बुधवार, 30 दिसंबर 2015

मेरी परलोक-चर्चाएँ... (३२)

[उस रात वह मेरे पास थीं…]

उस रात की परा-वार्ता के बाद शर्माजी तो अलभ्य हो गए! मैं चिंता में पड़ा रहा कि आख़िर हुआ क्या! आत्मा से मिली सूचनाएँ सत्य सिद्ध हुईं या....? पंद्रह दिनों की प्रतीक्षा के बाद मैंने फ़ोन किया तो किसी ने फ़ोन उठाया नहीं। प्रतीक्षा और व्यग्रता बढ़ती गई। एक दिन पिताजी ने भी जिज्ञासा की--'भई, तुम्हारे शर्माजी तो गायब ही हो गए। उन्होंने यह भी बताना ज़रूरी नहीं समझा कि उनकी समस्या सुलझी कि नहीं! बातचीत से तो भले आदमी लगे थे, उन्हें स्वयं तुम्हें सारी बात बतानी चाहिए थी।'
मैंने पिताजी से कहा कि 'मैंने उन्हें फोन भी किया था, लेकिन घर पर किसी ने फ़ोन पिक नहीं किया।'
बात आई-गयी, हो गयी और दिन बीतते गए। लेकिन मेरे मन में कहीं उनकी फिक्र बसी रही। एक-डेढ़ महीने बाद मैंने उन्हें फिर फोन किया और फिर निराश हुआ। अब मुआमला अधिक चिंताजनक लगने लगा। एक ही उपाय मेरे पास बचा था कि उनके घर चला जाऊँ और पता कर आऊँ कि माज़रा क्या है। लेकिन सप्ताह की छह दिनों की दौड़ का आदमी किसी काम का रहता नहीं सातवें दिन! मैं उनके घर जाने का विचार ही करता रह गया, जा नहीं सका।
जैसा स्मरण है, बिना किसी पूर्व-सूचना के अचानक, ढाई-तीन महीने बाद, रविवार के दिन सुबह नौ बजे के आसपास शर्माजी अपने पुत्र के साथ मेरे घर पधारे। मैंने ही द्वार खोला और उन्हें सामने देखकर कुछ कह पाता, इसके पहले ही उन्होंने आगे बढ़कर मुझे गले से लगा लिया, पीठ पर थपकियाँ दीं, सिर पर हाथ फिराया और बोल पड़े--'मुझे पिताजी के पास ले चलिए!' मैं उन्हें पिताजी के कक्ष में ले गया। शर्माजी तेजी से आगे बढे और पिताजी का चरण-स्पर्श करके कहने लगे--'आपका आशीर्वाद चाहिए। बेटी का विवाह संपन्न करके विदेश से लौटा हूँ।' यह कहकर वह अपने पुत्र की ओर मुखातिब हुए और उसके हाथो से मिठाइयों के दो बड़े-बड़े डब्बे लेकर उन्होंने पिताजी के सामने रख दिए।
पिताजी ने कहा--'आपकी ओर से कोई खबर नहीं मिलने से आनंदजी तो फिक्रमंद थे ही, मैं भी चिंता में था। चलिए, आज वह चिंता मिटी। आप बेटी का विवाह संपन्न कर आये हैं, यह प्रसन्नता की बात है।'
शर्माजी स-पुत्र जब व्यवस्थित हो बैठ गए, तब बातों का सिलसिला चल पड़ा। उस दिन वे डेढ़-दो घण्टे बैठे थे। उन्होंने विस्तार से जो कुछ बताया, वह यह था कि 'ब्रेन हैमरेज' के कारण उनकी पत्नी हतचेत हो गयी थीं और पंद्रह दिनों की चिकित्सा के दौरान अस्पताल में ही, संज्ञा-शून्य दशा में, उनका निधन हुआ था। प्रभु ने उन्हें एक शब्द भी बोलने या कुछ कहने का अवकाश नहीं दिया था। वह उनके घर की धुरी थीं। महत्त्व के कागज़-पत्तर उन्हीं की देख-सँभाल में रहते थे; क्योंकि शर्माजी तो अध्ययन-अध्यापन और विश्वविद्यालय की उत्तर-पुस्तिकाओं से ही घिरे रहते थे। अब किसे ज्ञात था कि श्रीमती शर्मा संसार से इस तरह अचानक विदा हो जायेंगी!...
उस रात के प्लेंचेट के दो दिन बाद शर्माजी भागकर मेरठ के पास अपने गाँव गए थे। उनकी पत्नी की आत्मा ने जैसा कहा था, वे सारे महत्त्व के कागज़ात वहीं, उसी संदूक में उन्हें मिले थे। उनकी श्रीमतीजी का कथन अक्षरशः सत्य सिद्ध हुआ था।
उसके बाद बैंक की औचारिकताएँ पूरी करने में और वीज़ा लेने की दौड़ में उन्हें लग जाना पड़ा था। लड़केवालों का ज़िद थी कि बेटी का विवाह शर्माजी वहीं जाकर करें, शेष सारा प्रबंध लड़केवाले कर रखेंगे। उन्हें लड़केवालों की बात माननी पड़ी थी। विवाह सानंद समपन्न हुआ था।
ये पूरा विवरण सुनाकर शर्माजी ने कहा था--"विवाह के समस्त कार्य-कलाप और विधि-विधान के दौरान मुझे श्रीमतीजी की उपस्थिति का बोध होता रहा, लेकिन इसे मेरी कल्पना भी माना जा सकता है; क्योंकि उनकी आत्मा ने ऐसा कहा था कि विवाह के समय वह हर पल साथ रहेंगी। सम्भव है, उनके कथन का मनोवैज्ञानिक प्रभाव मुझ पर रहा हो, लेकिन बेटी की विदाई के बाद रात में जब मैं सोने के लिए गया, तो अजीब वाक़या हुआ। बेटी की विदाई से मन विकल-विह्वल था, नींद नहीं आ रही थी, आ रहे थे आँसू और मैं करवटें बदल रहा था। मैं नहीं जानता, कब शरीर अलस गया, कब झपकी-सी आयी और क्षण-भर में अनहोनी हो गयी, अकल्पनीय घटित हुआ। मैंने स्पष्ट देखा, वह मेरे सिरहाने बैठी हैं, उनका दायाँ हाथ मेरे सिर है और बड़े नेह से, मुझे समझाते हुए, वह कह रही हैं--'यह विकलता क्यों? तुम जानते तो थे, एक दिन जायेगी वह अपने घर ! फिर...?'
मेरे मुंह से सहसा निकल गया--'हाँ, जानता था, लेकिन यह नहीं पता था कि उसके पहले तुम ही....!'
'जानते हैं बाबूजी! मैं पसीने-पसीने हुआ, चौंककर उठ बैठा था उसी क्षण! मुझे पक्का विश्वास है, मैंने अपना ही कथन साफ़-साफ़ सुना था--'उसके पहले तुम ही...!"
पिताजी को चकित करने के लिए शर्माजी का यह कथन काफी था। यह सारा वृत्तांत सुनाते हुए शर्माजी कई बार रुआँसे हो आए थे, कई बार उनकी आँखें नम हुई थीं और कई बार विह्वलता के आधिक्य से उनका कण्ठ अवरुद्ध हुआ था। लेकिन उपर्युक्त वाक्य के बाद एक शब्द भी बोल पाने की स्थिति में वह नहीं रह गए थे, बिलखकर रो पड़े थे। पिताजी ने, मैंने और शर्माजी के सुपुत्र ने उन्हें संभाला था, ढाढ़स बँधाया था।... हमने उनके विश्वास को सबल किया था कि उस रात श्रीमती शर्मा उन्हीं के पास थीं !....
जाते-जाते शर्माजी ने मुझे बार-बार आशीर्वाद और धन्यवाद दिया, पिताजी के कई बार चरण छुए और कृतज्ञ भाव से इतने नतशिर रहे कि मुझे ही उजलत होने लगी थी। जब तक मैं दिल्ली में रहा (१९७९ के अंत तक), शर्माजी से सम्पर्क बना रहा। दस-पन्द्रह दिन होते-न-होते उनका फोन आ जाता और कुशल-क्षेम का आदान-प्रदान हो जाता। दिल्ली छोड़ने के पहले जब मैंने उन्हें फ़ोन किया था, तो किंचित भावुक होते हुए उन्होंने मुझसे कहा था--'लीजिये, एक आप ही का तो आसरा था और आप ही दिल्ली छोड़े जा रहे हैं! फिर आपकी सहायता की मुझे जाने कब जरूरत पड़ जाये, संपर्क बनाये रखियेगा।'
मैंने सहज भाव से कहा था--'आपकी समस्या का समाधान तो हो ही गया है, अब मेरी जरूरत क्यों होने लगी...?'
शर्माजी ने भावुक होकर कहा था--'आनंदजी! दो वर्ष हो गये, श्रीमतीजी ने फिर कभी मेरी सुधि नहीं ली। लगता है, वे अपनी ही दुनिया में व्यस्त हो गई हैं।...' उनके इस वाक्य में मारक पीड़ा-सी तड़प थी।...
दिल्ली छोड़ने के बाद शर्माजी से संपर्क-सम्बन्ध, शिथिल होते-होते, विच्छिन्न हो गया। काश, वह भी मोबाइल-युग रहा होता तो शर्माजी इस तरह दुनिया की भीड़ में मेरे लिए खो न गए होते।....
(क्रमशः)

रविवार, 27 दिसंबर 2015

मेरी परलोक-चर्चाएँ... (३१)

[जो तुम आ जाते एक बार !…]


