प्रवृत्त हुए, एक नया माहौल बनने लगा।...
[क्रमशः]

शनिवार, 18 नवंबर 2017

पाटलिपुत्र के सहित्याकाश में जब चमकी थी 'बिजली'...सजी थी 'आरती'...

बहुत तो नहीं, फिर भी एक लंबा अरसा गुज़रा पटना शहर (पटनासिटी) की गलियाँ छोड़े--जहाँ की गलियाँ वाराणसी की याद दिलाती हैं। प्रायः 40-42 साल पहले आठ वर्षों के लिए सिटी-प्रवासी बना था। उन आठ वर्षों के वक्त का हर लम्हा मेरे कलेजे में धड़कता है आज भी। ज़ेहन में करवटें बदलता है वह गुजरा हुआ ज़माना। स्मृतियों एक हुजूम है, जो चलचित्र की तरह चलता ही जाता है मन के निभृत एकांत में...! सोचता हूँ, ऐसा क्या ख़ास था वक्त के उस टुकड़े में, तो ख़याल आता है कि उस कालखण्ड ने न सिर्फ मेरा, बल्कि एक समूची पीढ़ी का कायाकल्प किया था, दिये थे संस्कार, बनाया था साहित्यानुरागी। मेरे साथ अतिरिक्त लाभ यह था कि मुझे जन्मना मिले थे साहित्य-प्रेम के स्फुलिंग। मैं श्रमजीवी, एकनिष्ठ, एकांत साधक-साहित्यकार और विद्वान् पिता (स्व. पं. प्रफुल्लचन्द्र ओझा 'मुक्त') का ज्येष्ठ पुत्र था। निःसंदेह, यह मेरा सौभाग्य था।...

गुरु गोविन्द सिंह की जन्म-स्थली होने का गौरव इसी पुण्यभूमि को प्राप्त है। गायघाट और तख़्त श्रीहरमन्दिर साहब के विशालकाय गुरुद्वारे अपनी नींव में उस गौरवशाली अतीत की अनेक गाथाएँ समेटे आज भी शान से खड़े हैं। पश्चिम में गायघाट का प्रसिद्ध गुरुद्वारा है तो पूरब में गुरु गोविन्द सिंहजी की बालक्रीड़ा स्थली है। यहीं मारूफगंज की बड़ी देवीजी का सिद्धासन है तो बड़ी और छोटी पटनदेवीजी भी यहीं विराजमान हैं। दक्षिण मे जल्ला के महावीरजी विराज रहे हैं तो अगम कुआँ का अलग महात्म्य है। और, उत्तर में जीवनदायनी वेगवती गंगा की धारा प्रवहमान् है। लोग श्रद्धावान् हैं, स्नेही हैं और परम आत्मीय भी हैं।

पटनासिटी कलावंतों, रससिद्धों, रसज्ञों-रसिकों, सेठ-साहूकारों की नगरी रही है। कालांतर में सुरों के साधकों, धुरंधर वादकों और ठुमरी-दादरा, टप्पा-तानों की मशहूर मलिकाओं ने इसी भूमि-भाग में अपना आशियाना बनाया। सुरों की रंगीन और हसीन महफ़िलें सजने लगीं यहाँ! राग-रागनियाँ इन्हीं आशियानों में महफ़ूज़ रहीं। बाल्यकाल में मैंने स्वयं अपनी आँखों देखे हैं उन आशियानों की बदहाली के दिन, जहाँ से उठती थीं कभी सम्मोहक और मारक तानें...! अपने ज़माने के जाने कितने हुनरमंद फ़नकार और अज़ीमुश्शान शानो-शौकत की फ़िरदौसों ने इसी ज़मीन से उठकर शोहरत की बुलंदियों को छुआ और यहीं ज़मींदोज़ हो गयीं। जाने कितने कलावंतों की चिताएँ यहीं जलीं और ठंडी हुईं।

यहाँ सबकुछ था--आध्यात्मिकता, कलानुराग, विरासतों को सँजोये रखने की तड़प और आपसी भाईचारा, प्रेम-सौहार्द, पहलवानी के अखाड़े और गली-चौबारों की रौनक; कमी थी तो साहित्यिक संस्कारों की, साहित्यानुरागियों की, साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं की। बिहार तो वैसे भी पत्र-पत्रिकाओं के मामले में मरुभूमि-समान था। प्रख्यात शायर शाद अज़ीमाबादी (1846-1927) ने अपने युग में उर्दू अदब की शमा यहाँ खूब रोशन की, लेकिन हिन्दी साहित्य के सर्वाधिक पाठक बिहार में होने के बाद भी यह भूमि-भाग साहित्यिक रूप से सचेतन नहीं हुआ था। बीसवीं शती के तीसरे दशक में मेरे पूज्य पिताजी ने अपने ऋषिकल्प विद्वान् पितृश्री (साहित्याचार्य पं. चन्द्रशेखर शास्त्री) के निधन (1934) के बाद उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद शहर को छोड़कर यहीं मालसलामी में बसना पसंद किया।

पिताजी ने अपने प्रयत्नों से यहीं से साप्ताहिक 'बिजली' नाम की एक साहित्यिक पत्रिका का संपादन-प्रकाशन, बर्मन एण्ड कंपनी के सहयोग से, 1936 ई. में आरम्भ किया। उन्होंने पटना के केन्द्र में अपने घनिष्ठ मित्र जनार्दन सहाय (कालान्तर में जिनके अनुज डाॅ. जितेन्द्र सहाय सुप्रसिद्ध नाटककार, व्यंग्यकार और संस्मरणकार बने) के साथ मिलकर साहित्यिक विमर्श की एक संस्था 'मेघमण्डल' की स्थापना की, जहाँ साहित्यानुरागियों की मण्डली जुटने लगी। दो वर्षों के प्रकाशन-काल में इस पत्रिका ने स्तरीय साहित्य के पठन-पाठन का ऐसा माहौल बनाया कि यह बंजर भूमि उर्वरा होने लगी। बिहार के निविड़ अंधकारमय साहित्याकाश में 'बिजली' ऐसी चमकी कि दिशाएं प्रकम्पित हुईं और आकाश उज्ज्वल प्रकाश से आलोकित हो उठा था। 'बिजली' ने स्थापित और सिद्ध साहित्यकारों की रचनाओं को स्थान दिया तो उदीयमान तथा नवोदित प्रतिभाओं को भी एक मंच प्रदान किया। एक ओर जहाँ महादेवी, निराला, पंत , प्रसाद, मैथिलीशरण, सियाराम शरण की रचनाएँ बिजली में छपीं, वहीं कवि बच्चन, नलिनविलोचन शर्मा, गोपालसिंह 'नेपाली', जनार्दन प्रसाद झा 'द्विज', हरेन्द्रदेव नारायण की लेखनी भी 'आरती' की आभा में चमक रही थी।...



