मंगलवार, 24 मई 2016

"मेला नाम 'आदनबादन ओदा' है !"....

यह कथा मेरी स्मृति का हिस्सा कभी नहीं रही। शायद तब की कथा है, जब मैं पूरी तरह होशगर नहीं हुआ था। लेकिन, कथा पिताजी से बार-बार सुनी है। हाँ, इतना मेरी धुँधली-सी स्मृति में अवश्य है कि बहुत छुटपन में, कई वर्षों तक मैं तुतलाकर बोलता था और अगर कोई मुझसे मेरा नाम पूछता, तो मैं झट कहता--"मेला नाम 'आदनबादन ओदा' है।" मेरे ऐसे उच्चारण को सुनने के लिए लोग मुझसे बार-बार मेरा नाम पूछते भी थे।

मेरे तुतलाकर बोलने के परदे के पीछे ही छुपी हुई है यह कथा ! मैं नहीं जानता कि जब मैंने शब्दों का उच्चारण शुरू किया था, तो उसमें मेरा तुतलाना शामिल था या नहीं...! हाँ, पिताजी कहते ज़रूर थे कि जब मैंने 'अम्मा, बाबूजी, पानी, दूध, देखो न' आदि शब्द बोलना शुरू किया था, तब उसमें तुतलाने-हकलाने जैसा कोई प्रभाव नहीं था। अचानक मैंने तुतलाना कैसे शुरू किया, क्या कारण था इसका? इसी कारण की तह में छिपी है वह करुण कथा ! पिताजी से सुनी हुई वही कथा सुनाता हूँ आपको--

तब ढाई-तीन साल का रहा होऊंगा। पालने से उतर आया था और अपने नन्हें पांवों से गिरता-उठता दौड़ने-भागने लगा था। कुछ शब्दों के योग से छोटे-छोटे वाक्य बनाने और प्रश्न भी पूछने लगा था। तब मेरी श्यामवर्णी काया गुलथुल थी, घुँघराले लम्बे केश थे और बड़ी-बड़ी निर्दोष आँखें थीं। चंचल तो बहुत था ही।...

मेरी ननिहाल के खुले और बड़े बरामदे में एक दिन, सुबह के वक़्त, पिताजी ने चटाई बिछाकर दाढ़ी बनाने के लिए आसान जमाया ही था कि मैं कहीं से डगराता हुआ उनके पास आ पहुंचा। कौतूहल से देखने लगा, दाढ़ी बनाने के एक-एक यंत्र-तंत्र को ! सामने बिखरी हर चीज़ की ओर इशारा करके मैं पूछने लगा--'ये क्या है और वो क्या है?' पिताजी धैर्यपूर्वक उत्तर देते रहे--'यह रेज़र है, यह ब्लेड है, यह ब्रश है, और...!' जिज्ञासा समाप्त होते ही मेरे प्रश्न की मुद्रा बदल गयी, मैं उनसे पूछने लगा--'बाबूजी, यह किसका है? वह किसका है ?' पिताजी हर वस्तु के लिए कहते गए--'मेरा है। यह मेरा है और यह भी मेरा ही है।' अतिभाषी तो मैं जन्मना था, मेरे प्रश्नों का अंत नहीं था और न जिज्ञासाओं का। पिताजी को दफ्तर के लिए तैयार होने की जल्दी थी। मेरे प्रश्नों से वह अब ऊबने लगे थे। उनके दाढ़ी बनाने में मैं व्यवधान बना हुआ था। उन्होंने कई बार मुझसे कहा भी--'जाओ, आँगन में जाकर खेलो !' लेकिन मैं कहाँ टलनेवाला था, वहीं मँडराता रहा और धीरे-से पुनः उनके समीप जा बैठा। मेरे फितूरी दिमाग में एक नए सवाल ने करवट ली, मैंने पिताजी से पूछा--'यह भी आपका है, वह भी आपका है और वह भी न...? लेकिन, यह सब मेरा कब होगा बाबूजी ?'

पिताजी झल्ला उठे, खीझकर ऊँची आवाज़ में बोले--"अरे, मैं मर जाऊँगा, तो यह सब तुम्हारा ही हो जाएगा। अब जाओ यहाँ से !" उनकी ऊँची आवाज़ का भय था या डाँट का असर या और कोई बात..., मैं सहम गया और जोर से रोने लगा। गला फाड़कर रोने के लिए मेरा मुँह अभी खुला ही था कि मेरे मुँह के दोनों किनारों से रक्त टपकता देखकर पिताजी घबरा गए। उन्होंने मुझे अपनी गोद बिठाया और बलात मेरा मुख खोलकर देखने लगे। एक समूचा ब्लेड मेरे मुँह में था। पिताजी आतंकित हो उठे। उन्होंने क्षिप्रता और सावधानी से मेरे मुँह से ब्लेड निकाला। ब्लेड के निकलते ही रक्त-स्राव की गति बढ़ गयी। पिताजी ने क्षण-भर का भी विलम्ब नहीं किया। मुझे चटाई पर छोड़ वह उठ खड़े हुए और बगल की क्यारी से 'कुकरौंधा' के ढेर सारे पत्ते तोड़ लाये, उसे अपनी हथेलियों के बीच मसलकर मेरे मुँह में जबरन उन्होंने भर दिया और मुँह को दबाये रखा। मेरे विचलित होने पर, थोड़ी देर बाद, उन्होंने मेरे मुख पर अपनी पकड़ ढीली की और मुँह खोलने को कहा। बालकृष्ण की तरह मैंने भी अपना मुँह खोला, लेकिन वहाँ तीनों लोकों में से एक भी लोक नहीं था, केवल लाल रक्त-मिश्रित पत्तों का हरा रंग मुँह से झाँक रहा था। रक्त-स्राव रुकता देख पिताजी ने चैन की साँस ली, लेकिन मेरा रुदन जारी रहा।

मेरी ननिहाल का प्रांगण विशाल और पेड़-पौधों से भरा हुआ था। उसी आहाते में अमरूद का एक पेड़ था, जिसकी कई शखाएँ बहुत नीची थीं। पिताजी को मालूम था कि इस वृक्ष की अमुक डाली पर मुझे बिठा दिया जाय, तो मैं हँसने लगूँगा। पिताजी मुझे प्रसन्न करने के इरादे से उसी वृक्ष के पास ले गए, उसी डाली पर बिठा दिया और मैं बेसाख़्ता हँस पड़ा। मैं जैसे ही खिलखिलाकर हँसा, मेरा स्वरूप बदल गया--बिलकुल काली माता जैसा ! दोनों किनारों पर जुड़ी हुई मेरी जिह्वा बाहर ठुड्ढी पर लटक आई। पिताजी को तो जैसे काठ मार गया। मेरी कटी और लटकती हुई जिह्वा मेरे मुख में डालकर उन्होंने मुझे गोद में उठाया और उसी दशा में ले भागे डॉक्टर के पास।...

चिकित्सक ने मेरी जिह्वा में बारह टाँके लगाए, दवाइयाँ और सूइयाँ दीं और लम्बी परिचर्या के बाद मैं ठीक हुआ--नयी तोतली ज़बान के साथ! मैं तो कल्पना भी नहीं कर सकता कि माता और पिताजी ने मेरे कष्ट से कितना अधिक कष्ट अपनी अंतरात्मा पर सहा होगा ! मेरी परिचर्या में कितनी पीड़ा उठायी होगी !
बहरहाल, कुछ ही दिन बीते थे कि मैं अपनी खटिया छोड़ बागीचे में आ गया था। शाम का वक़्त था। पिताजी दफ्तर से लौटे। लोहे के विशालकाय फाटक में एक छोटा फाटक भी था, जिसे खोलकर और सिर झुकाकर ही लोग परिसर में प्रवेश करते थे। पिताजी उसी छोटे फाटक से अन्दर दाखिल हुए। उनपर दृष्टि पड़ते ही मैं उनकी ओर सरपट भागा और पास पहुँचकर उनके पांवों से लिपट गया। पिताजी ने प्यार से मुझे गोद में उठा लिया। मैंने छूटते ही तुतलाते हुए उनसे पूछा--"बाबूजी, आप कब मरियेगा ?"
पिताजी ने हँसते हुए पूछा--"तुम्हें मेरे मरने की ऐसी क्या जल्दी पड़ी है ?"
मैंने मासूमियत से कहा--"आप ही ने तो कहा था कि जब आप मर जायेंगे, तब वे सारी चीजें मेरी हो जायेंगी !" मैं तो अपनी बात कहकर निश्चिन्त हो गया, लेकिन शायद पिताजी मेरे इस बालसुलभ प्रश्न की जटिलता में कहीं खोये रह गए ... !