प्राध्यापक महोदय के बुज़ुर्ग मित्र का नाम तो अब स्मृति से पूरी तरह मिट गया है, लेकिन पाठ और उल्लेख की सुविधा के लिए मान लीजिये कि उनका नाम शर्माजी था। मैंने दफ्तर से दोपहर में शर्माजी को फोन किया। मेरा फ़ोन पाकर वह प्रसन्न हो उठे। खिलकर बोले--'आनंदजी! मैं जानता था, आप मेरी मदद जरूर करेंगे ?' मेरे फोन को ही उन्होंने मेरी स्वीकृति मान लिया था और बहुमुख हो उठे थे, कहने लगे--'आप जब कहें, जहाँ कहें, मैं वहीं आ जाता हूँ। आप चाहें तो मैं अपने निवास पर ही आपको अपनी गाड़ी से लिवा लाऊँ। यह संपर्क मेरे घर पर भी हो सकता है न? कहिये तो आज ही रात अपने बेटे को आपके घर भेज दूँ, वह आपको अपने साथ ले आएगा। आपको मेरा घर खोजने की ज़हमत नहीं उठानी पड़ेगी।'
उनके प्रश्न और सुझाव ख़त्म होने का नाम नहीं ले रहे थे। मैंने उन्हें बीच में ही रोका और कहा--'देखिये, शनिवार तक मेरा प्रतिदिन का दफ़्तर है। इस बीच यह काम हो न सकेगा। हाँ, शनिवार की रात को मैं इस काम को अवश्य करने की चेष्टा करूँगा। और, इस बीच हम ये भी तय कर लेंगे कि यह सम्पर्क-साधन कहाँ हो!''
मेरे उत्तर से उनकी उत्फुल्लता कुंद हो गई। बुझी-बुझी आवाज़ में उन्होंने कहा--'शनिवार में तो अभी चार-पांच दिन शेष हैं, तब तक मुझे प्रतीक्षा करनी होगी…?'
उनके स्वर की निराशा को लक्ष्य कर मैंने उन्हें समझाया कि परा-संपर्क पूरी निश्चिंतता, गहरी एकाग्रता और पूरे मनोयोग का काम है, उसे भागमभाग में नहीं किया जा सकता। अपने प्रश्नों के सटीक उत्तर प्राप्त करने हों, तो हमें प्रतीक्षा करनी होगी।
शर्माजी निरुत्तर हो गए। स्थिति यह थी कि दस-ग्यारह महीने से बंधी-धरी गठरी उतारनी थी मुझे, उसपर पड़ी गर्द झाड़नी थी और शीशे के गिलास को परिशुद्ध करना था। मेरी सुविधा का दिन शनिवार ही था, क्योंकि रविवार मेरी छुट्टी का दिन था, दफ्तर जाने की जहमत नहीं थी। रात घर पहुंचकर मैंने पिताजी को शर्माजी से हुई बातचीत का ब्यौरा दिया। मैंने उन्हें यह भी बताया कि वह चाहते हैं कि प्लेंचेट मैं उन्हीं के घर पर करूँ। दरअसल, यह मेरे मन का अवगुंठन था। मेरे मन के किसी एकांत में चालीस दुकानवाली का भय चोर बनकर बैठा हुआ था। मुझे डर था कि प्लेंचेट मैं अपने घर करूँगा तो पिताजी वहाँ अवश्य उपस्थित होंगे ही और यदि उनकी उपस्थिति में चालीस दुकानवाली आ गई तो न जाने वह अपनी भड़ास किस रूप में निकाले। मैं नहीं चाहता था कि हमारी प्रगाढ़ मैत्री के वे प्रक्षिप्त पृष्ठ पिताजी के समक्ष खुल जायें और मुझे शर्मिंदगी उठानी पड़े। मैं इस स्थिति से बचना चाहता था।…मेरी बात सुनकर पिताजी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। मुझे प्रतीत हुआ कि उन्हें इस बात से कोई अंतर नहीं पड़ता कि मैं प्लेंचेट कहाँ करूँगा--अपने घर या शर्माजी के। दूसरे दिन मैंने फोन पर शर्माजी को इस बात की सूचना भी दे दी कि शनिवार की रात उन्हीं के यहाँ यह अनुष्ठान होगा।
जानता हूँ, शर्माजी ने वे चार-पांच दिन बेचैनी से बिताये होंगे, लेकिन उन दिनों को भी तो बीत ही जाना था, वे बीत गए। शनिवार आ पहुँचा। दफ्तर जाने पहले ही मैंने गठरी उतारी और उसकी गांठें खोलीं। गठरी की गांठें खोलते हुए मुझे लग रहा था, जैसे मैं चालीस दुकानवाली आत्मा को बंधन-मुक्त कर रहा हूँ, आज वह खुली हवा में सांस ले सकेगी और रात्रिकाल में, जब मैं शर्माजी की दिवंगता देवी को पुकारूँगा तो, सर्वप्रथम वही मेरे ग्लास में प्रविष्ट हो जायेगी।…लड़े-झगड़ेगी मुझसे…!
बोर्ड का बुरा हाल था, बाढ़ की उमस और सीलन झेलकर उसपर धूल के साथ 'फंगस' भी जमा हो गया था। उसे झाड़-पोंछकर धूप में रख आया। शीशे के ग्लास को भी स्वच्छ किया और उलटकर रख दिया। मुझे इस बात की फिक्र नहीं थी कि आज की रात शर्माजी की समस्या का समाधान हो सकेगा या नहीं, लेकिन मुझे इसका विश्वास जरूर था कि उनकी धर्मपत्नीजी को मैं परलोक से बुलाने में सफल हो जाऊँगा। शर्माजी की व्यग्रता से मेरी व्यग्रता कमतर नहीं थी। मेरी व्यग्रता में चालीस दुकानवाली आत्मा से एक अदद वार्तालाप की उम्मीद/उत्सुकता बंधी हुई थी, तो शर्माजी की व्यग्रता में उनकी समस्या के समाधान की कुंजी मिलने की आस लिपटी थी।…
उस दिन शाम के वक़्त मैं दफ्तर से थोड़ा जल्दी ही लौट आया था। रात ९ बजे शर्माजी के ज्येष्ठ सुपुत्र मुझे अपनी गाड़ी से लिवा ले गए। मॉडल टाउन से उनका घर दूर नहीं था। किंग्सवे कैंप से थोड़ा आगे, मॉल रोड प्रक्षेत्र में, उनका निवास था, हम २०-२५ मिनट की दूरी तय कर वहाँ पहुँच गए थे। सुरुचिपूर्ण ढंग से उनका ड्राइंग रूम सजाया गया था। सेंटर टेबल एक किनारे रख दी गयी थी और बीच के खाली स्थान में एक कालीन बिछा दी गई थी। पूर्व-परिचित प्राध्यापक महोदय भी वहाँ उपस्थित थे। शर्माजी से यह मेरी पहली मुलाक़ात थी। वह मुझसे बड़े प्रेम से मिले। मुखर और संभ्रांत व्यक्ति लगे। औपचारिक प्रश्नों के बाद वह सीधे मुद्दे की बात पर आये और मुझसे पूछने लगे--'मुझे और क्या व्यवस्था करनी है? आपके कहे अनुसार अगरबत्ती, मोमबत्तियां और धूप-सामग्री मंगवा ली है मैंने ! बाज़ार अभी आधे घंटे और खुला मिलेगा। आप जो कहें, मैं तत्काल मंगवा लूँ!' मैंने उन्हें मुश्किल से आश्वस्त किया कि और कुछ भी वांछित नहीं, सिवाय दिवंगता देवी के एक चित्र के। उनकी क्षिप्रता देखकर मुझे आशंका थी कि वह जल्दी ही मुझे बोर्ड बिछाने को बाध्य कर देंगे। मैंने उनसे एक लम्बे विराम की याचना की, लेकिन उन्होंने समझा कि अनुष्ठान के पहले मैं किसी प्रकार का यत्न-प्रयत्न करना चाहूंगा। जबकि लम्बा विराम मैं सिर्फ इसलिए चाह रहा था कि आत्माओं से संपर्क का उचित समय हो जाए, तब संपर्क की चेष्टा करूँ, अन्यथा पुकार निष्फल जाएगी। मैंने शर्माजी से कहा--'बारह बजते ही मैं आत्मा का आह्वान करूँगा, आप चिन्ता न करें।'
बारह बजने के पहले ही मैंने विधि-व्यवस्था बना ली थी। श्रीमती शर्मा का फ्रेम-जड़ित चित्र सम्मुख रख लिया था। धूपदान की अग्नि प्रज्ज्वलित थी, अगरबत्तियाँ जल उठी थीं और कक्ष की खिड़कियाँ खुली हुई थीं। समय होते ही मैं ध्यानस्थ हुआ, लेकिन चित्त में छवियों का अजीब घाल-मेल था--मैं पुकार तो श्रीमती शर्मा को रहा था, किन्तु मन में विराज रही थी चालीस दुकानवाली ! मैं स्वयं ही इस दुविधा में था कि इस दुहरी मनःस्थिति में मेरी पुकार न जाने किसके पास पहुँचे, कौन पहले आ जाए मेरे पास ! लेकिन श्रीमती शर्मा की आत्मा प्रबल निकली। वह तो उन्हीं का घर था, आज जैसे वहीं विराज रही थीं, तत्काल आ पहुँचीं। किसी आत्मा की उपस्थिति का जैसे ही मुझे आभास हुआ, मैंने ग्लास बोर्ड पर रखा और पूछा--'देवि ! आप कौन हैं? अपना परिचय दें।'
आत्मा ने अपना नाम बताया, जो मुझे ज्ञात नहीं था। मैंने शर्माजी की ओर जिज्ञासा-भरी नज़रों से देखा। वह भावुक हो रहे थे। उन्होंने बताया कि यह उनकी पत्नी का नाम है। अब यह सुनिश्चित हो गया था कि श्रीमती शर्मा वहाँ आ गयी थीं। फिर बातों का सिलसिला चल पड़ा। लम्बी वार्ता में आत्मा ने जो कुछ बताया, वह चौंकानेवाला था।
श्रीमती शर्मा की आत्मा ने बताया था कि जरूरी सारे कागज़ात उन्होंने गाँववाले घर में रख छोड़े हैं--प्लास्टिक के एक थैले में, अमुक संदूक में। संदूक में लगे ताले की चाबी यहीं घर में, कबर्ड के ड्रावर में, रखी है। इन चाबियों को लेकर शर्माजी गाँव जाएँ और उन कागज़ों को ले आएं, वे वहाँ सुरक्षित हैं।
उस कमरे में सारा घर सिमट आया था--शर्माजी के दोनों सुपुत्र और एकलौती बिटिया ! वार्ता की समाप्ति के पहले शर्माजी ने विह्वल होकर अपनी दिवंगता पत्नी से पूछा था--"आप जहां हैं, वहाँ खुश हैं न?" आत्मा ने उनसे कहा था--"मैं यहां परम शान्ति में हूँ, प्रसन्न हूँ। आप मेरे लिए दुखी न रहा करें, अपना ख़याल रखें और बेटी का विवाह प्रसन्नतापूर्वक करें। मेरे मन में बड़ी साध थी कि उसका विवाह मैं खुद करूँ, लेकिन वह मेरे भाग्य में नहीं था; किन्तु उस ख़ुशी के मौके पर मैं आप सबों के आसपास ही रहूँगी--इस बात का विश्वास रखें।" इसके बाद उन्होंने अपनी बिटिया के लिए भी कुछ आशीर्वचन कहे थे।....
ये सारी बातें सुनकर पूरा परिवार बिलख पड़ा था। मेरी वर्जना का भी कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा था। भावुकता-विह्वलता का वह प्रवेग इतना तीव्र था, जिसे बाँध पाना कठिन था। आत्मा को विदा करते हुए मेरे हाथ काँप रहे थे--संसार का यह दारुण दुःख मेरी अन्तरात्मा को भी हिला गया था।....
श्रीमती शर्मा की आत्मा को विदा करने के बाद मैंने ग्लास-बोर्ड समेटा। इस बीच शर्माजी कबर्ड से वह चाबी निकाल लाये, जिसका ज़िक्र आत्मा ने किया था। चाबी मुझे दिखाते हुए शर्माजी ने कहा था--'आनंदजी! मुझे क्या मालूम था कि यही वह कुंजी है, जो मेरी समस्याओं का निवारण करेगी, इसे तो मैंने कई बार देखा था, उनके जाने के बाद…!' इतना कहकर वह फिर रो पड़े थे। प्राध्यापक महोदय ने उन्हें सँभाला था।
जब शर्माजी के घर से रात दो बजे लौटने लगा, तो एक समस्या के समाधान की प्रसन्नता की जगह, मेरे मन में क्षोभ समाया हुआ था--आखिर क्यों नहीं आई आज भी चालीस दुकानवाली आत्मा? क्या इतनी नाखुश है मुझसे?...
कार की खड़की से आती हवाओं में लहराती आ रही थीं महादेवीजी की पंक्तियाँ--
"जो तुम आ जाते एक बार !
कितनी करुणा, कितने सँदेश
पथ में बिछ जाते बन पराग,
जो तुम आ जाते एक बार !!…"
(क्रमशः)

बुधवार, 23 दिसंबर 2015

मेरी परलोक-चर्चाएँ... (३०)

[फिर खुलेंगे बंद द्वार, क्या लौटोगे तुम एक बार ?…]

सन '७७ के दिन यूँ ही बदहवास से बीतते रहे। दस महीनों की लम्बी अवधि गुज़र गई और परा-जगत से संपर्क की कोई सूरत नहीं निकली।