प्रायः दो वर्षों के निरंतर प्रकाशन के बाद व्यावसायिक कारणों से 'बिजली' पद्मा, हजारीबाग में कड़कने चली गयी। पिताजी भी पद्मा गये और वहाँ के राजभवन में अतिथि बनकर रहे। उसी प्रवास में कई स्तरीय रचनाएँ उनकी कलम से कागज पर उतरीं। बिजली के खम्भे से बँधी गाय जब अपनी बछिया से बिछड़ गयी तो वह रात-भर आर्त्तनाद करती रही और खम्भे को उखाड़ फेंकने का संघर्ष करती रही। लेखक अपने घर के वातायन से उसका विलाप और संघर्ष देखते और मर्माहत होते रहे। दूसरे दिन सुबह के हल्के प्रकाश में विकल-विह्वल बाछी कुलाँचे भरती अपनी माँ के थन से आ लगी, इस दृश्य का मार्मिक और विचलित कर देनेवाला करुण विवरण जब उनकी लेखनी से कागज पर चित्रित हुआ और 'बिजली' में प्रकाशित हुआ तो हलचल मची थी। उसे पढ़कर टीकमगढ़ से पं. बनारसीदास चतुर्वेदीजी ने लिखा था--"आपकी कलम से गाय और बाछी की मनोवेदना, विकलता और विह्वलता साकार हो उठी है तथा पाठकों के मन को मथ देती है। ऐसी अन्य अनेक रचनाएँ हिन्दी में आनी चाहिए।"... किन्तु, आदेश से ऐसी रचनाएँ रूपायित नहीं होतीं। वैसी अनूठी मर्मवेधी रचना हिन्दी में दूसरी न आ सकी।...
[क्रमशः]

मंगलवार, 14 नवंबर 2017

दीर्घकाय आलेख की लंबी प्रस्तावना...

[मित्रो ! सितम्बर के अंतिम सप्ताह में पटना से अग्रज श्रीनवीन रस्तोगी और मित्रवर कुमार दिनेश का सम्मिलित आदेश-आग्रह प्राप्त हुआ कि पाटलिपुत्र परिषद्, पटना की शीघ्र प्रकाश्य स्मारिका के लिए तत्काल कुछ लिखूँ। 1967-68 के इतने वर्षों बाद परिषद् से स्मारिका का प्रकाशन होनेवाला था। तत्कालीन स्मारिका में, जब अनन्तशयनम आयंगर बिहार के राज्यपाल थे, तब उनकी, मुख्यमंत्रीजी की शुभकामनाओं के बाद पूज्य बच्चनजी और पिताजी की सम्मतियाँ उसमें छपी थीं। संपादक-मण्डल का निर्णय था कि दीर्घावधि के बाद प्रकाश में आनेवाली प्रस्तावित स्मारिका में मुझ अकिंचन-अपदार्थ का भी कोई-न-कोई आलेख होना ही चाहिए। अग्रज का आदेश और मित्र की ज़िद ने लिखने को विवश कर दिया, लेकिन कई व्यवधान भी थे। मुझे दक्षिण की यात्रा पर निकलना था--तिथियाँ सुनिश्चित थीं, उनमें परिवर्तन असंभव था। मुझे लिखना है तो क्या लिखूँ, यह विचार भी तो करना था। वैसे, संपादक कुमार साहब से मुझे एक इशारा तो मिला था कि पाटलिपुत्र की पावन भूमि का यशोगान करते हुए साहित्यिक उन्नयन की गाथा लिखनी है मुझे और अतीत से वर्तमान तक चले आना है। दिमाग़ ने लेखन की योजना बनानी शुरू कर दी। अपनी आदत के अनुसार मैं अतीतोन्मुख हुआ। अपनी यादों के आसमान को खुरचते हुए मुझे कई रंग मिले--ऐसे रंग भी, जो मेरे देखे हुए नहीं थे। जीवनानुभवों से इतर सुनी-जानी और पढ़ी हुई गाथाओं के रंग बड़े शोख़-चटख लगे थे मुझे। मैंने उत्खनन जारी रखा और भावों को शब्दों में पिरोने लगा।...

मित्र-संपादक-द्वय द्वारा दी हुई समय-सीमा में आलेख लिखकर भेज देने की सख़्त हिदायत थी। पहली कड़ी घर रहते लिख गया, फिर यात्रा शुरू हुई।...और लेखन में व्यवधान पड़ा। आप यक़ीन करें, यह आलेख कई टुकड़ों में, अनेक पड़ावों में, एयरपोर्ट के वेटिंग लाउंज मे, हवाई जहाज की यात्रा में, बेटी-दामाद और नवासे के घर पहुँचकर ड्राइंग रूम में या एकांत कक्ष में अथवा सुबह-सबेरे बगीचे में निरंतर लिखता ही रहा। श्रीमतीजी को थोड़ी उजलत भी हुई कि अजीब-सा व्यवहार कर रहा हूँ मैं--इतने दिनों बाद मिले दामाद साहब से न ठीक से बात कर रहा हूँ, न नवासे ऋतज के साथ मिलकर अपनी प्रसन्नता का इज़हार कर रहा हूँ। वह मुझे अकेला देखकर आयीं और अपनी आपत्ति भी दर्ज कर गयीं। लेकिन वह मेरा स्वभाव जानती हैं। जानती हैं कि जब तक लेखन का यह भूत मेरे सिर से उतरेगा नहीं, मैं सामान्य और प्रकृतिस्थ हो न सकूँगा। कोची में भी दो दिनों का ही अवकाश था, तीसरे दिन बहुत सबेरे तिरुवनन्तपुरम के लिए प्रस्थान करना था हमें, लेकिन एक दिन पहले ही मैंने आलेख पूरा कर लिया और मेल पर प्रेषित करके दायित्व-मुक्त हुआ।...


मुझे लगता है, किसी विधा में, किसी भी विषय पर, कुछ भी लिखना हो तो उसके लिए दिमागी रसोई जब तैयार हो जाती है, तब लेखन निर्बाध गति से होता है। पारिस्थितिक व्यवधान भी आयें तो वे लेखन का मार्ग अवरुद्ध नहीं कर पाते; क्योंकि विचार, भावनाएं और इच्छित अभिव्यक्तियाँ सिद्ध होकर मस्तिष्क की कड़ाही में उबलने लगती हैं और उफनते दुग्ध की तरह पात्र से बाहर निकल आने को व्यग्र हो जाती हैं। फिर उन्हें तत्काल लिख डालना ही एक कलमकार की विवशता हो जाती है। यह विवशता मैंने बार-बार महसूस की है। शब्द-सामर्थ्य हो, भाषा-शैली पर किंचित् अधिकार हो, विचार और चिंतन को क्रमिक स्वरूप देते हुए तारतम्य गढ़ने की कला हो, तो भाषा का रथी गद्य के रणक्षेत्र में हुंकार भरता हुआ निरंकुश दौड़ सकता है।...