मेरे कई वर्ष तुतलाते हुए बीते। साल-भर में मेरी कटी हुई जिह्वा में प्राण का पुनर्संचार हुआ और धीरे-धीरे शब्दों का उच्चारण सुधरता गया। बाल्यकाल में मेरे तुतलाने का कारण बताते हुए, आगंतुकों के सामने, इस कथा की बार-बार पुनरावृत्ति हुई...लेकिन कालान्तर में यह कथा विस्मृति के गह्वर में जा छिपी। छह वर्ष का होते-न-होते मेरा तुतलाना पूरी तरह समाप्त हो गया। मैं स्पष्ट और धाराप्रवाह सम्भाषण करने लगा।

फिर कई दशक बीत गए। सन १९९५ का दिसंबर महीना--मैं ४३ वर्ष का हो गया था और पिताजी अपने जीवन के ८६ वर्ष पूरे करने की दहलीज़ पर पहुँचकर मृत्यु-शय्या पर थे--शरीर की नितांत अक्षमता की दशा में। मृत्यु के तीन-चार घण्टे पहले, सुबह के दस बजे के आसपास, उन्होंने मुझे अपने पास, बहुत पास आने का इशारा किया। मैं उनके पास पहुँचा। वह एक शब्द भी बोल पाने की स्थिति में नहीं थे। अपना शेष होता प्राण-बल संचित कर उन्होंने अपना दायाँ हाथ छत की ओर उठाया और प्रथमा अँगुली से इंगित करते हुए हाथ को वृत्ताकार घुमाने लगे। क्रमशः उनका हाथ नीचे गिरता हुआ दाएं-बाएँ, सिरहाने-पायताने की ओर भी इशारा कर गया। मेरी समझ में कुछ न आया कि वह क्या कहना चाह रहे हैं। उनकी बेचैनी देखकर अनुमानतः मैंने कहा--"बाबूजी, आप परेशान न हों, मैंने डॉक्टर साब को फ़ोन किया है, वह आते ही होंगे।" मैंने लक्ष्य किया, उनके शिथिल होते हाथो में वर्जना देता कम्पन था। मैं उनके इशारों का और वर्जना का अभिप्राय बिलकुल समझ न सका। थोड़ी देर बाद डॉ. जीतेंद्र सहाय आये और पिताजी की दशा देखकर चिंतित हो उठे। उन्होंने मुझे कुछ हिदायतें दीं और चले गए। दिन के डेढ़-दो के बीच पिताजी भी संसार से विदा हुए।

समय पानी-सा बह निकला और मेरी जिह्वा पर छोड़ गया एक स्पष्ट निशान, जो आज भी यथावत है! पिताजी के निधन के एक-डेढ़ महीने बाद मैं उनके कागज़-पत्र सहेज रहा था, तभी उनकी किताबों की आलमारी से एक पत्रिका मेरे हाथ लगी। सम्भवतः अस्सी के दशक की पत्रिका थी--'बेला'! आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्रीजी के सम्पादन में, मुजफ्फरपुर से निकलनेवाली उस पत्रिका में बाल-मनोविज्ञान विषय पर पिताजी का एक लेख छपा था। मैं उसे पढ़ने लगा। विषय-विस्तार करते हुए पिताजी ने मेरे बचपन की इसी घटना की विस्तृत चर्चा उसमें की थी और अंत में लिखा था कि "मैंने क्रोध और आवेश में, असावधानीवश, कैसी गलत धारणा एक अबोध शिशु के मन में डाल दी थी।..." खैर, लेख में उन्होंने जो कुछ लिखा था, वह तो विषय की माँग थी, लेकिन उसे पढ़कर समाप्त करते-करते मैं अधीर और विचलित हो उठा था। एक आर्त्त पुकार मेरे मुंह से निकली--"बाबूजी ई ई...!" और, उस पकती उम्र में भी मैं छोटे बच्चे की तरह फूट-फूटकर रो पड़ा था ।....

मेरे अनुज यशोवर्धन पास ही खड़े थे, समझ गए कि भावुक कर देनेवाला कोई प्रसंग मेरे सामने आ पड़ा है। वह पास आकर मुझसे कहने लगे--"अब इस तरह विकल होने से क्या होगा?..." मैंने उनसे कुछ नहीं कहा, चुपचाप अपने कमरे में चला गया और द्वार भेड़कर देर तक रोता रहा, विकल-विचलित होता रहा। डेढ़ महीने पहले पिताजी इशारों में जो बात कहना चाह रहे थे और जिसे मैं समझ न सका था, इस आलेख को पढ़कर आज वह बात मेरी समझ में आई थी।...
तो क्या जगत से विदा होने के तीन-चार घंटे पहले पिताजी चालीस वर्ष पूर्व पूछे गए मेरे प्रश्न का उत्तर मुझे दे रहे थे ? अंतकाल की शेष घड़ियों में उनकी भाव-भंगिमा, उनका विचलन, उनका उद्वेग और उनके इशारे क्या इसी उत्तर के निमित्त थे--यह सोच-सोचकर मेरी आत्मा सिहरती रही और मैं रोता ही रहा...देर तक !

मैं आज भी इस प्रसंग की याद कर दुखी हो जाता हूँ और हतप्रभ भी, कि पिताजी विराट में लीन होने के ठीक पहले अपने इस अबोध पुत्र के एक निर्दोष प्रश्न का उत्तर देना कैसे और क्यों नहीं भूले ! और, वह भी तब, जब प्राण-बल शेषप्राय हो चला था !...

[चित्र : मेरा बाल्यावस्था का चित्र, सम्भवतः इसी उम्र की यह कथा भी है। साथ में बड़ी दीदी--सीमा ओझा (अब उपाध्याय)]

शुक्रवार, 13 मई 2016

मैंने छुट्टी उसे नहीं दी थी...

उत्साह-उमंग और जीवन से भरा था वह बांका जवान ! मेरी ही कंपनी में ट्रक का खलासी था--वह गढ़वाली रामसिंह! गेहुआं रंग, लम्बी-छरहरी काया, लम्बी बाहें--घुटने तक झूलती हुई; आँखें छोटी और नासिक थोड़ी चिपटी। चलता तो लगता, दौड़ रहा है। कुछ बोलता, तो उसकी बात समझने में वक़्त लगता। वैसे वह बोलता ही कम था। उसे हमेशा छुट्टी की पड़ी रहती। न जाने वह कौन-सा पहाड़ी प्रदेश था, जहाँ उसके वृद्ध माता-पिता रहते थे। और, वह उन्हीं के पास जाने के लिए मचलता रहता था। वह तभी मेरे ऑफिस के द्वार पर एक आवेदन-पत्र के साथ मँडराता, जब उसे कभी दस दिनों का, कभी पन्द्रह दिनों का अवकाश चाहिए होता ! मैं उसे बेतरह फटकारता, वह सिर झुकाए सुनता रहता, बोलता कुछ भी नहीं। मैं ही उद्विग्न होकर जब छुट्टी देने से मना कर देता और ऑफिस से बाहर निकल जाने का हुक्म सुनाता, तो बहुत धीमी आवाज़ में नतशिर कहता--'सर, पिताजी बहुत बीमार हैं, या माँ को अस्पताल में भर्ती कराना है, या बहन की सगाई है सर ! मुझे जाना ही पड़ेगा !' तात्कालिक रूप से वही कहता, जो आवेदन में उसने लिखा होता ! आवेदन-पत्र पर मेरी स्वीकृति लेकर ही मेरा पिण्ड छोड़ता वह हठी--रामसिंह !