दिल्ली-प्रवास में रविवार की सुबह साहित्यिक गोष्ठियों की गुनगुनी धूप लेकर आती, जब नागार्जुन, शमशेर और त्रिलोचन शास्त्रीजी पिताजी से मिलने मेरे घर पधारते। यह त्रिमूर्ति उसी कॉलोनी में निवास करती थी। उनकी गोष्ठियां दिल्ली के निरानंद जीवन में आनंद की एक ठंढी बयार-सी होतीं। कभी-कभी दिल्ली विश्वविद्यालय के कुछ प्राध्यापक भी आते और बैठकें लम्बी खिंच जाती। कविताएं होतीं, गंभीर विमर्श होते और गप्पें होतीं। नागार्जुन और त्रिलोचनजी प्रखर और मुखर वक्ता थे, शमशेरजी अल्पभाषी और अतिशय विनम्र रहते। तीनों हिंदी-साहित्य के महारथी थे, पिताजी के अनुज थे और उन सबों के मन में पिताजी के लिए बहुत सम्मान था।
उन्हीं दिनों की बात है। दिल्ली विश्वविद्यालय के एक अध्यापक घर की गोष्ठी में उपस्थित हुए थे। उन्होंने बातचीत में पिताजी से कहा था कि 'उनके एक बुज़ुर्ग मित्र संकट में हैं। वह सेवा-मुक्त हैं और उनकी बेटी के विवाह में धन का संकट आ खड़ा हुआ है; क्योंकि उनकी दिवंगता पत्नी कुछ जरूरी दस्तावेज़ कहीं रख गई हैं, जो अब खोजे से नहीं मिलता।' यह विवरण सुनकर पिताजी ने अफ़सोस ज़ाहिर किया था, लेकिन उन्हें आश्चर्य भी हुआ था कि यह प्रकरण उस गोष्ठी में रखने का आखिर अभिप्राय क्या था? वह कोई धनाधीश तो थे नहीं कि उनकी किसी भी प्रकार की आर्थिक मदद कर पाते ! फिर, इसकी चर्चा भी व्यर्थ ही थी।...चार-पांच लोगों की उपस्थिति में बातचीत की दिशा अचानक बदल गई थी और प्राध्यापक महोदय उस विषय को आगे नहीं बढ़ा सके थे। उस दिन की रविवारीय गोष्ठी दिन के बारह-साढ़े बारह तक चली थी, तत्पश्चात, परस्पर अभिवादन के आदान-प्रदान के बाद सभी आगंतुक लौट गए थे ।

ठीक दूसरे दिन, बिना किसी पूर्व-सूचना के, वही प्राध्यापक महोदय अपने उन्हीं बुज़ुर्ग मित्र के साथ पिताजी से मिलने आये। मैं दफ्तर जा चुका था। प्राध्यापक महोदय को न जाने किस सूत्र से ज्ञात हुआ था कि मैं प्लेंचेट करता हूँ। वह इसी अभिप्राय से रविवार को भी आये थे, लेकिन खुलकर कुछ कह न सके थे।

उन दिनों पिताजी 'सेलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ जवाहरलाल नेहरू' के किसी खण्ड के हिन्दी-अनुवाद (नेहरू वाङ्गमय) में दत्तचित्त होकर लगे हुए थे। उनके लिखने-पढ़ने का समय निश्चित था। ठीक उसी वक़्त वे दोनों सज्जन आ पहुँचे। पिताजी ने अनुवाद-कार्य को रोककर उन्हें अपने पास बिठाया और धैर्यपूर्वक उनकी बातें सुनीं। प्राध्यापकजी के मित्र महोदय ने बड़े अनुनय-विनय के साथ कहा कि 'अगर आपके ज्येष्ठ पुत्र प्लेंचेट करके मेरी थोड़ी मदद कर दें, तो वे ज़रूरी दस्तावेज़ मुझे मिल जाएँ। उन दस्तावेज़ों के मिल जाने से मेरे हाथ में इतनी धन-राशि आ जायेगी कि मेरी पुत्री का विवाह निर्विघ्न सम्पन्न हो जाएगा। मैं आपके पास सहायता की याचना लेकर आया हूँ, मुझे निराश न कीजियेगा।' इतना कहते हुए उन्होंने पिताजी के पाँव पकड़ लिए।

पिताजी धर्म-संकट में पड़े। स्वभावतः वह स्पष्टवक्ता थे, उन्होंने कहा--'मैं नहीं जानता, आनंदजी आपकी क्या और कितनी सहायता कर सकेंगे। वह जब कानपुर में थे, तो प्लॅन्चेट वगैरह कुछ करने लगे थे। उन्होंने मुझे पत्र लिखकर बताया भी था, लेकिन मैंने उन्हें वर्जना दी थी। मैं नहीं जानता कि उनकी इस विधा में कितनी पकड़ अथवा गति है। पिछले दस-एक महीनों से तो वह यहीं हैं और मैंने यह सब करते हुए उन्हें कभी नहीं देखा। मुझे लगता है कि मेरी वर्जना के बाद से ही उन्होंने यह सब छोड़ दिया है। क्षमा करें, मुझे नहीं लगता कि वे आपका मनोरथ सिद्ध करने में समर्थ होंगे।'

पिताजी की बातें सुनकर बुज़ुर्गवार की तो आँखें छलक पड़ीं। उन्होंने साश्रु करबद्ध खड़े हो पुनः निवेदन किया--'मैं बहुत प्रयत्न कर हार गया हूँ, कई सिद्ध, पीर-फ़क़ीर के द्वार से खाली हाथ लौटा हूँ।' अपने अनुज मित्र की ओर हाथ का इशारा करते हुए उन्होंने अपनी बात जारी रखी--'ये मेरे हितचिंतक बंधु कानपुर के ही हैं। इन्हें कानपुर से ही आनंदजी बारे में पता चला है। कई दिनों के प्रयास के बाद आपका दिल्ली का पता इन्हें मिला। कल मुझसे चर्चा करके ये आपके पास इसी उद्देश्य से आये थे, लेकिन संकोचवश स्पष्तः कुछ कह न सके। इसीसे आज मैं स्वयं इनके साथ आया हूँ। आपकी इतनी कृपा हो जाए तो शायद मेरी समस्या का कोई समाधान हो जाए। मेरा निवेदन है कि आप एक बार आनंदजी को इस सम्पर्क के लिए प्रेरित अवश्य करें।'

पिताजी असमंजस में थे, उन्हें विश्वास ही नहीं था कि मैं इस जटिल गुत्थी को सुलझाने के योग्य भी हूँ। उन्होंने कहा--'देखिये, मैं आपकी पीड़ा और परेशानी समझता हूँ, फिर भी मुझे नहीं लगता कि इस संकट का समाधान करने की योग्यता उनके पास है। आप आग्रह करते हैं तो मैं उनसे बात ज़रूर करूँगा, आपका संकट उनके समक्ष रख दूँगा। यदि आपकी समस्या का समाधान उनके प्रयत्न से हो जाता है, तो इससे मुझे प्रसन्नता ही होगी। वैसे, परा-जगत में इस तरह हस्तक्षेप करना मुझे प्रीतिकर नहीं लगता; फिर भी आप धैर्य रखें और अपना पता और टेलेफोन नंबर लिखकर छोड़ जाएँ। अगर वे एक प्रयत्न करना चाहेंगे तो आपसे स्वयं संपर्क कर लेंगे।'
बुज़ुर्ग सज्जन ने अपना पता-ठिकाना और फोन नंबर एक कागज़ पर लिखकर पिताजी के हवाले किया और उपकृत-भाव से विदा हुए।....

रात आठ बजे, जब मैं दफ्तर से लौटा तो पिताजी ने सारी बात मुझे बतायी और पूछा-- 'क्या तुम इतने समर्थ हो गए हो कि इस उलझन को सुलझा सकोगे ?'
मैंने झिझकते हुए कहा--'मैं दावा तो नहीं कर सकता, लेकिन एक बार कोशिश तो कर ही सकता हूँ।'
पिताजी ने एक स्लिप मेरी ओर बढ़ाते हुए कहा--'तो फिर उनसे बातें कर लो। इसमें उनका पता और दूरभाष संख्या लिखी हुई है। वह सचमुच परेशानहाल हैं।'
--'कल दफ्तर से उनसे बातें अवश्य कर लूँगा मैं!' यह कहते हुए मैंने वह स्लिप ले ली और पिताजी के सामने से हट गया।...

मैं इसी बात से खुश था कि लम्बे अरसे बाद आत्माओं से सम्पर्क का एक सुयोग बन रहा था। और क्या पता, मेरी पुकार को अप्रभावी बनाते हुए चालीस दुकानवाली आत्मा सबसे पहले आ पहुँचे, मुझ पर अपनी नाराज़गी का दिल खोलकर इज़हार करने के लिए--इन्हीं ख़यालों में खोया-खोया मैं न जाने कब निद्राभिभूत हो गया।....
(क्रमशः)

शनिवार, 19 दिसंबर 2015

मेरी परलोक-चर्चाएँ... (२९)

[उसका ख़याल दिल से कभी जाता न था…]

बात बहुत पुरानी है--१९३४ की। पितामह (साहित्याचार्य पं. चंद्रशेखर शास्त्री) द्वारा अनूदित 'महाभारत' के प्रचार-प्रसार के लिए पिताजी भागलपुर गए हुए थे। वहाँ के किसी गेस्ट हाउस में किराए के एक कमरे में दुतल्ले पर ठहरे थे। अचानक और अकारण पितामह ने तार भेजकर पिताजी को तत्काल घर (इलाहाबाद) लौट आने का आदेश दिया। जिस दिन पिताजी को वह तार मिला, उसी रात की गाड़ी से पिताजी ने इलाहाबाद के लिए प्रस्थान किया और दूसरे दिन इलाहाबाद पहुंचे। स्टेशन से बाहर निकलते हुए उन्होंने एक अख़बार खरीद लिया और इक्के में बैठकर दारागंज के लिए चल पड़े। शहर में थोड़ी हलचल देख उन्हें चिंता हुई। इक्का चला तो अखबार के सिरनामे (Heading) पर उन्होंने दृष्टि डाली और चौंक पड़े। प्रथम पृष्ठ तो क्या, पूरा अखबार ही बिहार में भूकम्प की भयप्रद खबरों से रँगा पड़ा था। इन्हीं खबरों में भगलपुर की भी बुरी दशा की खबरें थीं, जो इस प्राकृतिक आपदा से बहुत अधिक क्षतिग्रस्त हुआ था और अनेक लोग हताहत हुए थे। पितामह के एक तार से पिताजी तो घर लौट आये थे, उनकी प्राण-रक्षा हुई थी, लेकिन भागलपुर में बहुत-से लोग इस आपदा के शिकार भी हुए थे।

मैंने जब कानपुर छोड़ा, उसके एक पखवारे बाद ही स्वदेशी के मिल ऑफिस में संकट गहराया था। धरना, प्रदर्शन, तालाबंदी और फिर हिंसक झड़पें शुरू हुई थीं। मज़दूरों ने पूरी मिल को अंदर से सीलबंद कर उस पर आधिपत्य जमा लिया था। मिल के कार्यालयों की तमाम इकाइयों के कार्यकर्ताओं ने अपनी-अपनी प्राण-रक्षा के लिए उसके द्वार बंद कर लिए थे और वे सभी उसी में स्वयं नज़रबंद हो गए थे। यह बबाल दस-बारह दिनों तक चला था। हमारे मुख्य लेखाधिकारी श्रीशर्मा और उत्पादन-प्रबंधक श्रीआयंगर (संभवतः उनका नाम ठीक-ठीक स्मरण कर पा रहा हूँ) उग्र हड़तालियों के हत्थे चढ़ गए थे, जिनकी एक-दो दिन बाद ही मिल-परिसर में हत्या कर दी गई थी। इनके अलावा कई अधिकारी भी मार डाले गये थे।
मेरे मित्र शाही और ईश्वर भी अन्य सहकर्मियों के साथ लेख-विभाग में भूखे-प्यासे कीलबद्ध रहे थे और सड़क की तरफ से पुलिस द्वारा लगाई गई रस्सियों से पकौड़े, ब्रेड, बिस्कुट, पानी की बोतलों की आपूर्ति के सहारे संकट के दिन बिताते रहे थे। दस दिन बाद पुलिस के एक बड़े अभियान से इस संकट से उन्हें मुक्ति मिली थी। पुलिस को अश्रु-गैस की बौछार करनी पड़ी थी और कई राउंड गोलियाँ भी चलनी पड़ी थीं। इतनी बड़ी कार्रवाई के बाद सभी लोगों को मुक्त करवाया जा सका था। यह संकटकाल देखने-झेलने के लिए मैं वहाँ नहीं था, लेकिन नज़रबंदी से मुक्ति के बाद शाही ने उसका जो विवरण दिया था, वह रोंगटे खड़े करनेवाला था।