मैं क्या और मेरी हस्ती भी क्या! पूज्य पिताजी से मिली शब्द-संपदा और मेरा पल्लवग्राही ज्ञान जितना आलोक उनकी उपस्थिति मात्र से ग्रहण कर सका है, उसी ऊर्जा से लिख लेता हूँ थोड़ा-बहुत। लिखने की विवशता से ही लिखा है यह आलेख भी। अब इसकी छह कड़ियाँ कल से क्रमशः आपके सम्मुख होंगी। यह तो आप ही बता सकेंगे कि भाग-दौड़ के बीच लिखी गयी यह दीर्घकाय रचना आपको कैसी लगी!

वैसे, बताता चलूँ कि स्मारिका का प्रकाशन हो चुका है और दिनांक 9अक्तूबर, '17 को बिहार के उप-मुख्यमंत्री श्रीसुशीलकुमार मोदी के कर-कमलों द्वारा इसका विमोचन भी किया जा चुका है, मेरे सहपाठी अभिन्न मित्र और प्रदेश के कैबिनेट मंत्री श्रीनन्दकिशोर यादव की उपस्थिति में...! स्थानाभाव, समायोजन की विवशताओं के कारण संपादकीय कतरनी भी यत्र-तत्र चली है, शीर्षक को भी सुघड़ बनाया गया है, लेकिन फेसबुक पर यह आलेख मैं अपने दिये हुए शीर्षक के साथ ही यथावत् रख रहा हूँ, वैसे मानता हूँ कि आलेख की तरह ही सिरनामा भी बड़ा हो गया है।...भई, खिचड़ी मेरी बनायी हुई है, मुझे अधिक नमक के साथ भी अच्छी लगती है...

यह प्रस्तावना (इंट्रो) भी इतनी बड़ी हो गयी कि इसे एक अलग पोस्ट की तरह रखना मुझे उचित प्रतीत हुआ। इसे पढ़कर आप अपने मन को तैयार कर रखिये, कल से किस्तें पढ़ने को...। इस प्रस्तावना पर अपनी पसंदगी का इज़हार करने की भी आवश्यकता नहीं है। पहले आलेख की पहली किस्त तो पटल पर आने दीजिए प्रभो! नमस्कार!!]

--आनन्द.

रविवार, 29 अक्तूबर 2017

समंदर की शिल्प-सृष्टि...

[दक्षिण की यात्रा से लौटकर...(6)]

पूवर के रिसाॅर्ट पर पहुँचते ही शंकाएँ निर्मूल हो गयीं। हम बहुत ऊँचाई से, सँकरे, सर्पिल और अनगढ़ मार्ग से यह सोचते उतरते गये कि जाने कहाँ जाकर ठहरेंगे हम! लेकिन विस्तृत भू-भाग पर आते ही हमारे सामने एक ऐसा अलभ्य गवाक्ष खुल गया, जो मरकत मणि-द्वीप-समान था। दो-दो प्रवेश-द्वारों को पार कर जब हम 'ईस्चुअरी आईलैण्ड' के अन्दर पहुँचे तो हमारे सम्मुख था एक संपूर्ण आनन्द-लोक! देव-भूमि के निर्जन में बसा दिव्य-लोक! स्वच्छ मार्ग, शान्त और उल्लसित वातावरण, सर्वत्र हरीतिमा, नील जल से भरा तरण-ताल, बैक वाटर पर तैरता रेस्टोरेंट, दृश्यावलोकन के लिए बनाई गयी ऊँची अटारियाँ, मोटर बोट तक ले जानेवाली लाल टाइल्स की शोभायमान पगडंडियाँ और समुद्र का परित्यक्त प्रचुर जल--हरित क्रांति मचाता हुआ!

वहाँ पग धरते ही मन प्रफुल्लित हो गया। तीन घण्टों की अनवरत कार-यात्रा की थकान छूमन्तर हो गयी। बैक वाटर की बोट-यात्रा को ऋतज मचलने लगे। रिसाॅर्ट के दो अंतःसंबंधित सुसज्जित कक्ष पहले से ही सुरक्षित थे और हमारे आगमन की प्रतीक्षा कर रहे थे। हमने वहाँ अपना सामान डाला, मुंह-हाथ धोकर प्रसन्न-मन हुए और निकल पड़े नौकायन का आनन्द लेने। नारियल के फल से लदे वृक्षों के बीच से गुज़रते हुए हम बोट के पास पहुँचे, सवार हुए और बोट बैक वाटर में तैरती चल पड़ी उस पार! अमित आनन्द हुआ।

यह देखकर आश्चर्य हुआ, आनन्द भी कि समुद्र स्वयं अपने परिश्रम से बनाता है टीले, तालाब और तंग गलियारे और लौट जाता है अपनी सर्वभौम सत्ता के हृदप्रदेश में। जब कभी उसे लगता है कि उसके द्वारा निर्मित तालाब का जल कम हो रहा है, वह रात्रिकाल में यत्नपूर्वक तंग गलियारों से पुनः आता है, तालाब में जल भरता और चला जाता है नि:शंक। प्रकृति और पर्यावरण में हस्तक्षेप, निर्माण और विध्वंस तथा पुनर्निर्माण, पुनःसृजन उसका परिश्रम है, प्रमोद भी; क्रीड़ा है, व्यायाम भी। हम सृजन देख प्रसन्न होते हैं, मुग्ध-विस्मित और रोमांचित होते हैं तथा विध्वंस देख क्षुब्ध होते हैं, दुखी होते हैं, विकल होते है; लेकिन समंदर तो समंदर है, वह अपनी अनवरत क्रीड़ा में मग्न रहता है, हित-अनहित की चिंता से निर्लिप्त!
मनुष्य भी तो अपने जीवन में यही सब करता है न? बनाता है, मिटाता है; मिटाता है, बनाता है और एक दिन खुद मिट जाता है; क्योंकि वह भी स्वयं प्रकृति की निर्मिति ही है...!