वह मेरी नौकरी का चौथा और अन्तिम पड़ाव था। हिन्दुजा-बंधुओं की अपार सम्पदा का एक उपेक्षित टुकड़ा--अशोका प्लाईवुड और अशोका थियेटर--ज्वालापुर में, हरद्वार के पास ! मैं वहाँ का प्रबंधक नियुक्त हुआ था ! फैक्ट्री-प्रांगण में ही प्रबंधक का निवास था, जिसमें मैं सपरिवार रहता था। बगल में स्टॉफ क्वार्टर्स थे और गेट के पास भी, अधिकांश कार्य-कर्मी उसी में स्थापित थे। रामसिंह गेट पर बने कॉटेज में था। मेरा दफ्तर भी घर से बीस कदम की दूरी पर था। कांजू, बहेड़ा के विशाल कोमल दरख़्त (सॉफ्ट वुड), जंगलों की कटाई से, हमारी फैक्ट्री को प्राप्त होते, जिनसे प्लाईवुड तैयार किया जाता। अशोका थियेटर में, मुंबई में रिलीज़ के साथ, नयी-नयी फ़िल्में लगतीं और अपार भीड़ आ जुटती--इन सबों पर नियंत्रण रखना मेरी जिम्मेदारी थी। वे मेरी ज़िन्दगी के मशक्कत-भरे दिन थे और दुश्चिंताओं से भरे भी।

एक बार रामसिंह लम्बी छुट्टी पर गया, लौटा तो एक पहाड़ी सुंदर बाला साथ ले आया और पूरी फैक्ट्री में खबर फैल गयी कि रामसिंह विवाह कर लौटा है और उसकी बीवी हिमालयीय सौंदर्य का अनुपम उदाहरण है ! एक महीना उसने अपनी विवाहिता पत्नी के साथ बिताया। समय का वही एक टुकड़ा ऐसा था, जो उसके जीवन में मधुमास-सा बीता। एक महीने बाद वह फिर आवेदन-पत्र के साथ मेरे दफ़्तर के चक्कर काटने लगा। कई कोशिशों के बाद जब वह मेरे सामने आया तो मैंने उपेक्षा-भाव से कहा--'अब क्या है?' वह धीमे से बोला--'सर, उनको घर पहुँचाना है !'
मैंने पूछा--'उनको मतलब ?'
--'घरवाली को साब !'
--'लिहाज़ा, तुमको फिर छुट्टी चाहिए, है न ?'
--'हाँ साब, मजबूरी है !'
--'कैसी मजबूरी? अभी एक महीने पहले ही तो तुम लम्बी छुट्टी से लौटे हो ! ऐसा कैसे चलेगा ?'
--'साब, हमारी तरफ का रिवाज है, महीने बाद पग-फेरा होता है ! उनको लेकर हमको जाना ही होगा। छुट्टी दे दो साब! अब लौटूँगा तो छुट्टी नहीं माँगूँगा।'
हारकर मुझे छुट्टी देनी पड़ी और रामसिंह अपनी सुदर्शना पत्नी को घर छोड़ आया। लौटा, तो उसकी चाल में थोड़ी शिथिलता आ गयी थी और एक गढ़वाली प्रेम-गीत वह सदा गुनगुनाता चलता। गढ़वाली भाषा पर मेरा कोई अधिकार तो था नहीं, लेकिन गीत सुनकर लगता था, जैसे वह प्रेम-गीत ही था ! ...

तीन-एक महीने ही बीते होंगे कि सन् १९८१ का बहुत तप्त महीना मई आ गया। मेरे फारेस्ट-मैनेजर श्रीशर्मा मुझसे बार-बार आग्रह कर रहे थे कि मैं उनके साथ चलूँ और जंगल में चल रहे वृक्ष-कटाई के काम का स्वयं निरीक्षण करूँ। २१ मई ८१ को मैंने जंगल-निरीक्षण के दौरे पर जाना तय किया और अलसुबह श्रीशर्मा, चालक जनकराज शर्मा, क्लीनर रामसिंह के साथ ट्रक से चल पड़ा। ऊबड़-खाबड़, सर्पिल और तीखी चढ़ाइयों-ढलानों से होता हुआ मैं उस स्थल पर पहुँचा, जहाँ हमारे ठेकेदार, मज़दूरों से एक विशाल कांजू वृक्ष को कटवा रहे थे। उसका तना इतना मोटा था कि चार व्यक्ति गोल घेरा बनाकर भी उसे पाश में बाँध नहीं सकते थे। उसे काटकर गिराने में वक़्त लगा। फिर उसे ट्रक में चढाने-लादने की क़वायद शुरू हुई। दिन के लगभग ३ बजे लोडेड ट्रक लेकर हम जंगल से लौट चले। ट्रक-चालक जनकराज के बगल में शर्माजी और खिड़की की सीट पर मैं बैठा था, डले पर चार-पाँच मज़दूर रामसिंह के साथ विराजमान थे। आकाश से अँगारे बरस रहे थे। धरती इतनी तप्त हो उठी थी कि पहाड़ी सड़कों पर धूल की एक मोटी परत जमा हो गई थी, जिसे उड़ाते हुए मंथर गति से हमारा ट्रक आगे बढ़ रहा था। तभी एक खड़ी चढ़ाई सामने आई, जिसे लाँघ जाने पर हम जंगल के अंतिम छोर पर पहुँच जाते !...

लेकिन विधि-विधान कुछ और ही था ! खड़ी चढ़ाई के शीर्ष पर पहुँचने के ठीक पहले ट्रक की शक्ति क्षीण हुई, जनकराज ने ब्रेक लगाया तो ब्रेक-पाइप फट गया और इंजन फेल हो गया। यह सब पलक झपकते हो गया। अब ट्रक पीछे की ढलान पर तेजी लुढ़कने लगा। जनकराज ने चिल्लाकर कहा--'साहब, गड्डी गयी।... ओए रामसिंह, गुट्टा लगा...!' दायीं तरफ गहरी खाई थी और बायीं ओर पहाड़ की चट्टानें ! उसने सावधानी से गाड़ी को बायीं ओर मोड़ा और पहाड़ी की चट्टानों से ट्रक का पिछला हिस्सा टकरा जाने दिया। इस जोरदार टक्कर के बाद ट्रक पलट गया, वह एक करवट और लेने को उत्सुक हुआ, लेकिन कांजू के मोटे तने ने उसे रोक दिया, जिसे काटकर हम साथ ले चले थे। जिस विशाल और हरे-भरे वृक्ष की हत्या कर हम आनंद-मग्न लौट रहे थे, उसी ने हमारी प्राण-रक्षा की थी--इसका बोध होते ही मैं उसके प्रति कृतज्ञता से नत हुआ। आज भी यह सोचकर सिहर उठता हूँ कि अगर ट्रक ने एक करवट और ली होती, तो हमारा क्या होता? निश्चय ही हममें से कोई न बचता--वह गहरी खाई हमें लील गयी होती !...

बहरहाल, ट्रक पलटकर जब स्थिर हुआ, तो मैंने देखा--जनकराज स्टेयरिंग व्हील के नीचे दुबके हुए हैं और शर्माजी अपनी सीट के नीचे गिरे पड़े हैं और मैं न जाने किस युक्ति-संयोग से डले से लटकी एक कुण्डी अपने दाएँ हाथ से थामे धनुषाकार झूल रहा हूँ--मेरा दायां पैर 'स्टेयरिंग बेस' पर है और दूसरा अधर में! पीछे से चीखो-पुकार की आवाज़ें आ रही हैं, विंडस्क्रीन का शीशा पूरा चटख गया है, लेकिन यथास्थान लगा हुआ है ! ट्रक से बाहर निकलने की राह मुझे ही बनानी थी। मैंने अपने बांयें हाथ से कई प्रहार शीशे पर किये, लेकिन वह टूटा नहीं। जनकराज नीचे से चिल्लाया--'साहब, ज़ोर से...!' मैंने अपनी मुट्ठी बाँधी और भरपूर शक्ति से शीशे पर मुक्का मारा। शीशे तो तोड़ते हुए मेरा हाथ शीशे के पार हो गया, फिर अधर में झूलते पाँव से कई प्रहार कर मैंने शीशा ध्वस्त कर दिया और बाहर निकल आया तथा बोनट से होता हुआ भूमि पर आ खड़ा हुआ। मेरे बाद, जनकराज, फिर शर्माजी भी बाहर आये। हम सभी पीछे की ओर भागे। सभी मजदूर हताहत और धूलधूसरित भूमि पर पड़े थे...! लेकिन रामसिंह कहीं दीखता नहीं था..! जनकराज उसे आवाज़ें लगाता नीचे की ढलान पर भागा।..