उपर्युक्त इन दोनों घटनाओं में मैं विचित्र साम्य देखता हूँ। दोनों में पिता और परमपिता की अहैतुकी कृपा का वरद हस्त था। मेरी बड़ी चाची (कृष्णाचन्द्र ओझाजी की धर्मपत्नी) प्रायः कहा करती थीं कि 'तुम्हारे बाबा और पिताजी जो कह देते थे, जो चाह लेते थे, जो भविष्यवाणियाँ कर देते थे, वही हो जाता था। वे कलेजे और मन के बहुत साफ़ लोग थे।' आज भी मेरे लिए यह समझ पाना सचमुच कठिन है कि पूज्य पितामह ने पिताजी का और पिताजी ने मेरा आसन्न संकट से उद्धार कैसे किया था। वे कौन-से प्रेरक तत्व थे जिन्होंने पितामह को तार भेजने को विवश किया था अथवा पिताजी को मेरे स्थानांतरण के लिए प्रयास करने को उद्यत किया था।.…

बहरहाल, दिल्ली पहुंचकर सातवें दिन मैंने कार्य-भार स्वीकार कर लिया था। मुझे देखते ही पिताजी की पहली प्रतिक्रिया थी कि मैं बहुत दुर्बल दीख रहा हूँ। मैंने उन्हें यह कहकर आश्वस्त किया कि 'कानपुर की दौड़-भाग और यात्रा की थकान की वजह से आपको ऐसा प्रतीत हो रहा है, लेकिन ऐसा है नहीं। मैं स्वस्थ-प्रसन्न हूँ।' प्लेंचेट बोर्ड की बंधी-बंधाई पोटली को पिताजी की नज़रों से बचाकर मैंने अपने कमरे में पहुंचाया था और कमरे में ही छत से लगी सामान रखने की दुछत्ती में छिपा दिया था। पिताजी की उपस्थिति में परा-जगत से संपर्क साधने की कोई संभावना ही नहीं थी। मैंने मान लिया था कि अब इन प्रयोगों पर पूर्णविराम लग चुका है। पिताजी की छाया में और दिल्ली की भागमभाग की ज़िन्दगी में इसके लिए अवकाश भी कहाँ था! और, वह भी पिताजी के ठीक बगल के कमरे में...?

अब जीवन दिल्ली की तेज़ रफ़्तार से कदम मिलाने को बाध्य था। पिताजी नियमित जीवन के अभ्यासी थे और अपने दोनों पुत्रों से यही अपेक्षा रखते था। मेरे अनुज यशोवर्धन तो बाल्य-काल से ही माता-पिता के अनुगत पुत्र थे, मैं ही विप्लवी, अघोरी, अवज्ञाकारी था और मुझे ही प्रायः उनका कोपभाजन बनना पड़ जाता था।
लेकिन दिल्ली सुबह से देर शाम/रात तक की दौड़ की मांग करती थी। रोज़ वही बसों की धक्का-मुक्की, समय से दफ्तर पहुँचाने की ज़द्दोज़हद, दिन-भर के अत्यंत उबाऊ कार्यालयीय नीरस धंधे बहुत थकाऊ और एकरस थे। दिल्ली कभी मुझे रास नहीं आई। वह मुझे कष्ट-नगरी-सी लगती रही हरदम। पूरा दिन बिताकर जब घर लौट आता, फिर कुछ और करने का मन न होता।
दुछत्ती में बंधी-रखी पोटली यथावत पड़ी रही। उसकी गाँठें खोलने की बड़ी इच्छा होती, लेकिन इसकी कोई सुविधा वहाँ नहीं थी। पिछले दो वर्षों तक मैं जिस राग से बँधा रहा, उसका आकर्षण कम नहीं हुआ था। कई बार तो परा-संपर्क की ऐसी प्रबल इच्छा होती कि मन में आता कि उठूँ और बोर्ड बिछाकर बैठ जाऊँ, बुलाऊँ उसे, जिसके लिए मेरे मन में एक अपराध-बोध समाया हुआ था और जो रह-रह कर मुझे उद्विग्न कर देता था। लेकिन ऐसा हो न पाता था।....

१९७७ की बाढ़ में टैगोर पार्क, मॉडल टाउन के घरों में छाती तक पानी भर आया था। उन्हीं दिनों कानपुर से शाही भाई मेरे पास आये हुए थे। सुबह-सबेरे चार बजे बाढ़ का पानी सर्प-सा बंद दरवाज़ों में प्रविष्ट हुआ और देखते-देखते जल-स्तर बढ़ने लगा। हमें आनन-फानन में घर का सारा सामान खाट-खटोलों, ऊँची पट्टियों पर बोझ देना पड़ा। दिल्ली की गृहस्थी में पिताजी ने बहुत कुछ जोड़ा नहीं था। सोने की कॉट और बिस्तरों के अतिरिक्त रसोईघर के बर्तन थे और ढेर सारी किताबें थीं, बाबूजी के कागज़-पत्र थे, फाइलें थीं। बाबूजी को बस उन्हीं की, बच्चों की और अपने पान-तम्बाकू की चिंता थी। मेरी छोटी बहन महिमा, जो मानसिक रूप से अविकसित, बीस वर्षीया अबोध बालिका थी, वह पिताजी की सबसे ऊँची चौकी पर जा बैठी थी और पानी में पैर रखने से भी घबरा रही थी। तत्काल निर्णय लेना ज़रूरी था।
सबसे पहले मैंने और शाही ने पिताजी को अनुज के साथ बड़ी बहन के घर करोलबाग़ भेजा। फिर सारे घर में बिखरा सामान मैं शाही को जल्दी-जल्दी पकड़ाता गया और वह कमरे की दुछत्ती में उन्हें डालते गये, जहाँ मेरी प्लेंचेट बोर्ड की गठरी रखी थी। महिमा को प्रथम तल तक ले जानेवाली ऊँची सीढ़ी पर मैंने बिठा दिया था; क्योंकि पानी ईंट-दर-ईंट बढ़ता जा रहा था। दुछत्ती में सामान जमाते हुए अचानक शाही की नज़र उस पोटली पर पड़ी, जो उन्हीं की धोती में बंधी थी। उसे देखते ही उन्होंने पहचान लिया और हठात उनकी गूँजती हुई आवाज़ दुछत्ती से बहार आई--'अरे, तेरी चालीस दुकानवाली यहीं बँधी पड़ी है अब तक ?'

शाही का यह वाक्य सुनते ही, पानी में खड़े-खड़े, मुझे करेंट-सा ज़ोरदार झटका लगा। लेकिन मैंने कुछ कहा नहीं, स्वयं को संयत रखा। पूरा सामान रखते-रखते पानी खाट-चौकी तक आ पहुंचा। शाही नीचे उतरे और शीघ्रता से लोहे की एक कॉट पर चौकियों पर चौकियाँ हमने चढ़ा दीं। यह सब करते-समेटते छाती भर पानी कमरे में भर आया था। अब दरवाज़ों में ताले डालकर हमें भी निकल चलना था। लेकिन महिमा तो सीढ़ियों से उतरने को तैयार ही नहीं थी। उसे बलपूर्वक ही उठा ले चलना था। एक तरफ से मैंने, दूसरी ओर से शाही ने उसे उठाया और ले चले, लेकिन पानी तो और ऊपर चढ़ आया था। जैसे ही महिमा के पाँव पानी में पड़े, वह क्रोधित हो उठी। शाही ने मुझसे कहा--'तुम छोड़ दो, मैं इसे ऊपर उठा लेता हूँ।' शाही ने पूरी शक्ति लगाकर महिमा को उठा लिया और चल पड़े। उन्होंने एक लम्बी दूरी तक महिमा की शैतानियाँ, नोच-खसोट बर्दाश्त की, लेकिन किसी तरह जल-विहीन चौराहे तक उसे ले आये। मैंने एक स्कूटर लिया और हम करोलबाग़ पहुँचे।
पांच दिनों बाद, बाढ़ का पानी गुज़र गया। शाही कानपुर लौट गए। मैं अनुज के साथ घर लौटा। कमरों का ये हाल था कि वे कीचड़ और गंदगी का मैदान बन गए थे--दुर्गन्ध, सीलन और कचरे से भरा हुआ घर! हमने घंटों की मेहनत से घर की सफाई की, डेटॉल, फिनायल से धुलाई की, फिर अगरबत्तियां जलाईं, लेकिन दुर्गन्ध वहाँ जमकर बैठ गई थी। उसे निकलने में वक़्त लगना था। अनुज को बाज़ार भेजकर और घर के सारे पंखे चलाकर मैंने एक सिगरेट सुलगाई और उसी कमरे में बैठ गया, जिसमें दुछत्ती थी। मैं लम्बे कश लगा रहा था, लेकिन हर कश के साथ दुर्गन्ध भी फेफड़े में प्रविष्ट हो रही थी।...
अचानक मुझे प्लेंचेटवाली अपनी पोटली की याद आयी और ख़यालों के गलियारे में एक नये ख़याल का आविर्भाव हुआ। मैं सोचने लगा, जब इतनी सफाई-धुलाई के बाद भी मेरा यहाँ बैठना दुश्वार हो रहा है, तब पानी भरे और बंद पड़े उस घर में पोटली-बद्ध चालीस दुकानवाली का क्या हाल हुआ होगा?

ये तो मन में उपजा बस एक ख़याल ही था, लेकिन उसके बाद वहाँ बैठे रहना मेरे लिए असम्भव हो गया था। मैं कमरे से बाहर निकल आया था। यशोवर्धन के बाज़ार से लौट आने तक मैं बाहर अहाते में उद्विग्न-मन टहलता रहा था।…
(क्रमशः)
[पिताजी का १९३२ का चित्र, उन्हीं के उपन्यास 'तलाक़' से लिया हुआ]

सोमवार, 14 दिसंबर 2015

मेरी परलोक-चर्चाएँ... (२८)

['जाने कौन साथ सफ़र करता है…!' ]

उस रात शाही के साथ किसी तरह स्वदेशी कॉलोनी लौट तो आया, लेकिन मैं बहुत क्लांत था। रास्ते में शाही ने मुझसे कुछ नहीं पूछा। किसी कटे वृक्ष की तरह मैं शय्या पर जा गिरा और शायद अत्यधिक अशक्तता के कारण जल्दी ही सो भी गया। वह विचित्र बेहोशी की नींद थी।

दूसरे दिन फ्रेश होने के बाद जब शाही के साथ चाय-नाश्ते के लिए बैठा, तो शाही ने तेरहवीं सीढ़ी पर पिछली रात क्या हुआ था, यह जानना चाहा। मैंने विस्तार से उन्हें वह सब बताया, जो घटित हुआ था।
सारा विवरण सुनकर वह गंभीर हो गए और बोले--'तुम बच गए पण्डित! अच्छा हुआ, मैं तुम्हारे साथ था, वरना तुम्हारा क्या होता, राम जाने! अब अपना यह सब तमाशा बंद करो, ये बोर्ड-ग्लास लपेटकर कहीं रख दो और भूल जाओ, इसी में तुम्हारा भला है। अगर तुमने मेरा कहा न माना, तो मुझे तुम्हारी शिकायत पहले श्रीदीदी-मधु दीदी से करनी पड़ेगी, फिर बाबूजी से।'
अब उनसे कुछ भी कहने की मेरी स्थिति नहीं थी। मैं एक पराजित योद्धा की तरह चुप रहा। उनसे कहना चाहता था कि भय मेरी सहज वृत्ति का हिस्सा कभी नहीं रहा, लेकिन पिछली रात तो झड़बेरी के पेड़ से उतरकर 'भय' स्वयं साकार हो गया था मेरे सामने। बाद के दिनों में मैं सोचता ही रहा कि काश, उस रात मैंने थोड़ा और साहस दिखाया होता, थोड़ी और हिम्मत से काम लिया होता, तो शायद कुछ अद्वितीय अनुभव, कुछ अलभ्य सौगात भैरव घाट से साथ ले आता, लेकिन वो कहा है न, 'अब पछताए होत का....!' ग़नीमत थी कि शाही ने ईश्वर के अलावा और कहीं, किसी से इस रात का ज़िक्र नहीं किया।