बैक वाटर को पार कर जब हम दूसरे छोर पहुँचे तो हमने देखा, समुद्र ने अपने निरंतर श्रम से पीली रेत का लंबवत् एक टीला बना दिया है, जिसके उस पार घहराता समुद्र तरंगित है। उसकी लहरें दौड़-दौड़कर किनारे पर आती हैं और टीले को सैंकत-कणों की सौगात सौंप जाती हैं। वहाँ हमने बहुत देर तक आनन्द-भजन किया, नारियल का मीठा जल पिया, अनानास के मीठे टुकड़े खाये, जल-क्रीड़ा की, ऋतज ने अपने पितृश्री के साथ मल्लयुद्ध किया, तस्वीरें खींचीं-खिंचवायीं और सूर्यास्त के पहले ही बोट से लौट आये। समुद्र और बैक वाटर के बीच की रेतीली जमीन पर टिके रहने की समय-सीमा निर्धारित थी। हमने नियमों का पालन किया।

रिसाॅर्ट लौटकर मैंने और श्रीमतीजी ने तैरते हुए शानदार रैस्टोरेंट में दो कप चाय पी और जब देयक सामने आया तो मैं चकराया। दो कप चाय के 180 रुपये देने होंगे? पटना में दो रुपये की कुल्हाड़वाली चाय पीने का अभ्यासी मैं, विस्मित था! इतने वर्षों में वहाँ मूल्य बढ़ा भी होगा तो पाँच-दस तक पहुँचा होगा। लेकिन इतनी चिंतना का अवकाश नहीं था, देयक भुगतान की प्रतीक्षा में था। मन मारकर मैं दायित्व से मुक्त हुआ और अपने कमरे में लौट आया।

शाम सात बजे हम सभी तरण-ताल में उतरे और करीब एक घण्टे तक जल-विहार करते रहे। श्रीमतीजी के पास पूल में प्रवेश का मानक और निर्धारित वस्त्र नहीं था, लेकिन बड़ी का उत्साह देखिये, वह पन्द्रह मिनट में परिसर की एक दुकान से अपनी माँ के लिये न सिर्फ स्विमिंग ड्रेस खरीद लायी, बल्कि उस नवीन परिधान में उन्हें लेकर पूल में प्रविष्ट हुई। मैं अपनी ही भार्या को देखकर पहचानने की चेष्टा करता रहा... वह तो एक आधुनिका देवीजी-सी दीख रही थीं--नितांत अपरिचिता। वह भी ससंकोच पूल में प्रविष्ट हुईं और ऋतज के साथ मिलकर यह भूल गयीं कि वह मुझ वृद्ध की वृद्धा हैं। स्विमिंग पूल का सर्वाधिक आनन्द हमारे छोटे सरकार ऋतज ने उठाया। वह तो पूल से बाहर आना ही नहीं चाहते थे। उन्हें समझा-बुझाकर बाहर निकाला गया। स्नानोपरान्त हमारी सारी कंथा दूर हो गयी, हम सज-धजकर तैयार हुए और थोड़ी तफ़रीह करते हुए प्रकृति की उद्दाम सुन्दरता का आनन्द-लाभ करते रहे।...

जब रात के साढ़े नौ बज गये, हम रात्रि-भोजन के लिए रैस्टोरेंट में पहुँचे। रात्रिकाल में बैक वाटर भी समुद्र-सा प्रतीत हो रहा था। चंचल वायु थी और रौशनी में नहाते हुए रैस्टोरेंट के प्रकाश की प्रतिच्छाया जल की सतह पर तैर रही थी। अद्भुत आनन्द और अप्रतिम सौन्दर्य की सृष्टि थी वहाँ। हम सबों ने अपनी-अपनी पसंद के व्यंजनों का आदेश वेटर भाई को दे दिया। शानदार माहौल की मादकता और सुन्दरता को निहारते हुए हमने भोजन ग्रहण किया। हम रेस्तराँ से बाहर आये और उसके बाद तेज समुद्री हवाओं का आनन्द लेते बैक वाटर के किनारों की सैर करते रहे। वहाँ 'मैं' तो था ही, सर्वत्र आनन्द ही आनन्द पसरा हुआ था।







कई बार मोद-मग्न शरीर को थकान की अनुभूति नहीं होती। वह किये जाता है श्रम... और श्रम, रहता है उल्लसित--आनन्द के पालने में झूलता हुआ दिग्भ्रमित; किन्तु शरीर का रसायन सहेजकर रखता जाता है तद्जन्य क्लांति का गणित। जब हम अपने-अपने कक्ष में शयन के लिए शय्याशायी हुए तो गहरी नींद आयी। अब तो सुबह शीघ्र जागरण की विवशता भी नहीं थी। मैं सात बजे जागा, लेकिन श्रीमतीजी और बिटियारानी छह बजे ही जागकर वैक-वाटर के किनारों का एक चक्कर लगा आयीं। आनन्ददायी सुबह में पलकें खुलीं, तो हाथ-पाँव और कंधों में ख़ासा दर्द था। संभवतः वर्षों बाद स्विमिंग पूल में तैरने और उधम मचाने के कारण। ऋतज जब जागे, ताजगी और स्फूर्ति से भरे हुए हुए थे। वह मुझे ललकार रहे थे--'नानजी! चलिए, चलते हैं पूल में।' वह पूल में तैरने-स्नान करने का स्वप्न लेकर ही शायद सोये थे पिछली रात! मैंने उन्हें बताया कि 'पूल में तैरने की वजह से ही मेरे शरीर में दर्द हो रहा है। मैं तो बाथरूम में ही स्नान करूँगा बच्चू!' उन्होंने एक बुजुर्ग की तरह मुझे समझाया--'नानजी, आप पूल में दुबारा तैरेंगे तभी दर्द दूर होगा, नहीं तो और ज्यादा होगा। सच में।' उनकी ज़िद पर मुझे फिर पूल में उतरना पड़ा। वह बार-बार मेरे पास तैरते हुए आते और दर्द-निवारण की नयी-नयी युक्तियाँ बताते। इतना तो सच है कि पूल में तैरना-स्नान करना आनन्ददायी लगा, लेकिन पूल से बाहर आकर मैंने जाना कि शरीर के दर्द में ख़ासी कमी भी आ गयी है। ऋतज भी लगातार मुझसे पूछते ही रहे--'नानजी, अब ठीक हो गया न दर्द?' इस तरह दर्द की बात सबको ज्ञात हो गयी, जिसे मैंने पोशीदा रखा था सुबह से...।

सुबह का जलपान यहाँ भी रिसाॅर्ट की ओर से ससम्मान 'काॅम्प्लीमेंटरी' था। जब हम रेस्तराँ में पहुँचे तो वहाँ भी विविध व्यंजनों की बहुत बड़ी नुमाइश लगी हुई थी, लेकिन वो कहावत है न, दूध का जला...! मैंने मन को संयम का पाठ पढ़ाया और व्यंजनों की ओर संयत भाव से बढ़ा। लेकिन, जब एक-एक व्यंजन ब्राह्मण की रसना को तृप्ति देने लगा तो वह सारे बंधन भूल गया और उसने फिर उदर को आकण्ठ भर लिया। तृप्त होकर हम सब वहाँ से दस बजे उठे। अब हमारे पास दो घण्टे का वक़्त था, हमें बारह बजे रिसाॅर्ट से कोचीन की यात्रा पर निकलना था--260 किलोमीटर की अनवरत यात्रा पर!...