चढ़ाई के शीर्ष पर पहुँचते ही किसी दूसरे ठेकेदार का कैंप था, वहाँ से बहुत-से लोग हमारी सहायता को दौड़े आये और हमसे आग्रह करने लगे कि 'ऊपर चलकर बैठें, पानी पियें, आपके सब लोग मिल जायेंगे, हम उन्हें ढूँढ लायेंगे, चिंता न करें !' शर्माजी उम्रदराज़ व्यक्ति थे और उन्हें भी गहरी चोट लगी थी, उनके पाँव काँप रहे थे। मैं उनके साथ ठेकेदार साहब के कैंप में आ गया। वहीं मैंने देखा कि मेरे बाएँ हाथ की कलाई से थोड़ा ऊपर एक रक्त-वाहिनी नलिका के कट जाने से निरन्तर रक्तस्राव हो रहा है। मैंने फिक्र नहीं की, मुझसे हज़ार गुना बड़ी पीड़ा भोग रहे थे मेरे सहकर्मी! मैंने जेब से रूमाल निकाला और कटी हुई जगह पर उसे कसकर बाँध लिया। पंद्रह मिनट में वे चार-पाँच मजदूर उठा-पकड़कर ले आये गए। उन सबों की दुरवस्था थी, वे सभी कराह रहे थे और भीषण पीड़ा से चिल्ला भी रहे थे। आधे घंटे की प्रतीक्षा के बाद मैंने देखा, रामसिंह को जनकराज दो अन्य लोगों की सहायता से टाँगकर ला रहा है। उसे छाती में सांघातिक चोट लगी थी।

ठेकेदार साहब ने कृपापूर्वक अपनी दो कारों से हम सबों को तत्काल रामकृष्ण मिशन सेवाश्रम, कनखल (हरद्वार) भेज दिया। शाम सात बजे हम वहाँ पहुंचे, घायलों का उपचार शुरू हुआ, लेकिन रामसिंह की दशा बिगड़ती जा रही थी। वह मुझसे बार-बार कह रहा था--'मुझे बचा लो साब!' सेवाश्रम के चिकित्सकों का कहना था कि 'तत्काल शल्य-चिकित्सा करनी होगी, रिब की दो हड्डियाँ टूटकर दूसरे ऑर्गन को डैमेज कर गयी हैं। लेकिन यहाँ ऑपरेशन संभव नहीं है, पेशेंट को बी.एच.ई.एल. हॉस्पिटल ले जाएँ।' हम रामसिंह को लेकर वहाँ पहुँचे, लेकिन वहाँ के डॉक्टर्स ने हाथ खड़े कर दिए, कहा--'देखिये, हम बाहर का केस नहीं लेते, वैसे भी यह पुलिस का केस है, रिपोर्ट करवाई है ? आप तो इन्हें तुरंत ऐम्स, दिल्ली ले जाएँ !' मैं गिड़गिड़ाता, मिन्नतें करता रह गया, लेकिन अस्पताल-प्रबंधन का दिल नहीं पसीजा, वे अपने नियमों की दुहाई देते रहे। हम निराश लौट आये। एक भरी-पूरी ज़िन्दगी मेरे बगल से गुज़री जा रही थी और मैं हाथ पकड़कर उसे रोक लेने में नितांत असमर्थ था।

कम्पनी की एम्बेसेडर कार से रामसिंह को दिल्ली भेजने की पूरी व्यवस्था करके रात बारह बजे मैं घर में दाखिल हुआ। पूरा परिवार व्यग्र-चिंतित था। मेरी श्रीमतीजी ने दोपहर में एक दुःस्वप्न देखा था, ठीक उसी वक़्त, जब यह दुर्घटना घटी थी। उनकी विह्वलता संयम की सीमाएँ तोड़ रही थी। खैर, मुझे प्रकृतिस्थ देखकर सबों को तसल्ली हुई। रात डेढ़-दो बजे बमुश्किल मुझे नींद आयी। दो घंटे बाद ही बाहर का शोर-गुल सुनकर मेरी नींद टूट गयी। घबराकर घर से बाहर निकला।

दफ़्तर के बरामदे में रामसिंह चिर-निद्रा में सोया पड़ा था। दिल्ली ले जाते हुए मुज़फ्फरनगर के पहले ही उसकी साँसों की डोर टूट गयी थी। घर से रामसिंह का परिवार आ पहुंचा था और पूरे परिसर में करुण क्रन्दन गूँज उठा था। रामसिंह की सुन्दर पत्नी के बाल बिखरे हुए थे, जिसे अपने ही हाथों से वह नोच रही थी, ज़मीन पर अपनी हथेलियाँ पटक रही थी और भीषण चीत्कार करते हुए विलाप कर रही थी। उसके आर्त्तनाद से दिशाएं प्रकम्पित हो रही थीं। उदयाचल में सूर्य प्रकट होने से डर रहे थे। यह सब देखकर मैं जड़ हुआ जा रहा था। मैं असहाय-सा रामसिंह के पार्थिव शरीर के पास पहुँचा। मेरे मन में भीषण उथल-पुथल मची हुई थी। मैं सोच रहा था, रामसिंह ने सच ही कहा था कि 'वह अब कभी छुट्टी नहीं माँगेगा।' और, एक ही प्रश्न मस्तिष्क में चक्रवात-सा घूम रहा था--"कोई आवेदन तो उसने दिया नहीं था, अवकाश मुझसे माँगा नहीं था और छुट्टी तो मैंने उसे दी ही नहीं थी, वह आखिर चला कैसे गया ?"

उसके बाद वह नौकरी मैं लम्बी कर न सका, त्याग-पत्र देकर १९८२ के अंत में पटना लौट आया ! नौकरी को मेरा वह अंतिम नमस्कार था।
लेकिन, रामसिंह जैसे लोग कहीं जाते नहीं हैं, मन और आत्मा से चिपके रह जाते हैं। रामसिंह भी चिपका रह गया। जीवन के वे २४ घण्टे अविस्मरणीय और त्रासद घंटे थे। उन २४ घंटों को बीते १२ वर्ष हो गए। एक दिन अचानक बाएँ हाथ में वहीं खुजली शुरू हुई, जहाँ ट्रक का शीशा तोड़ते हुए मुझे घाव लगा था। एक-डेढ़ महीने में वहाँ एक गाँठ-सी उभर आयी और फिर पाताल-फोड़ चुंएं (पहाड़ी प्रदेशों में पत्थर के ऐसे बड़े-बड़े कटोरे पाये जाते हैं, जिसमें अनजाने श्रोत से आनेवाला मीठा जल हमेशा भरा रहता है, लोग उसे 'चुआं' कहते हैं) की तरह वहाँ से मृत-रक्त प्रस्रवित होने लगा। मैंने चिंता नहीं की, रुई से पोंछकर कोई क्रीम लगा लेता और मस्त रहता।

लेकिन यह क्या, तीन महीने बाद वहाँ से अबरख के समान चमकता हुआ एक नुकीला पदार्थ झाँकने लगा। चिकित्सक को दिखाया तो उन्होंने उसी वक़्त छोटी-सी शल्य-क्रिया करके शीशे का एक टुकड़ा निकालकर मेरी हथेलियों पर रख दिया। मैं उसे देर तक निहारता रहा। और, चकित होकर सोचता रहा--'तो क्या रामसिंह यहाँ मेरी रगों में छिपे रहे पिछले बारह वर्षों से..?'

आज इतने वर्षों बाद भी कभी दो उँगलियों की संधि में, कभी हथेलियों में, कभी नसों में और कभी केहुनी के पास मीठी पीड़ा की अनुभूति होती है मुझे, तो मैं जान जाता हूँ कि शीशे के किसी छोटे-से कण के रूप में रामसिंह तरंगित हैं मेरी धमनियों में, रक्त-प्रवाह के साथ, आज भी !... प्रभु से प्रार्थना करता हूँ कि वे यह मीठी पीड़ा मुझसे कभी न छीनें, क्योंकि यह पीड़ा ही मुझे उनकी और रामसिंह की याद दिलाती रहती है !...

शनिवार, 7 मई 2016

'तानसेन गवइया अठन्नी-चोर'...