मैं अपना 'जाल-समेटा' करूँ, उसके पहले ही मैंने देखा कि प्लैन्चेट का मेरा सारा यन्त्र-तंत्र एक फटी धोती में बाँधकर शाही ने दीवार की एक खूँटी से लटका दिया है। उसी गट्ठर की गाँठ में बंध गयी चालीस दुकान की आत्मा और एक अपराध-बोध की गाँठ मेरे मन में भी कहीं बंधी रह गयी। परा-भ्रमण के बिना दिन बीतते रहे, जबकि मेरे मन में बार-बार यह आकांक्षा प्रबल होती कि एक बार चालीस दुकानवाली से बात करूँ, पूछूँ उससे कि ऐसी भयप्रद रात उसने मुलाक़ात के लिए क्यों चुनी और स्वयं ऐसा स्वांग धरकर वह क्यों प्रकट हुई! लेकिन मैं विवश था। हालत यह थी कि अब यह सब करते शाही मुझे देख लेते तो मेरी शामत आ जाती। उनके जैसा प्रेमी-स्नेही और अक्खड़ मित्र मुझे जीवन में दूसरा नहीं मिला।

अचानक स्थितियाँ तेजी से बदलीं। १८-२० दिन बाद दिल्ली-स्थानांतरण का परवाना मुझे हेड ऑफिस से मिला। मुझे सात दिनों के अंदर कनॉट प्लेस स्थित स्वदेशी ऑफिस ज्वाइन करने को कहा गया था। वह आदेश मेरे लिए प्रसन्नता से अधिक एक सदमे की तरह था। जानता था कि कानपुर के मेरे मित्रों और विद्यार्थी दीदियों को मेरा कानपुर छोड़ जाना बहुत बुरा लगेगा, लेकिन अब तीर प्रत्यंचा से छूट चुका था। बस, चार-पाँच दिनों में मुझे दिल्ली के लिए प्रस्थान करना था। मुझे पांचवें दिन का आरक्षण मिला। मैंने कानपुर में कोई गृहस्थी तो जोड़ी नहीं थी, जिसे समेटने में वक़्त लगता, उसे बाँधने में ज्यादा-से-ज्यादा दो दिन लगना था, लेकिन लगता था कि सबकुछ समेट लेने पर भी यहाँ कुछ छूट ही जाएगा। मुझे बच्चनजी की पंक्तियां याद आयीं--
'जाल समेटा करने में भी
समय लगा करता है माँझी!
मोह मछलियों का अब छोड़ !'
लिहाज़ा, मछलियों का मोह छोड़ने को मुझे बाध्य होना पड़ा। कानपुर में बची हुई मेरी पाँच रातें बेचैनी में मुश्किल से बीतीं। निःस्वप्न अर्धतंद्रा में लगता, कोई मुझे झकझोर रहा है, मुझे अपने साथ चलने को कह रहा है। मेरी मुंदी आँखें खुल जातीं, मैं उठकर बैठ जाता और आँखें फ़ाडकर चारो ओर देखता, कमरे में निद्रा-निमग्न शाही के अलावा कोई न होता। मुझे अचरज होता। तो क्या वह चालीस दुकानवाली आत्मा है? अब क्या चाहती है वह मुझसे? उसे कुछ कहना है क्या? मैं विभ्रम में पड़ा रहता और सारी रात करवट बदलने को बची रह जाती। कभी मन होता कि खूँटी से लटकती पोटली उतारकर बोर्ड बिछा लूँ और चालीस दुकानवाली से एक अंतिम संवाद कर ही लूँ, लेकिन बगल में लेटे शाही भाई को देखते ही यह प्रवेग शिथिल पड़ जाता। …

बहरहाल, ये पाँच दिन भी किसी तरह बीत ही गये। पाँचवें दिन, शाम के वक़्त जब अपने कमरे से प्रस्थान की घड़ी आई, मैंने अपने कमरे की दीवारों को बड़ी हसरत से देखा और उस खिड़की को देर तक निहारता रहा, जिसके खुले रहने से आत्माओं से संवाद त्वरित गति से होता था। उसे आत्माओं का प्रवेश-द्वार कहूँ तो ग़लत न होगा। शाही मेरे मनोभाव पढ़ रहे थे, उन्होंने मुझे टोका--'यूँ ही ठिठके रहोगे तो गाड़ी छूट जायेगी।'
मैने कहा--'गाड़ी तो अपने समय से जायेगी,अलबत्ता मैं छूट जाऊँगा।'
शाही बोले--'हाँ, वही तो कह रहा हूँ मैं।'
मैने हँसते हुए उनसे कहा--'तो, विदाई का टीका तो करो न।'
शाही असमंजस में पड़े--'यहाँ कौन-सी अक्षत-रोली धरी है कि टीका करूँ?'
बात ठीक थी। हम दो मित्रों के सामान में न रोली थी, न अक्षत। मैंने ही आगे बढ़कर टमाटर के सॉस की बोतल उठाई और थोड़ी-सी सॉस एक प्लेट में निकालकर शाही के सामने की और कहा--'लो, लाल सॉस से टीका करके विदा करो।'
शाही बोले--'भई, ये क्या तमाशा है? इससे क्या होगा?'
मैंने मुस्कुराते हुए कहा--'इससे यात्रा शुभ होगी।'
मेरी ज़िद पर उन्होंने मेरा और मैंने उनका सॉस-टीका किया, उसके बाद ही कानपुर स्टेशन के लिए हमने प्रस्थान किया। स्टेशन पर लेखा-विभाग के मेरे सभी मित्र और सहकर्मी आये थे। वहाँ बड़ा मजमा लग गया था। मैं मित्रों की भीड़ में घिरा हुआ था और सबों की शुभकामनाएं स्वीकार कर रहा था, तभी प्लॅटफॉर्म पर ट्रेन आ गई। मित्रों ने ही आपसी सहयोग से मेरा सारा सामान मेरी बर्थ के नीचे लगा दिया था। मैं अभी प्लेटफॉर्म पर ही था और मित्रों को विदा-पूर्व का नमस्कार कर रहा था, तभी शाही और ईश्वर मेरी बोगी से उतरे और गले मिले। हम तीनों की आँखें नम थीं।

गाड़ी चलने को हुई तो मैं अपनी बोगी में चढ़ गया और दरवाज़े पर खड़ा होकर अपने हाथ हिलाने लगा, तभी मैंने दूर से भागते चले आ रहे एक सज्जन को देखा। जब वह थोड़ा समीप आये तो मैंने उन्हें पहचाना, वह मजदूर भाई ही थे। अब गाड़ी ने रेंगना शुरू कर दिया था। वह मेरी बोगी के साथ-साथ दौड़ने लगे और बोलते गए--'सर, अभी एक घंटा पहले ही आपके जाने का मुझे पता चला है। मैं भागा-भागा आ रहा हूँ। आपको प्रणाम तो करना ही था।' ट्रेन ने गति पकड़ ली थी, लेकिन मजदूर भाई दौड़ते ही आ रहे थे। मैंने उनसे कहा भी कि 'बस-बस, अब मेरा नमस्कार स्वीकार करें और लौट जाएँ', लेकिन वह निरंतर दौड़ते रहे और जब उन्हें लगा कि ट्रेन उनकी पकड़ से छूट जायेगी, उन्होंने प्लास्टिक का एक पैकेट मेरी ओर बढ़ाया और हाँफते हुए कहा--'इसे रख लें सर ! किरपा करें।' ऐसे विवश क्षणों में उन्होंने पैकेट मेरी ओर बढ़ाया था कि मैं कुछ कह न सका। किसी ज़िरह के लिए अवकाश भी नहीं था, अन्यथा वह प्लेटफॉर्म के अंतिम छोर तक दौड़ते चले आते। मैंने हाथ बढाकर पैकेट उनसे ले लिया और वह पीछे छूटते चले गये। मैं झाँककर उन्हें देखता रह गया--वह अपने दोनों हाथ जोड़े खड़े थे तब तक, जब तक मेरी आँखों से ओझल नहीं हो गये। मैंने अपनी बर्थ पर जाकर देखा, उस पैकेट में वही धोती और वही लिफाफा रखा था, जिसे देने की वह एक बार कोशिश कर चुके थे।

रात्रि का अंधकार गोधूलि के धूसर रंग को अपना ग्रास बनाने लगा था। ट्रेन मुझे दिल्ली ले जा रही थी और मेरा मन मुझे कानपुर की ओर खींच रहा था। भोजनोपरांत जब सोने के लिए लेटा, तो लगा, चालीस दुकानवाली मेरे साथ-साथ सफ़र कर रही है....! समझ गया, आज भी वह चैन से सोने न देगी मुझे....!
(क्रमशः)

शुक्रवार, 11 दिसंबर 2015

मेरी परलोक-चर्चाएँ... (२७)

['बस, मैं तेरा अन्वेषक ही था, जनम-जनम का… ' ]

दिन हांफते-दौड़ते थककर शाम की छाया में जा बैठा। हम दफ़्तर से लौटे--निःशब्द, अपने-अपने पैर घसीटते हुए। शाही ने चाय बनायी, हम दोनों ने पी, लेकिन कोई किसी से कुछ नहीं बोला। वह अजीब उदास शाम थी। क्लब जाने का मन नहीं हुआ। शाही जॉगिंग पर गये। मैं कभी कमरे में, कभी आहाते में अपनी उलझी मनःस्थिति लिए चहलकदमी करता रहा। फिर शाम भी रात के आगोश में सिमटने लगी। कमरे की कुण्डी लगाकर मैं सामने की सड़क पर आ गया। मैं अवचेतन में कहीं एक पुकार सुन रहा था। मंद गति से टहलते हुए पिताजी का एक बहुत पुराना गीत याद आने लगा--
'तुम पुकारो न मुझको अभी इस तरह,
प्राण ! ये अर्चना के सुमन बन रहे !
देह से दूर देही भले ही रहे,
प्यार के तंतु को तोड़ पाता नहीं,
दूर दो तट नदी के सदा हैं मगर,
जल कभी कूल है छोड़ पाता नहीं,
दूर तुमसे इसी भाँति मैं भी सदा,
फूल से गंध लेकिन कहाँ दूर है ?
इस घड़ी तुम निहारो न मुझको अभी
कि प्रत्यंग मेरे विसुध-से नयन बन रहे!
तुम पुकारो न मुझको अभी इस तरह,
प्राण ! ये अर्चना के सुमन बन रहे !'