हमने सामान समेटा। अंतिम भुगतान के लिए जब हम 'रिसेप्शन' पर पहुँचे तो हमें लंबा-चौड़ा देयक थमा दिया गया और लेकिन हम इस बात से संतुष्ट और प्रसन्न थे कि सुबह के 'कम्पलीमेंट्री ब्रेकफास्ट' में हमने हिसाब बराबर कर लिया है।...

उसके बाद द्रुत गति से सड़क पर दौड़ चली रविजी की कार। बीच राह में रुक-रुककर नारियल-जल पीते हुए हम चलते ही रहे--अंतहीन रास्ता। न राह खत्म होती, न दामाद सा' की हिम्मत घटती। सम्पूर्ण मार्ग की शोभा तो वर्णनातीत है। हमारे साथ-साथ समुद्र भी दौड़ रहा था, लेकिन विपरीत दिशा में। बारह बजे के पूवर से चले हुए हम रात आठ बजे बेटी के घर पहुँचे। आठ घण्टों का अबाधित परिचालन--यह दामाद साहब के ही वश की बात थी, उन्हीं का हियाव था। यात्रा की थकान तो थी, लेकिन हमें इसकी अत्यधिक प्रसन्नता थी, संतोष था कि हम अपने कलेजे में समेट लाये थे ज़िन्दगी से भरी हुई ढेर सारी ताज़ा हवाएँ और मस्तिष्क में अविस्मरणीय, अनमोल यादें।

हँसी-खुशी का बस, एक दिन और शेष था। बेटी-दामाद-ऋतज से बहुत सारी बातें हुईं, चित्रों का आदान-प्रदान, प्रसाद का बँटवारा हुआ और उसके अगले ही दिन, मात्र डेढ़ घण्टे में वायुयान हमें ले आया कोची से बहुत दूर--पूना के भीड़-भरे शहर में और हमें छोड़ गया यहाँ तन्हा-तन्हा!...
[इति वार्ताः]

--आनन्द.
3-10-2017.

सोमवार, 23 अक्तूबर 2017

दिव्य-भूमि से देव-भूमि पर...

[दक्षिण की यात्रा से लौटकर...(5)]

आकाश में अपने आगमन की पूर्व सूचना देते हुए जो रक्ताभ तिरंगा दिवाकर की रश्मियों ने फहराया था और जो अपूर्व दृश्य हमें दिखलाकर दिन-भर की अनवरत यात्रा पर चल पड़े थे, उसी से हर्षोन्मत्त हुए हम सब होटल से पाँच किलोमीटर दूर 'हिडन ट्विन बीच' चले गये। बाल-गोपाल की ज़िद थी, सुबह का वक्त था और खुशनुमा माहौल था। 'बीच' पर पहुँचने के लिए बलुआई खड़ी ढलान से नीचे उतरना था। मुझे तो नींद पूरी न होने की थकान थी, चित्त पर खिन्नता सवार थी, सिर में हल्का दर्द था और बीच पर उधम मचाने का वैसा कोई शौक भी मुझे नहीं था। दरअसल, 29 सितम्बर से हम निरन्तर यात्रा ही तो कर रहे थे और रैन बसेरों में अधकच्ची निद्रा लेकर आगे बढ़ते जा रहे थे। चार दिनों में थकान बढ़ते-बढ़ते चरम दशा में पहुँच गयी थी।... लिहाज़ा, मैं तो 'उच्चस्थानेषु पण्डिता' ही बना रहा, लेकिन युवक-युवतियाँ बच्चों सहित बीच पर जा पहुँचे। आश्चर्य की बात कि घुटनों के दर्दवाली मेरी श्रीमतीजी भी ऋतज की पुकार की अनसुनी न कर सकीं और सँभल-सँभलकर पग बढ़ाते, सहारा लेते हुए नीचे उतर ही गयीं और मैं काफी दूरी से उनकी तस्वीरें उतारता रहा।..

लेकिन, घण्टे-भर में धूप तीखी हो गयी और मेरे शरीर का रसायन तत्व बिगड़ने लगा, मस्तिष्क का नेटवर्क भाग चला; क्योंकि मैं अपना पान-तम्बाकू का थैला होटल के कमरे में ही छोड़ आया था। वह तो प्रभु भास्कर की कृपा हुई कि जल-क्रीड़ा करनेवाले दल को भी उनकी प्रखर रश्मियाँ चुभने लगीं और वे ऊपर आ गये। 'बीच' से होटल की राह निर्जन, कितु आकर्षक थी। दल के प्रायः सभी सदस्यों ने मध्य-मार्ग की एक छोटी-सी दुकान में चाय पी और होटल लौट आये।

होटल-प्रबंधन ने अपने सम्मानित अतिथियों के स्वागतार्थ निःशुल्क स्वल्पाहार (काॅम्प्लिमेण्ट्री ब्रेकफास्ट) का समय निर्धारित कर रखा था--8.30 से 10। हम नौ बजे के आसपास ही होटल पहुँच गये थे। पूरा दल शीघ्रता से स्नान-ध्यान में जुटा। 'बीच' से साथ लायी बालुका-राशि से पूर्णतः मुक्ति पाकर हम सभी होटल के बेसमेण्ट में पहुँचे, जहाँ नाश्ते का बढ़िया प्रबंध था। भोज्य-पदार्थ जब मुफ़्त का मुहय्या हो तो चित्त प्रसन्न हो जाता है और 'मेनू' देखने की आवश्यकता नहीं होती। दातव्य के अन्न पर रीझ जानेवाला विप्र तो मन्त्रमुग्ध-सा ठीक उसी तरह व्यंजन की ओर बढ़ता है, जैसे गुड़ की ढेली की ओर पंक्तिबद्ध बढ़ते हैं चींटे। युग बदला है, युग-धर्म बदला है, रोजी-रोजगार के लिए घर से निकले हैं विप्र-बंधु भी, बड़ी संख्या में; लेकिन सनातन परम्परा के गुण-तत्व रक्त-मज्जा से जाते कहाँ हैं? वे रह जाते हैं वृत्ति बनकर स्थायी भाव में...!