लेखक और कवि-मित्रों के बीच, प्रसंगवश, पिताजी अक्सर कहा करते थे--'हमारे देश में लिखनेवालों की कमी नहीं है, बहुत लोग लिखते हैं, उनमें अनेक बहुत अच्छा भी लिखते हैं, लेकिन अधिसंख्य यह नहीं जानते कि क्या नहीं लिखना चाहिए...!' ... सोचता हूँ, मैं जो लिखना चाहता हूँ, उसे लिखना चाहिए या नहीं? इसी उधेड़बुन में लिखूँगा--यह कथा।

सन् १९६२ में जब मेरा नामांकन पटना के मिलर हाई स्कूल की पांचवीं कक्षा में हुआ, तब भारत-चीन का युद्ध चल रहा था। श्रीकृष्ण नगर में, मेरे घर के आसपास 'डब्ल्यू' आकार में कई गहरे गड्ढे खोदे गए थे, जिन्हें हम 'ट्रेंच' कहते थे। किसी आपदा या हवाई हमले से बचने के लिए उनका निर्माण हुआ था ! हर मोहल्ले में मुनादी हुई थी कि खासो-आम किसी संकट की स्थिति में 'ट्रेंच' की शरण में चला जाए। सायरन बजते थे, रात के वक़्त 'ब्लैक-आउट' हो जाता था, मतलब पढ़ने-लिखने की विवशता से मुक्ति मिल जाती थी ! दैवयोग से ऐसा कोई संकट तो कभी उपस्थित नहीं हुआ, लेकिन उन दिनों हम बच्चों की शरारती टोली ने 'ट्रेंच' में खूब ऊधम किया, धमाचौकड़ी मचाई। उन दिनों देशवासियों के ह्रदय में देश-भक्ति की भावना तरंगित हो उठी थी। देश-भक्ति के गीत खूब लिखे और गाये जा रहे थे। मोहल्ले-मोहल्ले, गाँव-गाँव, शहर-शहर ऐसी ही ऊर्जा व्याप्त थी।...

बहरहाल, पांचवीं कक्षा में दाखिला लेने के बाद, जिस दिन पहली बार स्कूल गया, उसी दिन प्रार्थना-सभा में मंच पर खड़े प्राचार्य महोदय और शिक्षक-समूह के मुझे दर्शन हुए थे। सुबह की विद्यालयीय प्रार्थना के बाद संगीत कुमार नामक एक छात्र से प्राचार्य महोदय ने एक भक्ति-गीत सुनाने को कहा। संगीत कुमार तो मंच पर उपस्थित हुए ही, उनके साथ छात्रों की एक टोली भी मंच पर आयी--तबला-हारमोनियम के साथ। संगीत ने सुमधुर भक्ति-गीत सुनाया ! उनका सुर सधा हुआ था, कर्णप्रिय था और ताल-वाद्यों की संगत में कसा हुआ था। संगीत की प्रस्तुति समाप्त हुई तो प्राचार्यजी ने उद्घोषणा की--"विद्यालय का नया सत्र शुरू हुआ है, कई नए बच्चों ने विद्यालय में प्रवेश पाया है। कोई अन्य छात्र अगर कुछ सुनाने चाहे, तो उसका स्वागत है!" इतना कहकर प्राचार्यजी मौन हो गए और पंक्तिबद्ध खड़े छात्रों की भीड़ में सन्नाटा छाया रहा। अचानक, बहुत पीछे पंक्ति में खड़े एक छात्र ने अपना हाथ ऊपर उठाया। वह हाथ मेरा था। कई जोड़ा आँखें मेरी ओर पलटीं और मुझे घूरने लगीं। प्राचार्यजी ने इशारे से मुझे मंच पर बुलाया और पूछा--"क्या नाम है तुम्हारा ? हमें क्या सुनाओगे ?" मैंने अपना नाम बताकर कहा--"मैं देश-भक्ति का एक गीत सुनाऊंगा सर !" प्राचार्य महोदय की स्वीकृति मिलते ही मैंने एक कान पर अपना हाथ रखा और उच्च स्वर में गोपालसिंह 'नेपाली'जी का गीत सुनाने लगा--

'शंकरपुरी में चीन ने जब सेना को उतारा,
चौव्वालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा.. !'

मेरा गायन जैसे ही ख़त्म हुआ, समुपस्थित छात्र-समूह ने ज़ोरदार तालियाँ बजायीं, जबकि संगीत के शास्त्रीय विधान से मेरा कोई वास्ता नहीं था, लेकिन मैं गाता सुर-लय में और उच्च स्वर में पूरी तन्मयता से था। प्राचार्यजी भी प्रभावित हुए, वह तत्काल माइक पर आये और उन्होंने घोषणा की--"लीजिये, हमारे विद्यालय में संगीत कुमार के रूप में 'बैजू बावरा' तो थे ही, अब आनंदवर्धन के रूप में 'तानसेनजी' भी उपस्थित हो गए हैं.... आज मैं इन्हें 'तानसेन' की उपाधि देता हूँ !" उस दिन के बाद मैं विद्यालय में 'तानसेन गवइया' के नाम से प्रसिद्ध हो गया। दरअसल, प्राचार्य महोदय को मुझे 'कानसेन' की उपाधि देनी चाहिए थी, क्योंकि बाल्यकाल में गाते हुए मैं अपना एक हाथ हमेशा कान पर रख लेता था, जाने क्यों? लेकिन, उन्होंने कृपापूर्वक मुझे 'तानसेन' बना दिया था। अब आये दिन मुझे मंच पर बुला लिया जाता और कोई गीत या कविता सुनाने का आदेश दिया जाता। मैं पिताजी की गठरी से गीत-कविताएं लेकर उन्हें कण्ठाग्र करता और विद्यालय में सुनाकर वाहवाही लूटता। विद्यालय में मेरी यश-प्रतिष्ठा 'तानसेन गवइये' के रूप में दिनों-दिन बढ़ती जा रही थी और मैं अगराया फिरता था।

अभी दो महीने ही बीते थे कि आफत की मारी वसंतपंचमी आ गयी। सरस्वती-पूजन का समारोह विद्यालय में भी धूमधाम से मनाया जाता था और इसके लिए प्रत्येक छात्र से चंदा उगाहा जाता था। मेरे वर्ग-शिक्षक ने सभी बच्चों को आदेश दिया कि कल आठ आने अपने-अपने घर से लेते आएं। दूसरे दिन विद्यालय जाते हुए मैंने पिताजी से आठ आने चंदे के माँगे तो पिताजी ने एक रुपये का नोट देते हुए कहा--"अभी खुले पैसे नहीं हैं मेरे पास। चंदे के आठ आने देकर शाम में मुझे अठन्नी लौटा देना।" मैंने स्वीकृति में सिर हिलाया और विद्यालय चला गया।

सुबह-सुबह जब वर्ग-शिक्षक कक्षा में आये तो क्रम-संख्यानुसार एक-एक छात्र को पुकारकर चंदे की अठन्नी एकत्रित की जाने लगी और वर्ग-प्रभारी छात्र (मॉनिटर) प्राप्त राशि की सूची नामतः बनाने लगा। मेरी पुकार बहुत बाद में हुई। मैंने वर्ग-शिक्षक के हाथ में एक रुपये का नोट दे दिया और अठन्नी की प्रतीक्षा करने लगा। लेकिन, उनके पास भी खुले पैसे नहीं बचे थे। शिक्षक महोदय ने मुझसे नहीं, मॉनिटर से कहा-- "तानसेनजी के नाम एक रुपये जमा लिख लो, कल इन्हें आठ आने लौटा देना।" फिर मेरी तरफ मुखातिब होकर बोले--"क्यों, ठीक है न तानसेनजी?" मैंने स्वीकृति में सिर हिलाया और अपनी बेंच पर जा बैठा। पहले पीरियड के बाद वर्ग-शिक्षक तो चले गए, लेकिन मॉनिटर साहब हिसाब-किताब करते रहे। विद्यालय की छुट्टी होने के ठीक पहले उन्होंने मेरी अठन्नी मुझे लौटा दी। शाम में जब पिताजी घर आये तो वह अठन्नी मैंने उनके हवाले की और दायित्व-मुक्त हुआ।