जाने क्यों, पिताजी के इस पुराने गीत को गुनगुनाने से मन कुछ स्थिर हुआ। मैं वापस अपने कमरे में आया, फिर स्नान की तैयारी करने लगा। गुसलखाने से लौटा तो देखा, शाही आ गए हैं और अपने फुलाये हुए अंकुरित चने का सेवन कर रहे हैं। साढ़े नौ बजे हम मेस में खाना खाने गए और बीस-पच्चीस मिनट में भोजन से निवृत्त होकर कमरे में लौट आये। मेरी घड़ी कलाई पर बँधी थी और मैं बिस्तर पर लेटकर व्यग्रता से बार-बार समय देख रहा था। शाही भी अपनी कॉट पर लेटे थे--चुपचाप, एक पत्रिका में आँखें गड़ाये हुए। उन्होंने कहा-पूछा कुछ नहीं, मैं भी कुछ बोला नहीं। ऐसा लग रहा था कि हम दोनों पहली बार संवादहीनता के शिकार हो गए हैं।
दस बजते देर न लगी। मैंने शय्या त्याग दी और धुले वस्त्र निकालकर पहनने लगा। शाही अब भी निर्लिप्तभावेन लेटे थे। मैंने भैरव घाट के लिए प्रस्थान का समय १०.३० नियत कर रखा था। हाथघड़ी बता रही थी कि साढ़े दस में अभी भी पंद्रह-अठारह मिनट शेष थे।

मेरे मन की गति बहुत चंचल थी--मैं मुख-मुद्रा से संयत, संतुलित और प्रकृतिस्थ दीखने की चेष्टा कर रहा था; लेकिन हृदय में बहुत हलचल थी, जैसे उत्कंठा, व्यग्रता, चिंता और भय का विशाल समुद्र उसमें तरंगित हो रहा हो, जैसे महासमुद्र में मुझे धंसना हो एक बहुमूल्य सीपी की तलाश में, जिसे ज्वार, प्लवन और समुद्र का उबाल मुझसे दूर लिए जा रहा हो।…

आज मुझे किसी के साथ-संग की बहुत आवश्यकता थी, जो मुझसे बातें करता रहे और मैं उसकी वार्ता में ही निमग्न रहूँ तथा भविष्य के तीन-चार घंटों की मुझे सुधि न रहे। लेकिन मेरे परम मित्र शाही निर्मोही बने वहीं लेटे रहे। मैंने भी निश्चय कर लिया था कि अब उनसे कुछ नहीं कहूँगा और साढ़े दस बजते ही निकल चलूँगा।

काल-चक्र खिसकता जा रहा था। समय-सूचक यंत्र ने जैसे ही साढ़े दस बजने की ख़बर दी, मैं उठ खड़ा हुआ। साइकिल की चाबी उठायी, द्वार खोले और बाहर निकलकर साइकिल में लगा ताला खोलने लगा। तभी पीछे से मैंने शाही का स्वर सुना--'भैरव घाट के लिए निकल रहे हो क्या? तुम्हारा वहाँ जाना निश्चित है न?'
मैंने कहा--'हाँ, वहाँ तो मुझे पहुँचना ही होगा।
शाही ने फिर पूछा--'कितने बजे तक लौटोगे?'
मैंने संक्षिप्त उत्तर दिया--'दो-ढाई बज सकते हैं।
दो-तीन मिनट शाही मौन रहे, फिर बोले--'अब एकदम निकल ही पड़े क्या?'
मैंने कहा--'हाँ, साढ़े दस बजे का समय निश्चित किया था मैंने,अब चलता हूँ।'
शाही ने धीमी आवाज़ में कहा--'दो मिनट ठहरो !'
वह कमरे में गए और प्रायः दो मिनट में ही जींस का पैंट डालकर अपनी साइकिल की चाबी के साथ बाहर आये। उन्होंने भी साइकिल का लॉक खोला और बोले--'चलो, मैं भी साथ चलता हूँ।'
मैंने कहा--'मैं जानता था, तुम मेरे साथ चलोगे।'
उन्होंने निर्विकार भाव से कहा--'तुम क्या समझते हो, तुम चले जाते तो मैं चैन से सो जाता? तुम्हारी चिंता में नींद कहाँ आती, मूर्ख?'
उनकी इस अदा पर मैं मुग्ध हुआ।

हम दोनों साइकिल पर साथ चले। सड़क पर सन्नाटा पसरने लगा था। बीस मिनट में ही हम भैरव घाट पर थे। अभी ग्यारह ही तो बजे थे। एक घंटे का वक़्त शेष था। शाही बोले--'चलो, एक-एक सिगरेट हो जाए। क्या पता, आज के बाद तुम्हारे साथ सिगरेट पीना हो, न हो। सोच लो, तुम अब भी अपना विचार बदल सकते हो।'
मैंने दृढ़ स्वर में कहा--'डराओ नहीं यार! मैं तो तुम्हें बहुत बहादुर समझता था और तुम ही भीरु निकले…?
वह हँसने लगे, साथ ही मैं भी। पास की एक चाय-दुकान की बेंच पर साथ-साथ बैठकर हम दोनों कश लगाने और बातें करने लगे। जब साढ़े ग्यारह बज गए, मैंने कहा--'अब जाता हूँ। तुम फिक्र न करना और यहीं बने रहना, मैं एक-डेढ़ घंटे में लौट आऊंगा।'
शाही ने कहा--'अभी तो आधे घंटे का समय है, अभी से वहाँ जाकर क्या करोगे?'
मैंने कहा--'नहीं, अब जाने दो, वहाँ सीढ़ियों पर बैठकर मैं अपने मन को बाँधूंगा, चित्त को स्थिर करूँगा और स्वयं को सबल और प्रकृतिस्थ बनाये रखने का प्रयत्न करूँगा।'
शाही बोले--'ठीक है, जाओ, लेकिन कुछ भी गड़बड़ हो, तो पूरी ताकत से चीखकर आवाज़ लगाना, मैं तुरंत आ जाऊँगा वहाँ।'

मैंने उन्हें आश्वस्त किया और उन सीढ़ियों की ओर बढ़ा, जिसे कई-कई बार धाँग चुका था। सीढ़ियां तो जानी-पहचानी थीं, लेकिन कभी गौर नहीं किया था कि तेरहवीं सीढ़ी के दायें-बायें कोई झड़बेरी का पेड़ है। आज ध्यान से सीढ़ियाँ गिनता हुआ उतरा और यह देखकर चकित हुआ कि ठीक तेरहवीं सीढ़ी का पाट अन्य सीढ़ियों से चौड़ा तो था ही, उसे दायें हाथ झड़बेरी का एक घना वृक्ष भी था। मैंने अपनी जेब से रुमाल निकालकर तेरहवीं सीढ़ी का फ़र्श साफ़ किया और उस पर बैठ गया, इस संकल्प के साथ कि अब तो चालीस दुकानवाली से मिलकर और बातें कर के ही उठूँगा।

हवा निस्पन्द थी, चाँद की ज्योत्सना भी नहीं, बिलकुल स्याह, अँधेरी रात ! मेरे ठीक सामने गंगा की धारा तरंगित थी, जिस पर काली रात ने स्याही पोत दी थी। नीरव शान्ति सर्वत्र फैली हुई थी, जिसे बीच-बीच में भंग कर रही थी स्वानदेव की भूँक और श्मशान की चिताओं की चड़-चड़.…! रात बारह के बाद शव घाट पर नहीं लाये जाते, ऊपर ही रोक लिए जाते हैं सुबह चार बजे तक के लिए। वाराणसी के दशाश्वमेध घाट को छोड़कर सर्वत्र ऐसी ही मान्यता है कि यह समय गंगा के शयन का है। लिहाज़ा, सीढ़ियों पर भी आवागमन नहीं था।

हाथघड़ी पर आँखें गड़ाकर भी समय का ठीक अनुमान नहीं हो रहा था। ऐसी दिव्य और परम शान्ति मैंने जीवन में पहले कभी नहीं सुनी थी। मैं इस शान्ति को ध्यान लगाकर सुनने लगा। निःशब्द को सुनने का यत्न बहुत विस्मयकारी होता है। एकाग्रता एकनिष्ठ हो तो 'शांत' के स्वर सुनाई पड़ने लगते हैं और यदि उसमें रंच मात्र यति-भंग हो, तो श्रवणेंद्रियां शिथिल हो जाती हैं और चित्त में उपजते विचार प्रभावी हो जाते हैं। उस क्षण मेरे साथ यही हुआ और मन पकड़ से छूटकर भटक गया…। शाही और ईश्वर की चेतावनी याद आई और उनकी बात याद करते ही चित्त कई और गलत दिशाओं में दौड़ने लगा। सबसे पहले पिताजी याद आये और मैं सोचने लगा--'अगर सचमुच मुझे कुछ हो गया तो…? कल सुबह मैं यहीं, इसी सीढ़ी पर मृत पाया गया तो…? यह आघात परिवार के लोग कैसे सहेंगे? मेरे मित्र, नाते-रिश्तेदार क्या सोचेंगे मेरे बारे में, जब शाही उन्हें बताएँगे कि एक आत्मा से मिलने मैं यहां आ पहुँचा था और काल का ग्रास बन गया। मुझे अपनी कविता की डायरियों के साथ आत्माओं के विवरणवाली डायरी भी याद आई.… सब उसे मेरे बाद देखेंगे, पढ़ेंगे और यही सोचेंगे कि आत्माओं के पीछे दौड़ते-दौड़ते मैं अपनी हस्ती मिटा बैठा। सोचते-सोचते हृद्कंप होने लगा, अजीब-सी बेचैनी होने लगी। कलेजा मुँह को आ पहुंचा। …

उस अभेद्य अंधकार में, उस निस्तब्ध काली रात में और दुर्निवार विचारों की सघनता में समय का बोध कहीं खो गया और वह क्षण-विशेष, जिसकी मैंने बेसब्र प्रतीक्षा की थी, कब आ धमका, मैंने जाना ही नहीं।
अचानक झड़बेरी के पत्तों और डालियों में जोरदार खड़खड़ाहट हुई, जैसे किसी ने पूरी शक्ति से उस वृक्ष को झकझोर दिया हो। मेरा जी उस स्वर से काँप उठा, दिल बुरी तरह धड़कने लगा। रोंगटे उठ खड़े हुए। अब सीढ़ियों पर जमे रहना असंभव था, मैं उठ खड़ा हुआ। मैंने नज़रें घुमा कर चारों ओर देखा--दूर-दूर तक कोई नहीं था। मैं क्षिप्रता से दायीं तरफ घूमता हुआ पलटा। सीढ़ियों से थोड़ा नीचे झड़बेरी की जड़ें थीं। दायीं और घूमते हुए क्षणांश में मैंने एक काली छाया को देखा। देखा कि वह छाया सीढ़ियों के ऊपर आने का यत्न कर रही है। मेरी अंतरात्मा में ऐसा भय व्याप्त हुआ कि मैं वहीं अपने प्राण छोड़, तीन-तीन सीढ़ियां एकमुश्त लांघता, बेतहाशा भागा। उसके बाद मैंने पीछे पलटकर नहीं देखा, बस भागता ही गया। मुझे अपनी श्वांस-गति पर ध्यान देने का होश ही कहाँ था! एक विचित्र श्वसन-क्रिया का तीव्र स्वर मैंने अवश्य सुना था, किन्तु ज्ञात नहीं था कि वह स्वर मेरी ही नासिका से प्रस्फुटित हो रहा था।…

निमिष काल में मैं घाट के शीर्ष पर था, लेकिन मैं रुका-ठहरा नहीं, दौड़ता हुआ सीधे शाही के समीप पहुँचा। शाही ने दूर से ही मुझे दौड़ते हुए देख लिया था, घबराकर वह उठ खड़े हुए थे। क्षिप्रता से आगे बढ़कर उन्होंने मुझे अपनी बलिष्ठ भुजाओं में भर लिया था और मैं हतचेत होकर उनकी बाँहों में झूल गया था।…

दस-एक मिनट बाद, मैं जल से भीगा अपना चेहरा लिये सचेत हुआ। चाय-दुकान का मालिक, उसके नौकर-चाकर और कुछ ग्राहक मुझे घेरकर खड़े थे। देर तक मैं चुपचाप सिर झुकाये शाही की प्रगल्भ फटकार सुनता रहा। फिर उन्होंने मुझे पानी पिलाया। दुकान के मालिक स्वयं मेरे लिए चाय ले आये और चाय की शीशे की गिलसिया थमाते हुए बोले--'यहाँ तो अच्छे-अच्छे डर जाते हैं साहब! आपको अकेले नीचे जाना ही नहीं चाहिए था।' मेरे पास कुछ बोलने की शक्ति नहीं बची थी। मैं चुप रहा और चाय पीने लगा। शाही सिगरेट ले आये। चाय के बाद हमने सिगरेट सुलगाई और उसे पीने लगे। आसपास जमा लोग धीरे-धीरे खिसक गए।
थोड़ी देर बाद शाही ने पूछा--'अब कैसा लग रहा है?'
मैंने कहा--'हाँ, अब ठीक हूँ।'
उन्होंने कहा--'हो गई न तुम्हारी ज़िद पूरी? चलो, अब हम भी धीरे-धीरे चलते हैं।'