बेसमेण्ट के बड़े-से हाॅल में विभिन्न प्रकार के दक्षिण भारतीय व्यंजन तो थे ही, पूरी-भाजी, टोस्ट-बटर, गर्मागरम बनता ऑमलेट-दोसा, चाय-काॅफ़ी, कटे हुए फलों और जूस के काउंटर भी सजे हुए थे और हमें हसरत भरी निगाहों से तक रहे थे; जैसे हमलोगों से ही कह रहे हों--'आओ भाई, हमें खा-पी लो।' उनका यह प्रीत-पगा आमंत्रण बहुत लुभावना था। हम सभी भूखे व्याघ्र की तरह व्यंजनों पर टूट पड़े। हमने उन स्वादिष्ट पदार्थों को अल्पाहार की तरह नहीं, बल्कि संपूर्ण भोजन से भी अतिरिक्त मात्रा में ग्रहण किया। बच्चों ने आहार के साथ फल खाये, तरबूज का मीठा रस पिया, फिर मिल्कशेक भी गटक गये। हम भी अभी कहाँ बूढ़े हो गये थे अच्छी तरह? उदर में अधिकाधिक जितना कुछ डाल सकते थे, भविष्य की चिंता किये बिना, डालते गये। अधेड़ उम्र का मेरा पेट भी 'कन्फ्यूज़' हो गया कि यह सब क्या हो रहा है उसके साथ! उसे पायज़ामे के जारबंद का बंधन भी अप्रिय लगने लगा था।... अत्याचार किसी के भी साथ हो, वह नाराज़ जरूर होता है।





वहीं नाश्ते की टेबल पर बेटी-दामाद सा' ने तय किया कि हम कन्याकुमारी से कोचीन की यात्रा एकमुश्त न करके, बीच में एक रात का विश्राम लेंगे और तत्पश्चात् कोचीन के लिए प्रस्थान करेंगे। मध्य मार्ग का हमारा विश्रामालय होगा पूवर का 'बैक वाटर का रिसाॅर्ट'। दामाद साहब के दोनों मित्रों को भी सपरिवार अलग-अलग दिशाओं में जाना था। वे दोनों 10 और 10.30 पर गन्तव्य के लिए प्रस्थान कर गये। हमने डेढ़ घण्टे तक होटल में ही विश्राम कर शरीर और उग्र हुए उदर को शांत होने का अवकाश दिया। लेकिन डेढ़ घण्टे में उदर शांत-संयमित होनेवाला था नहीं, वह मुँह फुलाये रहा।...एक-दो बार वह मुँह तक आया भी, जैसे कुछ कहना चाहता हो। मैंने बलपूर्वक उसे यथास्थान बने रहने को बाध्य किया।

दिन के ठीक बारह बजे हम 70 किलोमीटर के सफ़र पर होटल से चल पड़े--पूवर के लिए। इकहरी सड़क थी, ढाई-तीन घण्टे का सफ़र था, लेकिन राह के दोनों किनारों के दृश्य चित्ताकर्षक थे। नारियल और ताड़ वृक्षों की अनन्त श्रृंखला सर्वत्र थी--शोभायमान! यह यात्रा अपेक्षाकृत शांति से सम्पन्न हो रही थी। ऋतज की आवाज़ के अलावा सिर्फ बेटी के स्वर सुनने को मिल रहे थे, वह भी तब, जब राह बताने की आवश्यकता होती; क्योंकि जीपीएस का नियंत्रण उन्हीं के अधीन था। कसे हुए पेट से सभी परेशान थे और नींद के झटके खा रहे थे। दिन के भोजन का तो प्रश्न ही नहीं था।...

अपने शरीर पर अगर किसी का पूरा नियंत्रण था, तो वह थे दामाद सा', जबकि सबसे अधिक श्रम उन्हें ही करना पड़ रहा था। तमिलनाडु की सीमा लाँघने के पहले दामाद सा' ने सड़क-किनारे कार रोकी। उतरकर कुछ कदम पीछे गये, जहाँ छोटी-सी मड़ैया में ताड़-नारियल के फलों का अंबार लिए एक वृद्ध बैठे थे। बड़े-बड़े शीशे के गिलासों में वह शर्बत जैसा पेय पदार्थ ले आये। उन्होंने बताया कि यह 'ताड़ी-मुंजु' है। इसे पीने के बाद तंद्रा भंग होगी और उदर की उथल-पुथल शांत हो जाएगी। उनके जोरदार समर्थन के कारण हम सबों ने शर्बत पिया, जिसमें श्वेत-पनीले और अतिमधुर टुकड़े मिश्रित थे। उसका पान कर जब हम आगे चले तो रविजी ने विस्तार से बताया कि वे श्वेत-पनीले टुकड़े दरअसल ताड़-वृक्ष के फल के अंदर के कोए थे।...और, आश्चर्य की बात कि उस पेय को ग्रहण करने के आधे घण्टे में ही उदर की उग्रता शांत हुई और हम बोलते-हँसते बढ़ते गये।...

बारह बजे के चले हुए हमलोग ढाई बजे पूवर के 'ईस्चुअरी आईलैण्ड' (केरल) पहुँच गये और वहाँ की निराली शोभा देखकर दंग रह गये।... वह तो पृथ्वी पर स्वर्ग के समान सुन्दर भूमि-भाग था।...हम दिव्य-भूमि से देव-भूमि पर आ गये थे।...

--आनन्द.
02-10-2017.

गुरुवार, 19 अक्तूबर 2017

अविस्मरणीय रहेगा वह सूर्योदय... आजीवन...

[दक्षिण की यात्रा से लौटकर...(4)

होटल पहुँचकर, सद्यःस्नान-समापनांतर, हम सभी रात्रि-भोजन के लिए पास के एक भोजनालय में गये। अच्छे आहार से तृप्त होकर, उनींदी आँखें, थकान से बोझ बनी देह लिये जब होटल के शानदार, गुदगुदे और मुलायम बिस्तर पर गिरे तो बेहोशी की नींद आयी। पार्श्व में घहराते समुद्र की गर्जना भी निद्रा में बाधक न बन सकी। मुझे लगा, सुदूर दक्षिण के समुद्री-तट पर समुद्र अपेक्षया शांत और संयमित है, वैसा उद्विग्न, उच्छृंखल और आक्रामक नहीं, जैसा मुंबई, कोलकाता अथवा जगन्नाथपुरी के तटबंधों पर है--हाहाकारी! तभी स्मरण में कौंधा, यहीं कहीं प्रभु श्रीराम ने समुद्र का दर्प-मर्दन किया था और उसे संतुलित होकर मार्ग देने के लिए विवश किया था। मुझे याद आयीं कवि भूषण की पंक्तियाँ--

"बिना चतुरंग संग वनरन लै के बाँधि वारिधि को लंक रघुनन्दन जराई है/ पारथ अकेले द्रोन भीषम सों लाख भट, जीत लीन्हीं नगरी विराट में बड़ाई है/ भूषन भनत भट गुसलखाने में खुमान अबरंग साहिबी हथ्याय हरि लाई है/ तौ कहाँ अचम्भो महाराज सिवराज, सदा वीरन के हिम्मतै हथ्यार होत आई है।"

हाँ, तभी तो कन्याकुमारी के समुद्री कछार पर लहरें किंचित् मंथर गति से आती हैं और पद-प्रक्षालन कर लौट जाती हैं, किंतु रात्रिकाल में थोड़ी स्वतंत्रता लेकर मुदित होती हैं और इसी मोद में उनका रोर कुछ बढ़ जाता है। भूषण की उपर्युक्त पंक्तियों के स्मरण मात्र से पौराणिक पात्र आँखों के सामने प्रकट होने लगे। माता सीता के वियोग में विकल प्रभु राम वन लाँघते हुए इसी भूमि-भाग में कभी आये होंगे। श्रीराम-भक्त हनुमानजी ने यहीं कहीं से लगायी होगी लंबी छलाँग। समुद्र के सुस्थिर हो जाने पर वानर-सेना ने उस पर बाँधा होगा सेतु...! मस्तिष्क सोचने लगा, यहाँ से कितनी दूर होगा रामेश्वरम्! पूछने पर ज्ञात हुआ, बहुत दूर--प्रायः तीन सौ किलोमीटर! इस जानकारी ने मेरे अतिचिंतन पर विराम लगाया।...