जब दूसरे दिन विद्यालय गया तो पाया कि मॉनिटरजी कक्षा में अनुपस्थित हैं। कई छात्रों ने अब तक चन्दा जमा नहीं किया था, लिहाज़ा, उस दिन भी चंदे की राशि वसूलने का काम हो रहा था। और, यह काम स्वयं वर्ग-शिक्षकजी कर रहे थे। करीब आधे घंटे बाद उन्होंने मुझे बुलाया और आठ आने का एक सिक्का मेरी ओर बढ़ाते हुए बोले--'लीजिए, कलवाली अपनी अठन्नी.. तानसेनजी ! अब हिसाब साफ़ न ?'
मैंने न 'हाँ' कहा, न 'ना'। चुपचाप सिक्का लेकर लौट चला अपनी सीट पर! लौटते हुए मेरे अधरों पर एक रहस्यमयी मुस्कान थी और विद्यालय के बाहर खड़े खोमचेवाले मुझे अपनी कक्षा में ही आवाज़ें लगाते दीखने लगे थे। जैसे ही मध्यावकाश हुआ, मैं खोमचों के पास पहुँचा और अपने लोभ-लाभ की खट्टी-मीठी चीज़ें खरीद लाया। लेकिन, उस ज़माने में आठ आने तुरंत खर्च कर देना इतना आसान भी नहीं था। तीन आने ही खर्च हुए, पाँच आने मेरी जेब में बचे रह गए। विद्यालय से लौटकर जब शाम को खेलने गया तो बनारसी भूँजेवाले की दूकान से एक आने के आठ गुड़वाले चूड़े के लड्डू खरीदे और दो पैसे के शानदार गुलाबी 'बुढ़िया के बाल'! मज़े का दिन गुज़ारा और दूसरा-तीसरा दिन भी--मीठी गोलियां, पाचक, टॉफी, लेमनचूस और क्रीमवाले बिस्कुटों की मिठास के साथ ! अहा !

मॉनिटरजी की अनुपस्थिति के तीन दिन बड़ी मौज-मस्ती के बीते। शायद उनकी तबीयत खराब हो गयी थी, इसलिए चौथे दिन मॉनिटरजी स्कूल आये थे और वर्ग-शिक्षक के साथ मिल-बैठकर चंदे का हिसाब कर रहे थे। पैसों के हिसाब की दो पर्चियां बन गयी थीं--एक, पुरानी मॉनिटर के पास थी, दूसरी, वर्ग-शिक्षकजी के पास ! बहुत माथापच्ची के बाद सुनिश्चित हुआ कि हिसाब में आठ आने घट रहे हैं! यह बात जब मुझ तक पहुंची, मेरे तो होश फ़ाख़्ता हो गए, लेकिन मैंने अपने चहरे पर हवाइयाँ नहीं उड़ने दीं। तब तक स्कूल का समय समाप्त हो गया और लौट के बुद्धू घर को आये।....

तीन दिनों में जेब की अठन्नी तो खर्च हो ही गयी थी और अब विद्यालय की लापता अठन्नी की फ़िक्र मुझे परेशान करने लगी थी। दो दिनों में हिसाब की दोनों पर्चियों के मिलान से तथा एक-एक छात्र के साथ हुए लेन-देन की बारीक़ छानबीन के बाद, बात मुझी पर आकर ठहर गयी। वर्ग-शिक्षक और मॉनिटर--दोनों एक साथ तब चौंक पड़े, जब स्पष्ट हो गया कि मैंने एक रुपये देकर दोनों से आठ-आठ आने वसूल लिए हैं ! भरी कक्षा में जब मुझसे पूछा गया तो मैंने बड़े निर्दोष भाव से और बहुत मासूमियत से कहा--"सर, मैं तो बिलकुल भूल ही गया था कि मॉनिटर ने मुझे आठ आने उसी दिन लौटा दिए थे। असल में, इसने मुझे बिलकुल छुट्टी के वक़्त दिए थे न पैसे...! मैं भूल गया सर, उसी पैंट में पड़े होंगे, कल लाकर दे दूँगा।"
लेकिन वर्ग-शिक्षकजी अनुभवी व्यक्ति थे, कई पीढ़ियों का ज्ञानवर्धन कर चुके थे, माजरा समझ गए और कक्षा के समस्त छात्रों को ललकारते हुए बोले--"देखो बच्चों, तानसेनजी तो 'अठन्नीचोर' निकले...! आज से इनका पूरा नाम क्या हुआ...?"
तमाम सहपाठियों ने समवेत स्वर में चिल्लाकर कहा-'तानसेन गवइया अठन्नी-चोर!'...

उनकी इस बात से मैं बहुत आहत हुआ। दिन बीतते रहे और अचानक मेरी कक्षा के सहपाठी ही नहीं, सारे स्कूल के छात्र मुझे चिढ़ाने लगे--'तानसेन गवइया अठन्नीचोर' ! यह सम्बोधन बड़ा अपमानजनक था। सबसे अधिक मॉनिटर मुझे चिढ़ाता और बार-बार अठन्नी की माँग करता ! एक-दो बार मुझसे उसकी तू-तू मैं-मैं हुई थी और हथरस भी! लेकिन, किसी भी प्रकार से आठ आने की व्यवस्था करके मुझे अठन्नी तो लौटानी ही थी उसे ! पिताजी से माँगते हुए संकोच होता था--क्या कहूँगा उनसे? और माँ? वह तो देनेवाली ही नहीं थीं। हाँ, बस एक तरीका था--सुबह-सुबह हम दोनों भाइयों को नीरा पीने के लिए, माँ जो एक आना रोज़ दिया करती थीं, उसे खर्च न किया जाए, जोड़ा जाए और आठ दिनों बाद जब आठ आने हो जाएँ तो उन्हें देकर इस कलंक से मुक्ति पा ली जाए ! बिना सच्चाई बताये मैंने अनुज को इसके लिए राजी करना चाहा, लेकिन वह असत्य की राह पर मेरे साथ चलने को तैयार न हुए। अंततः मैंने अपने हिस्से के दो पैसे जमा करने शुरू किये। इस तरह सोलह दिनों में अठन्नी जमा होनेवाली थी। क्या इतना धैर्य कक्षा-प्रभारी रख सकेगा? कहीं वह फिर से मेरी शिकायत वर्ग-शिक्षकजी से न कर दे--बड़ी उलझन में पड़ा हुआ था मैं!

'अपनी हसरतों की करता था निगहबानी,
उनकी तो महज़ थी अठन्नी की परेशानी!'

अब यह परेशानी मुझे भी घेरने लगी। मैं बुझा-बुझा-सा रहने लगा। विद्यालय में मेरा मन न लगता। कहीं-न-कहीं से सहपाठियों की फुसफुसाहट में एक शब्द कानों में पड़ ही जाता--'अठन्नीचोर'! और, मैं विकल हो उठता। पिताजी की अनुभवी आँखों ने मेरी मनोदशा देखी और मुझे अपने पास बुला-बिठाकर पूछा--'क्या परेशानी है तुम्हें ? दुखी क्यों रहते हो? मुझे बताओ। शायद मैं तुम्हारी कुछ मदद कर सकूँ।'
मैंने फिर भी उनसे सत्य छुपाया और कहा--'कुछ नहीं, मुझे आठ आने मॉनिटर को देने हैं । वह बार-बार मुझसे मांगता और झगड़ता है ! सब बच्चे मुझे चिढ़ाते हैं। मैं अब इस विद्यालय में नहीं पढ़ूँगा, बाबूजी !'
पिताजी ने आश्चर्य से कहा--'तुमने आठ आने विद्यालय में देकर ही तो अठन्नी मुझे लौटायी थी न? वह दुबारा क्यों मांग रहा है? और इस विद्यालय में नहीं पढ़ने की बात भला क्या है?'
मैंने घबराहट में कहा--'वह अठन्नी मुझसे कहीं ग़ुम हो गयी थी...!'
पोशीदा बात की गाँठ अब खुलनेवाली थी ! पिताजी ने थोड़ी रुक्षता से कहा--'लेकिन उस दिन तो तुमने कहा था कि तुम स्कूल में पैसे दे आये हो। तुम अब भी सच नहीं बोल रहे! मुझे बताओ, सच्ची बात क्या है ?'
मेरे पास अब बच निकलने की राह नहीं थी। मैं सच्ची-सच्ची सारी बात उन्हें बताते हुए रो पड़ा।
पिताजी ने शांति से पूरी बात सुनी और कहा--'सच की राह चलना, बहुत सुरक्षित राह पर चलना है। असत्य कहीं भी, किसी भी गड्ढे में ले जा पटकता है। और फिर, मनुष्य सिर धुनता रह जाता है ! पश्चाताप उसकी आत्मा को मथता रहता है। मुझे आश्चर्य है, तुमने असत्य की राह क्यों चुनी? मुझे तुमसे ऐसी अपेक्षा नहीं थी।'
उन्होंने उठकर अपनी जेब से पैसे निकाले और आठ आने मेरी ओर बढ़ाते हुए बोले--"लो, कल इसे मॉनिटर को दे दो, लेकिन देने के पहले अपनी गलती के लिए उससे, वर्ग-शिक्षक से और सारे सहपाठियों से क्षमा माँग लो ! देखना, फिर तुम्हें कोई नहीं चिढ़ाएगा।"