मैं कुछ बोला नहीं। एक पराजित अन्वेषक की तरह उनके साथ चल पड़ा, उस ओर जहां हमारी साइकिल थी।.…
(क्रमशः)

सोमवार, 7 दिसंबर 2015

मेरी परलोक-चर्चाएँ... (२६)

['पांच-पच्चीस का विचित्र चक्र...' ]

अभी-अभी परलोक चर्चाओं की पच्चीसवीं कड़ी समाप्त की है। जब कॉलेज में था, एक विदेशी लेखक के उपन्यास का हिन्दी तर्जुमाँ 'पच्चीसवाँ घण्टा' पढ़ा था। उस घंटा-ध्वनि की गूँज आज तक श्रवण-रंध्रों में गूंजती है कभी-कभी.…! पिछली पच्चीसवीं क़िस्त पर आकर ठहर गया हूँ और न जाने क्यों 'पच्चीसवें घंटे' की याद आ गई है, जबकि दोनों में कोई साम्य नहीं है--न कथा का, न परिवेश का और न ताने-बाने का। पच्चीसवीं क़िस्त पर रुककर याद करता हूँ कि पाँच दिन की प्रतीक्षा मुझे भी असह्य होती जा रही थी। दिन व्यतीत होने का नाम नहीं ले रहे थे और इन्हीं दिनों में स्वदेशी में हलचल बढ़ गयी थी और सौ झमेले अचानक सिर आ पड़े थे। चालीस दुकानवाली ने पांच दिन की मुहलत दी थी और पांच ही मेरी जन्म-तिथि थी। पांच की पांच आवृत्तियाँ पच्चीस का गुणन-फल देती हैं, जिसकी ओर मेरी आयु तेजी से बढ़ रही थी। मेरे हाथ की दसों उँगलियों के शीर्ष को मैंने ध्यान से देखा है--उनमें पाँच चक्र हैं, पाँच पद्म। मेरी पितामही कहती थीं--'दशों चक्र राजा, दशों पद्म योगी।' पाँच चक्र, पाँच पद्म ने मेरे व्यक्तित्व को ऐसा विभक्त किया कि मैं न राजा हुआ, न योगी। मेरा मन तो इसे मान नहीं रहा था, लेकिन मस्तिष्क सोचने लगा था कि इस पांच के अंक का मेरे जीवन में चक्कर क्या है?

दिल्ली में इंडियन एक्सप्रेस के साप्ताहिक पत्र 'प्रजानीति' के प्रधान संपादक की कुर्सी पर बैठे-बैठे पिताजी को जाने क्या हुआ कि उन्होंने, मिली हुई मुहलत के इन्हीं पांच दिनों में, मुझे एसटीडी फ़ोन करके आदेश दिया कि एक आवेदन-पत्र स्वदेशी के स्वत्वाधिकारी और प्रबंध-निदेशक श्रीराजाराम जयपुरियाजी को लिखूँ और उन्हें व्यक्तिगत रूप से दे आऊँ। आवेदन का मजमून यह होगा कि स्वदेशी की नयी दिल्ली शाखा में स्थानांतरण की मैं प्रार्थना करता हूँ। पिताजी के इस फरमान से मैं चकराया, ऐसा आदेश क्यों? मैं तो कानपुर में खुश था, मस्ती के दिन व्यतीत कर रहा था, आखिर ऐसा क्या हुआ? क्या छोटी बहन की तबीयत बिगड़ गई है या अन्य कोई कारण उपस्थित हुआ है, मैंने व्यग्रता से पिताजी से फ़ोन पर ही पूछा, तो उन्होंने कहा--'यहां सब ठीक है, अभी व्यस्त हूँ, जैसा तुमसे कहा है, बस, वैसा करो।'
मैंने कारण जानने का हठ किया तो पिताजी निर्णायक स्वर में बोले--'तुम्हारे कानपुर-प्रवास के दो वर्ष पूरे होने को आये, तुम्हारी अनुपस्थिति से असुविधा तो होती ही है। अब बहुत हुआ यह प्रवास, तुम्हें दिल्ली वापस आ जाना चाहिए।'

मेरे दिमाग में कई प्रश्न अकुला रहे थे--कहीं पिताजी अपना कोई कष्ट छिपा तो नहीं रहे हैं, वह जीवन के पैंसठवें पायदान पर थे और घोर परिश्रम उनकी आदत थी। उनका एक सुभाषित मुझे बहुत प्रिय था--'परिश्रम करना जीवन-यात्रा का आध्यात्मिक नियम है।' और अपने ही कथन का वह अक्षरशः पालन करनेवाले व्यक्ति थे, लेकिन इतना तो मैं भी जानता था कि साठोत्तर जीवन में अत्यधिक परिश्रम संकट का कारण बन सकता था।
--दूसरी बात यह कि किसी ने मेरी पराजीवन में हस्तक्षेप की कारगुज़ारियों का कच्चा चिट्ठा तो उन्हें नहीं लिख भेजा था।
--तीसरी बात जो दिमाग में आती थी, वह कुछ यूँ थी कि पिछले दो वर्षों से मेरे विवाह के लिए मुझ पर दबाव बनाया जा रहा था और मैं लगातार अस्वीकृति की साहसिक मुद्रा में तनकर खड़ा था। उन दिनों ब्राह्मण-कुमारों का पाणिग्रहण संस्कार अधिकाधिक पच्चीस वर्षों का होते, न होते कर ही दिया जाता था। क्या उसी के लिए यह व्यूह-रचना थी?
--चौथी शंका जो मेरे मन में थी, वह यह कि छोटे भाई यशोवर्धन की पढाई अथवा नौकरी से सम्बंधित कोई दौड़ या पटना की यात्रा का कोई कार्यक्रम तो नहीं बन गया था।

प्रश्न कई थे और उत्तर नदारद था। जो भी हो, पिताजी की अवज्ञा तो संभव ही नहीं थी। आदेश हुआ था तो आवेदन देना ही था। मैंने आवेदन-पत्र लिखा, लेकिन उसे जयपुरियाजी को व्यक्तिगत रूप से देने का संयोग नहीं बन रहा था। वह मिल-मजदूरों के असंतोष और लगातार धरना-प्रदर्शन के कारण उन दिनों मिल-ऑफिस में कम ही आते थे। मैंने इस्टैब्लिशमेंट इंचार्ज दत्ताजी को कह रखा था कि जयपुरियाजी जब कभी मिल ऑफिस में आएं, वह मुझे जरूर सूचना दें।
पांच दिनों में से दो दिन तो जयपुरियाजी की प्रतीक्षा में ही बीत गए। तीसरे दिन दत्ताजी का फ़ोन लेखा-विभाग में मेरे लिए आया। मैंने रिसीवर कान से लगाकर जैसे ही 'हेलो' कहा, दत्ताजी बोल पड़े--'ओझा, जल्दी नीचे आओ, साहब आये हैं, लेकिन तुरंत चले जाएंगे।'
मैंने आवेदन-पत्र उठाया और शीघ्रता से नीचे पहुंचा। पांच मिनट की प्रतीक्षा के बाद मैं जयपुरियाजी के सामने था। मेरा आवेदन-पत्र ध्यान से देखकर उन्होंने कहा--'अच्छा, तुम ही ए.वी.ओझा हो?… हाँ, फ़ोन आया था।… देखता हूँ, क्या हो सकता है।'
मैं उनके कक्ष से बाहर आया तो आश्चर्यचकित था। 'हाँ, फ़ोन आया था'--इस वाक्य का अर्थ मेरी समझ से परे था। मेरे घोर आदर्शवादी पिताजी मेरे स्थानांतरण के लिए जयपुरियाजी को फ़ोन करेंगे, यह तो असंभव था। फिर यह मामला क्या था? मन में चिंताओं का आलोड़न चाहे जितना रहा हो, अपना आवेदन-पत्र स्वयं जयपुरियाजी के हाथों में देकर और पिताजी की आज्ञा का पालन करके मुझे चैन मिला था।

अब एक ही दिन मेरी झोली में निधि-सा बचा था। मैं चाहता था, पाँचवें दिन की रात शाही मेरे साथ भैरव घाट तक चलें और घाट के पहले जो चाय-पान की दूकानें हैं, वहीं किसी बेंच पर वह मेरी तब तक प्रतीक्षा करें, जब तक मैं लौट न आऊँ। लेकिन इसके लिए मुझे बड़ी भूमिका बांधनी थी और उनसे ढेर सारी मिन्नतें करनी थीं। मैं जानता था, वह आसानी से इसके लिए तैयार नहीं होंगे। वह सब जानते-समझते हुए मेरे इस कृत्य के प्रबल विरोधी और कठोर आलोचक थे। सोच रहा था कि शाही मेरे आग्रह पर अगर भड़क गए और यदि उन्होंने साफ़-साफ़ इंकार कर दिया तो मैं क्या करूँगा?

मैं अभिन्न मित्र ईश्वर को भी साथ-संग के लिए मना सकता था, साधिकार उन्हें विवश भी कर सकता था, लेकिन एक तो वह हमारे साथ रहते नहीं थे, दूसरे, अलग किराए के क्वार्टर में, तीन किलोमीटर दूर, एक कॉलोनी में उनका आवास था। वह नियमबद्ध जीवन के अभ्यासी थे, साथ चलने को मान भी गए तो वापसी में उन्हें असुविधा होगी। मन उहापोह में पड़ा था। लिहाज़ा, मैंने शाही को ही पहले मनाने का मन बनाया। उनका और मेरा दिन-रात का साथ-संग था, हम दोनों में गहरी समझ और प्रीति थी, लेकिन उस अक्खड़ आदमी के 'मूड-स्विंग' का ठिकाना नहीं था; जाने कब साथ-साथ आग में कूद पड़ने को सहर्ष तैयार हो जाए और अगर दिमाग फिर गया तो सुन्दर बागीचे में भी साथ जाने को बेलाग-लपेट मना कर दे।