होटल के कमरे की खिड़कियों से हमने बाह्य परिदृश्यों का अवलोकन किया, तस्वीरें उतारीं; फिर तो निद्राभिभूत आँखें स्वयं ही बंद होने लगीं। हम शय्याशायी हुए। निद्रा देवी ने तत्काल हमें अपने आगोश में ले लिया। हम बेसुध सो गये।...

सुबह 5 बजे ही श्रीमतीजी ने झकझोर कर जगाया। यह शरीर पर अत्याचार-सा ही था, लेकिन तेजोराशेजगत्पते दिवाकर के दर्शन के लिये, उनकी अगवानी के लिए हमें जागना ही था। समय से तैयार होकर होटल के चार कमरों से चारों परिवार निकलकर लाॅबी में एकत्रित हुए--मैं सपत्नीक, दामाद साहब सपरिवार और उनके दो मित्र अपने-अपने परिवारों के साथ। अब हमें सूर्योदय दर्शन के लिए उपयुक्त स्थान पर पहुँचना था। होटल के स्वागत काउंटर पर जो संभ्रांत, सुदर्शन युवक खड़े थे, उन्होंने अंग्रेजी में पूछा--'आपलोग कहाँ जायेंगे?' दामाद साहब ने कहा--'सनराइज देखने।' स्वागतकर्ता ने सलाह दी कि 'सनराइज देखने के लिए सर्वोत्तम स्थान तो होटल के सातवें माले की छत ही है। आपलोग वहीं चले जायँ।' लिफ्ट से पूरा कुनबा तत्क्षण भवन की छत पर पहुँचा। तब तक घनान्धकार ही था--सर्वत्र। भूमि-भाग पर आसपास के जितने भवन-मन्दिर थे, वे रौशनी से जगमगा रहे थे--जल के बीच बना 'स्वामी विवेकानन्द राॅक मेमोरियल' और तिरुवल्लुवरजी की विशालकाय मूर्ति! वहाँ तक ले जानेवाली बोट का लंगर और जेटी तथा सम्मुख था दृष्टि-सीमा के परे तक बहता अनन्त सागर। यह अद्भुत-अकल्पनीय और मनोहारी दृश्य था। हमारी टोली मंत्रमुग्ध, ठगी-सी खड़ी थी!

छत पर और भी कई लोग थे। सूर्यदेव का कहीं पता नहीं था। सभी अपने सेल और कैमरे से प्रकाश तथा अंधकार के मिश्रण को कैद कर रहे थे। हमने भी वही किया। 5.30 पर हम छत पर पहुँच गये थे। गूगल सर्च ने हमें बताया था 6.08 पर प्रकट होंगे सूर्यदेव! हमारी अधीरता बढ़ती जा रही थी और लगता था, पल ठहर गये हैं, खिसकते नहीं। लेकिन, यह हमारा भ्रम था--हमारी बेकली का असर था...क्षण को अतीत का ग्रास बन जाना ही था और बिना हमें सचेत किये वह बनता जा रहा था अतीत का निवाला...!

छह बजते ही क्षितिज का रंग बदलने लगा। अंधकार परास्त होता स्पष्ट दिखा। हम सचेत-सावधान हो गये। अपनी-अपनी धुरी पर जड़, स्थिर! पहले उदयाचल का रंग धूसर हुआ, फिर पीला और फिर टुह लाल--रक्तिम! इसी लालिमा में, सुदूर आकाश में बादल का एक त्रिकोण रक्ताभ हो उठा। ऐसा लगा, सूर्यदेव ने आगमन के पहले विजय पताका फहरायी है। अचानक रवि-रश्मियों ने क्षितिज से झाँकना शुरू किया, सर्वत्र गहरा पीला रंग पुत गया क्षितिज के छोर पर। और, तभी दिनकर प्रकट होते दिखे। मुझे राष्ट्रकवि दिनकर याद आये और याद आयी बालकवि बैरागी की पंक्ति, जो राष्ट्रकवि के निधन पर उन्होंने लिखी थी--
'क्या कहा कि दिनकर अस्त हो गया,
दक्षिण के दूर दिशांचल में?'

ऐसा प्रतीत हुआ, मानो अथाह समुद्र में एक गहरी डुबकी मारकर जगतपति दिनकर बाहर आ गये हैं अभी-अभी।... आत्मा सिहर उठी। लगने लगा, कवि दिनकर अपनी अनन्त काव्य-रश्मियों के साथ लौट आये हैं भारत की भूमि पर।... दिशाएं आलोकित होने लगीं। क़ायनात का गोशा-गोशा रौशन हो उठा और तभी सैलानियों का प्रसन्नता से भरा एक शोर उठा--तुमुल नाद-सा। सैलानी, जो देश-विदेश से आकर वहाँ एकत्रित थे और देव दिवाकर के प्रातःदर्शन से हर्षोन्मत्त हो उठे थे। सातवीं मंजिल की छत से हम उन्हें भी देख रहे थे और सुन पा रहे थे वह जन-कोलाहल। वह सूर्योदय-दर्शन अद्भुत, अविस्मरणीय है और रहेगा आजीवन...!






लेकिन, यह क्या? मैंने लक्ष्य किया कि सूर्योदय उसी पश्चिम दिशा से हुआ, जहाँ कल सायंकाल सूर्यास्त हुआ था--यहाँ से ठीक डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर ! तो क्या दक्षिण भारत में सूर्योदय और सूर्यास्त पश्चिम दिशा में होता है? परमाश्चर्य ! पूछने पर ज्ञात हुआ कि यही एकमात्र ऐसा स्थल है, जहाँ ऐसा विभ्रम होता है; लेकिन मेरी शंका का समूल समाधान नहीं हुआ। जो प्रत्यक्ष घटित हुआ था, उसे नकारता कैसे?