पिताजी की बात सुनकर मैं फिर संकट में पड़ा। क्या अब क्षमा माँगने की शर्मिंदगी भी उठानी होगी मुझे ? मैंने हिचकिचाते हुए कहा--"बाबूजी, इसकी क्या जरूरत है? ऐसा करके तो सबके सामने मुझे शर्मिंदा ही होना पड़ेगा न ?'
पिताजी ने गम्भीरता से कहा--"जो कुछ तुमने किया, वह गलत था, उसे करते हुए तो तुम्हें शर्म नहीं आयी। अब उचित करने को कहता हूँ तो उसमें कैसी शर्म? गलत काम करते हुए शर्म आनी चाहिए, उचित आचरण करते हुए नहीं। मुझे विश्वास है, यदि तुम ठीक वैसा ही आचरण करोगे, जैसा मैंने कहा है तो तुम्हारे अपराध की मलिनता धुल जायेगी और समय के साथ तुम अपनी खोयी हुई प्रतिष्ठा विद्यालय में पुनः प्राप्त कर सकोगे।"

अपने विचलित मन पर बहुत वज़न रखकर मैंने वैसा ही किया, जैसा पिताजी ने आदेश दिया था। वर्ग-शिक्षक के सम्मुख अपना अपराध स्वीकार करते हुए मैं रुआँसा हो गया था, जिसे देखकर वह भी विचलित हुए थे और उन्होंने ऊँची आवाज़ में पूरी कक्षा को आदेश दिया था--"आज से कोई इसे नहीं चिढ़ाएगा।" और सच मानिए, समय के साथ विद्यालय के लोग 'अठन्नीचोर' को बिलकुल भूल गए और उन्हें याद रह गए सिर्फ गायक और कविता-पाठी 'तानसेन' !...
लिखने को अपनी १० वर्ष की उम्र का यह वाक़या मैं लिख तो गया, लेकिन नहीं जानता कि यह लिखने लायक़ बात थी या नहीं। आज बाबूजी होते तो मैं सीधे उनके पास जाता इस लेख के साथ और पूछता उनसे--"बाबूजी, यह आलेख मुझे लिखनेवालों की उस श्रेणी में तो नहीं ले जा रहा, जो नहीं जानते कि क्या नहीं लिखना है?"

रविवार, 1 मई 2016

पत्रहीन आम्र-वृक्ष का रुदन...

गाँव के किशोरों-युवाओं में एक खेल आज भी बहुत प्रिय है--'डोलापाती' ! ५०-५५ वर्ष पहले यह खेल शहरों में भी खूब खेला जाता था, क्योंकि तब शहरों में भी बगीचे और वृक्ष हुआ करते थे। आज के प्रायः तमाम शहर वृक्ष-वहीन हो गए हैं। वृक्षों की जगह नन्हे पौधों ने ले ली है और वे गमलों में आ बसे हैं! मुश्किल ये है कि 'डोलापाती' का खेल वृक्षों पर ही खेला जा सकता है, पौधों पर नहीं।

मैं जिस ज़माने की बात कह रहा हूँ, उस ज़माने में, यानी मेरे बचपन में, शहरों में भी उपवन, उद्यान, बगीचे और वृक्ष हुआ करते थे। मैं अपने तमाम मित्रों के साथ, शाम का अन्धकार व्याप्त होने तक, उन्हीं वृक्षों पर मंडराया करता था और खेलता रहता था--'डोलापाती'! तब मैं ग्यारह वर्ष का दुर्बुद्ध बालक था। पटना के श्रीकृष्ण नगर मोहल्ले में मेरे मित्रों की टोली बहुत बड़ी थी--पूरी वानर-सेना थी वह, जिसमें स्वनामधन्य बेनीपुरीजी के पौत्र मनन-रतन-छोटन थे, तो चतुर्भुजजी के सुपुत्र अशोक प्रियदर्शी थे, राधाकृष्ण प्रसादजी के सुपुत्र अरुण-अजय थे, रामेश्वर सिंह काश्यपजी के सुपुत्र विपिनबिहारी सिंह थे, उपाध्यायजी के सुपुत्र भेंगा (अब तो उनका पुकार का नाम ही स्मरण में रह गया है और वह दुनिया से विमुख भी हो गए हैं!) थे और बिलाशक मैं तो था ही, अपने अनुज यशोवर्धन के साथ। इनके अलावा अन्यान्य मित्र भी थे।

डोलापाती नामक खेल उत्साह, उमंग, फुर्ती, साहस और क्षिप्रता की परीक्षा का पर्याय था। बाहु-बल की स्पर्धा के इस खेल में प्रतिस्पर्धी की चतुरता और क्षिप्रता का सम्यक परीक्षण होता था। चोर की पकड़ से बचते हुए वृक्ष की शाखाएँ पकड़कर झूलना और उसे अपनी ओर आकर्षित करके दूसरी शाखा पर चला जाना, ऊंचाई से या मद्धम शाखाओं से कूद पड़ना, डालों पर झूलकर छूने को व्याकुल चोर को चकमा देना--ये सारे करतब इस खेल के कौशल तो थे ही, अत्यन्त श्रमसाध्य भी थे। इस खेल में शरीर की खासी वर्जिश हो जाती थी।

मैं विपिन-अशोक के साथ शाम की शुरुआत के बहुत पहले ही आम्र-वाटिका में पहुँच जाता और वृक्षों की डाली-डाली पर इठलाता। शाम होते-न-होते सारा मित्र-मंडल आ जुटता और फिर जमता हमारा प्रिय खेल--डोलापाती! मैं मानता हूँ और जानता भी हूँ कि इस खेल का सारा कौशल मेरे अधीन था! किसी भी पेड़ की ऊँची-से-ऊँची या पतली-से-पतली डाली पर मैं बेधड़क जा पहुँचता, वहाँ से कूद पड़ने में संकोच न करता ! किसी एक शाखा में अपने दोनों घुटने मोड़कर फँसा लेता और उलटा लटककर सिर के बल आंदोलित होता रहता तथा चोर बने अपने मित्र को आकर्षित करता, ललचाता। मेरा ये कौशल मेरे सभी मित्र जानते थे। उसी आम के बगीचे में हमारा एक बहुत प्रिय पेड़ था। उसकी शाखाएं बहुत नीचे भी थीं और बहुत उन्नत भी--हरे-हरे पत्तों से भरी हुई--छतनार-सी! डोलापाती का खेल ज्यादातर हम उसी वृक्ष पर चढ़कर खेलते थे !

लेकिन, एक दिन, एक घटना घट गई। ढलती दोपहर का वक़्त था--प्रायः ढाई-तीन का। मैं अकेला ही अपने प्रिय आम्र-वृक्ष पर पहुँच गया था और अन्य मित्रों के आगमन की प्रतीक्षा कर रहा था। मैं मोद में मग्न, गीत गाता हुआ, एक-से-दूसरी शाखा पर भ्रमणशील था--कभी किसी शाखा को हाथों से पकड़कर झूलता, कभी पैरों के बल उल्टा लटककर हवा में 'स्विंग' करता और गायक मुकेशजी का गीत गुनगुनाता--'आ लौट के आ जा मेरे मीत...!' तभी असावधानी में अप्रिय घटित हुआ--डाली में फँसा मेरा पाँव पकड़ से छूट गया और मैं सिर के बल ज़मीन पर आ गिरा। अत्यन्त कुशल चालक ही तो निरंकुश हो जाता है न, कभी-कभी। उस दिन मेरे साथ भी यही हुआ था !

क्षण-भर को मेरी चेतना जाती रही, दिन में तारे दिखे और मस्तिष्क के उद्यान में फुलझड़ियाँ छूटीं ! मैं सिर पकड़कर वहीं भूमि पर बैठा रहा दस-पंद्रह मिनट तक। थोड़ी देर बाद जब चैतन्य हुआ तो क्रोध में भरकर मैंने आग्नेय नेत्रों से आम्र-वृक्ष को देखा और तेज कदमों से घर की ओर चल पड़ा। घर पहुंचकर मैंने दो लोटा शीतल जल पिया और तत्काल लौटा। क्रोध में मेरी आँखों से अँगारे निकल रहे थे और मन में एक ही प्रश्न कौंध रहा था--'मेरे प्रिय वृक्ष ने, पके हुए फल की तरह, मुझे टपका कैसे दिया? मैं प्रतिशोध लूँगा। छोडूंगा नहीं उसे!'