इन दिनों मेरी दोनों बेटियों ने आपस में कुछ मंत्रणा कर अपने माता-पिता को सुख पहुँचाने का निश्चय किया है शायद! पिछले दिनों छोटी बेटी संज्ञा ने सदी के महानायक श्रीअमिताभ बच्चन से मिलवाकर मेरा एक सपना सच किया था और अब बड़ी बेटी कल्याणीया शैली और दामाद आयु. रवि ने यह दुर्लभ दर्शन का असीम सुख दिया। उन दोनों को मेरा आशीर्वाद कि उन्होंने यह संयोग बनाया, निमित्त बने, अन्यथा मैं अपने कागज़ों के अंबार का दीमक ही बना रह जाता...!

--आनन्द.
02-10-2017.

रविवार, 15 अक्तूबर 2017

बादलों की ओट धरकर सूर्य ने ले ली जल-समाधि...

[दक्षिण की यात्रा से लौटकर--3]

त्रिवेंद्रम से कन्याकुमारी सौ किलोमीटर दूर है। 65-67 किलोमीटर का सफ़र करके हम महाराजाधिराज मार्तण्डवर्मा के राजप्रासाद पहुँचे थे, लेकिन निर्माणाधीन होने के कारण मुख्य मार्ग अवरुद्ध था। हमें राजमार्ग छोड़कर सँकरे, उच्चावच और उबड़-खाबड़ रास्तों से गुज़रना पड़ा, जो भयप्रद भी था। इसमें ख़ासा वक्त बर्बाद हुआ। फिर, राजमहल में हम ऐसे मग्न हुए कि समय का कुछ होश नहीं रहा। अब 33-35 किलोमीटर की दूरी तय करनी थी और हमें भूख भी लग आयी थी। पद्मनाभपुरम् से निकलते ही उडपी का शाकाहारी भोजनालय देखकर हम हर्षित हुए और जमकर वहीं बैठ गए। पेट-पूजा से निवृत्त होकर हम पुनः दौड़ चले कन्याकुमारी की ओर। सूर्यास्त के पहले कन्याकुमारी पहुँचकर और होटल से तरोताज़ा होकर हमें 'सनसेट प्वाइंट' जा पहुँचना था। ग़नीमत थी, अब सड़क अपेक्षया अच्छी थी। हमें दामाद साहब के कार-चालन-कौशल का बड़ा भरोसा भी था, वह द्रुत गति से हमें गन्तव्य की ओर ले चले। लेकिन कार के पहियों को आखिरकार 33-35 किलोमीटर की दूरी को तो नपना ही था और दिन था कि ढलने को अधीर हो रहा था।

मनोरम वन-वीथियों की अनुपम शोभा को निहारते हुए हम क्षिप्रता से चले जा रहे थे। वनों, छोटी-छोटी पहाड़ियों और नद-नदियों के बीच से गुज़रते हुए हम सभी अपूर्व सुख का अनुभव कर रहे थे। सच है, लंबी यात्रा से हम बेहद थक गये थे, क्लांत थे, लेकिन हमारी ऊर्जा, हमारे उत्साह में कमी नहीं थी। हमारे साथ-साथ दायें हाथ घोर गर्जना करता समुद्र दौड़ रहा था और हमारी नस-नाड़ियों में भर रहा था अतीव उछाह। अनूठी सुख-सृष्टि का प्रदेश है केरल-तमिलनाडु! लेकिन 35 किलोमीटर की दूरी तय करते-करते सूर्यास्त का समय लबे-दम हो आया। होटल जाकर तैयार होने का अवकाश न रहा। हमने होटल से डेढ़ किलोमीटर पहले ही कोवलम् के बीच (सनसेट प्वाइंट) पर पहुँचना सुनिश्चित किया। समुद्र के तट पर जा खड़ा होना सचमुच रोमांचक अनुभव था। सनसेट प्वाइंट पर सैलानियों की अपार भीड़ थी, कारों-बसों का लंबा काफ़िला था। अपनी कार को थोड़ी दूरी पर छोड़कर और पद-यात्रा कर हम एक ऊँची शिला पर स्थापित हुए और सूर्यास्त की प्रतीक्षा करने लगे।...

और, थोड़ी ही देर में सूर्य पश्चिमी क्षितिज पर उतर आया, लेकिन जिधर वह अस्त होने चला, वहीं आकाश की किसी अज्ञात अभियांत्रिकी से निकलता गहरे काले धुएँ-सा बादल घनीभूत होता दिखा। ओह, दिवाकर तो बादलों की ओट जा छिपा। कभी किसी कोण से वह झाँकता तो आकाश का नज़ारा बदल जाता, समुद्र के जल की लहराती चूनर धानी हो जाती। आसमान में रंगों की बारिश हो रही थी ... साथ-साथ हमारे मन का रंग भी 'बैनीआहपिनाला' हो रहा था। सभी मुदित मन थे। समुद्री हवाएँ हमारी केश-राशि से खेल रही थीं और हम उनके साथ झूम रहे थे। यही खेल खेलता सूर्य अस्ताचलगामी हुआ, बादलों की ओट धरकर। लेकिन, उस सांध्यकाल में जो कुछ हमने देखा, वह कन्याकुमारी के समुद्र-तट से ही देखना संभव था। सचमुच, वह अद्भुत दृश्य था--अनदेखा, अनजाना दृश्य! हम रोमांचित-पुलकित वहाँ से आगे बढ़े होटल की ओर!






'सी-व्यू' होटल यथानाम तथागुण था, बिल्कुल समुद्र के किनारे। हम पाँचवें माले के अपने कमरे में पहुँचे और कमरे की खिड़कियों तथा बाल्कनी से बाहर का दृश्य देखकर प्रायः चौंक पड़े। अथाह जल-राशि हमारे सामने तरंगित थी। लहरें शीघ्रता से आतीं और तट छूकर लौट जातीं। भारत के मानचित्र को ध्यान में रखते हुए मुझे ऐसी प्रतीति हुई कि मैं देश की पाद-भूमि में एक भवन की पाँचवीं मंजिल पर निपट अकेला खड़ा हूँ और साश्चर्य देख रहा हूँ, क्षिप्र गति से आती हर लहर को, जो आती है और मेरे देश का पाँव पखारकर चली जाती है। मैं निर्निमेष देखता ही रह जाता हूँ लहरों की यह चरण-वंदना! और, यह क्रिया अनवरत होती है--अविराम! अनुभूति का ऐसा रोमांच मैंने पहले कभी महसूस नहीं किया था। सोचता ही रह जाता हूँ, यह वारिधि कैसा विलक्षण भक्त है, जो निरंतर भारत-भूमि के पाँव पखार रहा है, क्षण-भर का विश्राम भी इसे स्वीकार नहीं !...
(क्रमशः)
1-10-2017

[चित्र-परिचय  : 1) सूर्यास्त-दर्शन को दौड़ चले हम 2) शिलासीन हुआ मैं 3) दर्शनार्थियों और वाहनों की भीड़ 4) सूर्यदेव को ओट देने आये बादल 5) अलौकिक अभियांत्रिकी से निकलता बादलों का काला धुआँ 6) मैं सपरिवार।