मैं पुनः उसी वृक्ष पर चढ़ गया और सर्वोच्च टहनी के पत्र-दल को तोड़कर मैंने उसे भू-लुंठित कर दिया। एक-डेढ़ घंटे तक मैं लगातार यही कृत्य करता रहा--वृक्ष की एक-एक डाल को पत्र-विहीन करके ही मैं नीचे उतरा। तब मेरा क्रोध कुछ शांत हुआ। वृक्ष के नीचे का भूमि-खण्ड हरे पत्तों से पट गया था और आकाश में अपनी नग्न टहनियाँ गड़ाए वृक्ष खड़ा रह गया था--पराजित-सा। विजय के गर्व से भरकर मैंने मुंडित-मस्तक वृक्ष को देखा और मन-ही-मन कहा--'तूने मुझे पटका था न, मैंने तेरे सारे पत्र भूमि पर पटक दिए ! 'अब बोल, बच्चू?'

विजयी समर-योद्धा की तरह मैं घर लौटा। शाम ८ बजे खोखन (मेरे अनुज मित्र) के पिताजी राजेंद्र बाबू मेरे घर आये और मेरी शिकायत पिताजी से कर गए कि मैंने आम्र-वृक्ष को नाहक रुण्ड-मुण्ड कर दिया है ! वह जब कभी घर आते, मेरी एक-न-एक शिकायत लेकर ही आते ! उनके पधारने का मतलब ही था कि मेरे ख़िलाफ़ शिकायतों की पोटली में एक और शिकायत का इज़ाफ़ा! बात दरअसल यह थी कि एक बार 'बमपास्टिक' के खेल में मैंने सड़क पर भागते हुए मित्र पर गेंद का ज़ोरदार प्रहार किया था, मित्र तो एक किनारे हो लिए और गेंद राजेंद्र बाबू की कार के विंड-स्क्रीन पर जा लगी, जो दूसरी दिशा से आ रही थी। वह तभी से मुझसे खार खाये बैठे थे और मेरी शिकायत का कोई मौका न चूकते थे, अन्यथा सरकारी ज़मीन पर खड़े उस आम्र-वृक्ष से उनका क्या लेना-देना? पिताजी ने यह कहकर उन्हें विदा किया कि "मैं समझाऊँगा उसे।"

राजेंद्र बाबू के जाते ही पिताजी ने मुझे पुकारा। मेरी आत्मा की जड़ों में सिहरन हुई। लेकिन, पिताजी की पुकार थी, तो उनके सामने मुझे जाना ही था। मुझे देखते ही पिताजी बोले--"यह क्या सुन रहा हूँ मैं? तुमने आम के पेड़ का एक-एक पत्ता तोड़ दिया? आखिर क्यों?"
मैंने सरलता से कहा--"उसने मुझे गिरा दिया था, तो मुझे भी गुस्सा आ गया।"
पिताजी ने पूछा--"मैं समझा नहीं, किसने गिरा दिया?"
मैंने कहा--'पेड़ ने, और किसने !"

मैंने लक्ष्य किया, पिताजी के अधरों पर हल्की मुस्कान खेल गयी थी। उन्होंने मुझे पास बिठाया और गम्भीरता से कहा--"जानते हो, पेड़ जीवन का प्रतीक है--दीर्घ जीवन का। वह हमें छाया देता है, फल देता है, पत्ते देता है, जीवन-श्वास देता है और तो और, अपनी परोपकार-वृत्ति से हमें जीवन जीने की कला भी सिखाता है। इसीलिए वह मानवीय गुणों का भी प्रतीक है। वह हमारी तरह ही जन्म पाता, बढ़ता और शक्ति तथा क्षमता-सम्पन्न होता है। उसमें भी जीवन है और वह हमारे जीवन का पोषण भी करता है, तुम उसे ही नष्ट कर दोगे, तो हम सब जियेंगे कैसे? किसी आघात से जैसी पीड़ा हमें होती है, वैसी ही पीड़ा उसे भी होती है... और तुमने तो अपनी नादानी और क्रोध में उस निरपराध वृक्ष को पत्र-विहीन बनाकर कितनी पीड़ा पहुँचाई है, सोचो तो ! ऐसा फिर कभी मत करना। जाओ, खाना खाकर सो जाओ।"
उस कच्ची उम्र में पिताजी की बात का आशय चाहे मैं पूरी तरह न समझ सका होऊं, लेकिन इतना मेरी अल्प-बुद्धि में अवश्य आया था कि पेड़ों को भी हमारी तरह ही पीड़ा होती है। तो क्या समस्त टहनी-पत्ते तोड़कर मैंने उस वृक्ष के हाथ-पैर तोड़ दिए हैं? तब तो बहुत पीड़ित होगा वह ! बहरहाल, मैं खाना खाकर सोने चला गया।

मुझे तो बहुत आश्चर्य हुआ ही था, संभव है, आपको भी हो, यह जानकर कि उस रात वह पत्रहीन आम्र-वृक्ष मेरे सपने में आया था। वह बहुत दुखी था, रो रहा था और रोते हुए मुझसे कह रहा था--"तुमने मेरी ऐसी दशा क्यों कर दी? क्या अपराध था मेरा? तुम अपनी असावधानी से गिरे थे और दण्ड मुझे दे गए ! मेरे शरीर का पोर-पोर पीड़ा से बेहाल है। उफ्फ, मैं तो ठीक से साँस भी नहीं ले पा रहा हूँ भाई...!" वह जार-जार रो रहा था। उसका रोना रुकता ही नहीं था और मैं उसकी दशा देखकर सारी रात दुखी होता रहा।...

मैं उसके आँसू पोंछने लिए जैसे ही हाथ बढ़ता हूँ, मेरी नींद टूट जाती है। विस्मय से भरा इधर-उधर देखता हूँ--कहीं नहीं है वह रोता हुआ आम्र-वृक्ष ! मेरा मन ग्लानि से भर जाता है। नीम का दातून उठाकर दाँतों तले दबाता हूँ, फिर उसी लोटे में जल भरता हूँ, जिसमें दो बार शीतल जल भरकर मैंने कल पिया था और अपनी क्रोधाग्नि को शांत करने की चेष्टा की थी। जल से भरा लोटा लेकर मैं घर से बाहर निकलता हूँ। क्षिप्र गति से उसी आम्र-वृक्ष के पास जाता हूँ। वह मूर्छित-सा है, फिर भी खड़ा है--शोकमग्न, अपनी पत्र-विहीन टहनियाँ आकाश में गड़ाये हुए। निःशब्द पहुँचता हूँ उसकी जड़ों के पास। पात्र का जल उसकी जड़ों में डालता हूँ और क्षण-भर अपराधी-सा सिर झुकाए खड़ा रहता हूँ उसके पास--मौन !

प्रायः दो महीने तक रोज़ ऐसा ही करता हूँ--अब एक अभ्यास-सा हो गया है यह ! अचानक वर्षारम्भ होता है--सर्वत्र जल-ही-जल है, यत्र-तत्र जल-जमाव भी है; ऐसे में आम्र-वृक्ष के निकट जाना नहीं हो पाता। वर्षांत पर एक दिन उधर से गुज़रता हूँ और देखता हूँ--आम्र-वृक्ष की टहनियों पर आये हैं नए पात--भूरे, मख़मली ! जैसी गौ-माता की नव-प्रसूता बाछी लगती है, वैसे कोमल पात ! मन में अजब-सी पुलक उठती है और अनायास मेरे होठों से बोल फूटते हैं--'कैसे हो दोस्त? तुमने क्षमा कर दिया न मुझको? चुप क्यों हो, कुछ तो बोलो !'...

नवल पात वर्षा की बूँदों से भीगे हुए हैं। कई पत्रों के कोर से बूँदें अब भी टपक रही हैं; उन्हें देखकर मुझे लगता है, मेरी ही तरह आम्र-वृक्ष की आँखें भी छलक पड़ी हैं शायद...!