चौथे दिन, दफ्तर से लौटकर हम दोनों साथ बैठकर चाय पी रहे थे, जिसका हमें दीर्घकालिक अभ्यास था। मैंने सकुचाते हुए हठात शाही से पूछा--'सुनो, तुमने पिछले दिनों बाबूजी को कोई ख़त लिखा था क्या?'
मेरे 'बाबूजी' कहने का अर्थ वह जानते थे--मेरे पिताजी! उन्होंने आश्चर्य-मिश्रित स्वर में कहा--'नहीं तो, क्यों?
मैंने उन्हें पिताजी के फ़ोन, स्थानांतरण के लिए आवेदन और अपने मन की शंकाओं के बारे में विस्तार से बताया। पूरी बात सुनकर उनके माथे पर बल पड़े, वह तत्काल बोल पड़े--"अरे नहीं, मैंने बाबूजी को कोई 'लेटर' नहीं लिखा है भाई! ऐसा मैं कैसे कर सकता हूँ।"
मैंने कहा--'वही तो… मुझे भी विश्वास था, तुमने ख़त नहीं लिखा होगा।'
शाही ने पूछा--"लेकिन तुमने ऐसा सोचा भी कैसे? और, अगर तुम्हारा सच में 'ट्रांसफर' दिल्ली हो गया तो?"
मैंने शीघ्रता से बात सँभाली--'ट्रांसफर की बात तो बाद की है, जब ऐसा होगा, देखा जाएगा, लेकिन मेरे मन में तुम्हारे पत्र लिखने का ख़याल इसलिए आया, क्योंकि तुम भी तो मेरे पराजगत् के संपर्कों और चालीस दुकानवाली के प्रकरण से परेशान होते रहते हो…!'
--'अरे नहीं, मुझे क्या परेशानी, मैं तो तुम्हारी हित-चिंता में रोकता-टोकता हूँ तुम्हें।'
उनके मुंह से सरलता से मैंने वह वाक्य निकलवा लिया था, जिसकी आशा से मैंने इस वार्तालाप का जाल बुना था।
बातचीत के इसी मोड़ पर मुझे अपना निवेदन शाही के सामने रख देना था, मैंने विलम्ब नहीं किया और तत्काल कहा--'सुनो, कल रात मुझे भैरवघाट जाना है। चालीस दुकानवाली ने मुझे वहाँ मिलने के लिए बुलाया है। मैं चाहता हूँ, तुम भी साथ चलो, घाट के बाहर चाय की दूकान पर रुक जाना, मैं निश्चिन्त रहूँगा और वापसी में तुम्हारा साथ भी हो जाएगा।' मैंने चालीस दुकानवाली आत्मा के सशरीर मिलने की बात भी उन्हें बता दी।
शाही ने गौर से मेरी बात सुनी और गंभीर हो, मौन रहे। मैं चिंता में था कि अब ये भला आदमी जाने क्या कहेगा।
थोड़ी देर की चुप्पी के बाद सचमुच गंभीरता के साथ उन्होंने मुझे समझाना शुरू किया--'देखो, मैं तुम्हारे रास्ते की रुकावट नहीं बनना चाहता, लेकिन जो ठीक समझूँगा, तुमसे वही कहूँगा। तुम घर से दूर हो, अकेले हो, भगवान न करे,अगर कुछ ऊँच-नीच हो गई, तो बुज़ुर्ग बाबूजी और परिवार के अन्य लोग क्या करेंगे? उनका क्या हाल होगा, सोचो। तुम यहां कमरे में बैठकर आत्माओं से जो बातें करते हो, यहां तक तो ठीक है, लेकिन अब ऐसा कुछ मत करो कि संकट में पड़ जाओ। मेरी तो यही सलाह है।'
मैंने कहा--'यार, तुम जानते हो कि चालीस दुकानवाली से मेरी कितनी घनिष्ठता हो गई है, मैं उससे वादा कर चुका हूँ और अब वादा करके भी कल उसके पास नहीं पहुंचूंगा तो उसे बहुत निराशा और पीड़ा होगी।'
अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए शाही के स्वर में खिन्नता आ गई थी--'तुम तो एक हताश-निराश प्रेमी की तरह बोलने लगे। क्या है यह सब?'
मैंने उसे समझाया--'हद हो गई, तुम तो अच्छी तरह जानते हो कि ऐसा कुछ नहीं है। हाँ, यह ठीक है कि उसने मुझे अपनी प्रीति के बंधन में बाँध लिया है, लेकिन मैं अकिंचन उसके लिए कर ही क्या सकता हूँ? उसने बुलाया है तो उससे एक बार मिल लूँ, उसे व्यक्तिगत रूप से सांत्वना दूँ और उसके लोक के रहस्य उससे पूछूँ। इसके अतिरिक्त मेरा उद्देश्य भला क्या हो सकता है ? कम-से-कम तुम तो मेरी बात समझो।'
अब शाही कांटेदार अवधिया भाषा पर उत्तर आये--'पगला गए हो तुम। नादानी मत करो। आत्मा से प्रेम-व्रेम की बात बेमानी है। ऐसी आत्माएँ ही तुम्हारे-जैसों को फाँस लेती हैं और अपने पास बुलाकर देह से प्राण निकाल लेती हैं। अपनी टोली में शामिल करने की उनके पास यही एक राह होती है। ऐसी कई कहानियाँ सुनी हैं मैंने, समझे न!'
मैंने प्रतिवाद किया--'रहने दो, तुम भी जानते हो चालीस दुकानवाली ऐसी आत्मा नहीं है। घंटे-डेढ़ घंटे में मैं उससे मिलकर तुम्हारे पास लौट आऊँगा। चलो न कल रात, तुम साथ होगे तो मेरी हिम्मत बनी रहेगी।'
अब शाही उग्र हो गए, क्रोध में बोले--'तुम्हारी इस ज़िद में मैं तुम्हारा साथ नहीं दूंगा। तुम समझते क्यों नहीं, इसमें बहुत रिस्क है। तुम्हें मरने का इतना ही शौक़ है, तो अकेले जाओ और मरो। अब तक तो बाबूजी को मैंने कुछ नहीं लिखा है, लेकिन अगर इस झमेले में तुम और पड़े तो मुझे चिट्ठी लिखनी पड़ेगी उन्हें।'

मैं समझ गया कि अब उनसे बहस भारी पड़ेगी, मैं मौन हो रहा। मीठी चाय मुझे कड़वी लगने लगी थी।
दूसरे दिन दफ्तर में लंच के समय शाही ने यह मसला ईश्वर की उपस्थिति में फिर उठाया। पहले तो ईश्वर ने भी शाही के सुर-में-सुर मिलाते हुए मुझे समझाने की चेष्टा की, लेकिन थोड़े बहस-मुबाहिसे के बाद मैंने कहा--'भाई, कोई मेरे साथ चले, न चले, मुझे तो आज रात वहाँ जाना ही है और मैं जाऊँगा ज़रूर।'
ईश्वर बोले--'यह क्या बात हुई? वहाँ आधी रात में ऐसी मुलाक़ात के लिए अकेले जाना बिलकुल सेफ नहीं है।' फिर वह शाही की ओर मुखातिब होकर बोले--'ओझा को इस मौके पर तुम अकेला नहीं छोड़ सकते यार!'…
शाही कुछ बोले नहीं, लंच की मेज़ से उठकर चल दिए। जानता था, मेरी ही मंगलकामना में उन्हें यह सब अच्छा नहीं लग रहा था।.…

आज की रात जाने क्या होनेवाला था, मन में अजीब हलचल मची थी और जहाँ तक स्मरण है, उस दिन की तारीख भी पच्चीस (२५) ही थी।…
(क्रमशः)

शुक्रवार, 4 दिसंबर 2015

मेरी परलोक-चर्चाएँ... (२५)

['ज़मीं पर कभी उतरो तो कोई बात बने ...!' ]

अगली वार्ता में मेरी इस जिज्ञासा पर कि तुम्हें कैसे ज्ञात हुआ कि वह मज़दूर अपने गाँव चला गया था और वहीं उसने यथानिश्चय गंगा के किनारे पूजन किया था, चालीस दुकानवाली आत्मा ने मुझसे कहा था--"हमारी गति का तुम्हें अनुमान नहीं है, मन की गति से भी क्षिप्र हैं हम! हम चाहें तो क्षण-भर में समुद्र लांघ जाएँ। तुम्हारे पलक झपकाने भर के अवकाश में विशाल पहाड़ की ऊँचाई नाप लें। उस मज़दूर का गाँव तो मेरे लिए एक हाथ की दूरी पर था। इच्छा मात्र से मैं पहुँच गयी थी वहाँ। वह सारा कृत्य मैंने स्वयं अपनी आँखों से देखा था।'
मैंने कहा--'तुमने स्पष्टतः बताया तो नहीं था, लेकिन मैं जानता हूँ कि पूर्व पीढ़ी की उस आत्मा की मुक्ति की बात तुम्हें पहले से ज्ञात थी। वह कैसे ?'
चालीस दुकानवाली ने कहा--'वह तो बिना प्रयास के ही मुझे पता चल गया था। लम्बे समय से भटकती बद्ध आत्मा जब मुक्त हुई, तो मुक्ति की सहज प्रसन्नता से भरकर, मेरे बहुत थोड़े से सहयोग के लिए, मुझे धन्यवाद देने स्वयं मेरे पास आई थी। अब वह ऊपर के तल पर चली गई है। उसका कष्ट-काल अब समाप्त हुआ समझो। मेरा अनुमान है कि शीघ्र ही उसका पुनर्जन्म होगा।'
चालीस दुकानवाली की बात सुनकर मैं स्तब्ध था। उसका कथन सौ फ़ीसदी सच हो रहा था, लिहाज़ा अविश्वास का कोई कारण भी नहीं था।
मुझे लगता है, ऐसी ही विचलित और सरल मन की आत्माओं को दत्तचित्त साधक, औघड़, साधु-महात्मा साध लेते होंगे और अपने वश में करने के बाद जन-कल्याण के लिए सूचनाएँ प्राप्त करते होंगे, उनसे मनोवांछित काम करवाते होंगे। लेकिन मेरी तो वह राह नहीं थी। मैं चालीस दुकानवाली से प्रेमालाप ही करता रहा और जब कभी कोई प्रसंग मेरे अभिज्ञान में आया तो मैंने सहज भाव से उसकी चर्चा उससे की। चालीस दुकानवाली स्वयं तत्परता से उसके समाधान में जुट जाती थी। वह स्वयं प्रेरित होकर अनुसंधान करती और मसलों का नीर-क्षीर विवेचन कर जाती, समाधान के सूत्र दे जाती थी। संभवतः वह मेरी मदद करने का कोई अवसर चूकना नहीं चाहती थी। मैं अपनी ओर से उसपर न तो कोई दबाव डालता, न कभी कोई आदेश देता था। शायद इसी कारण उसकी मुझपर अतिरिक्त कृपा थी, अटूट विश्वास था। मैंने उसकी सहायता से कई लोगों की छोटी-बड़ी उलझनें सुलझाई थीं, जिसका सारा श्रेय उसी को जाना चाहिए था, लेकिन मिलता मुझे था। उससे बढ़ती निकटता और प्रीति से मेरा साहस भी बढ़ता जा रहा था। मुझसे बातें करते हुए वह बहुत प्रसन्नचित्त हो जाती थी, उसकी पाँखें खुल जाती थीं। चहकती रहती थी वह! परलोक की जाने कितनी-कितनी बातें वह मुझसे किया करती थी, जिनमें से बहुत-सी बातों का तो अब मुझे स्मरण भी नहीं है। उससे हुई बातों से मेरी डायरी भरती जा रही थी, जिसे मैं तिथिवार लिखा करता था।
एक दिन वह 'प्रेम' पर मुझे फिर ज्ञान देने लगी थी और बीच-बीच में अपने-मेरे निश्छल प्रेम का उदाहरण भी देती जाती थी। मैंने हस्तक्षेप करते हुए उसे बीच में ही रोक दिया और पूछा--"तुम बार-बार मेरे-अपने प्रेम की बात उद्धरण के रूप में प्रकट कर रही हो, लेकिन मैं ऐसे वायवीय प्रेम का क्या करूँ, जिसमें तुम्हारी पहचान महज़ 'चालीस दुकान की आत्मा' है? कभी तुम मुझसे सशरीर मिलो, बातें करो, तो मुझे तुम्हारी पहचान मिले। मैं तुम्हें जानूँ, पहचान सकूँ!' अपनी ही त्वरा में मैंने उसे अपना एक शेर सुना दिया, जो उसे ही लक्ष्य कर मैंने लिखा था--
'हवा के इक क़तरे से मोहब्बत कौन करे,
तुम ज़मीं पर कभी उतरो तो कोई बात बने।'
उत्तर देते हुए उसके स्वर में बेबसी थी--'सशरीर उपस्थित होना तो मेरे वश में नहीं, शरीर त्यागकर ही तो आत्म-स्वरूप में यहाँ आई हूँ, लेकिन तुम्हारी ज़िद है तो सिर्फ तुम्हारे लिए मैं किसी देह की छाया लेकर तुमसे मिल सकती हूँ, लेकिन ज़रूरी नहीं कि उस देह की शक्ल-सूरत हू-ब-हू मेरे जैसी हो ! बोलो, मंज़ूर है?'
मैंने कहा--'शक्ल-सूरत, बोली-वाणी ही तुम्हारी न होगी, तो तुम्हारी सच्ची पहचान मुझे भला कैसे होगी?
उसने थोड़े क्षोभ के साथ कहा--'आखिर तुम भी जगत के ही प्राणी निकले न, देह से आगे बढ़ नहीं पाते, शरीर से इतर कुछ सोच नहीं पाते। शरीर तो नाशवान है, उसके लिए आग्रह कैसा? हाड़-मांस के जिस पिंजर को मैं त्याग आई हूँ, उसे फिर धारण करना तो असंभव है।'
मैंने नाखुशी का इज़हार करते हुए कहा--'ये भी कोई बात हुई? तुम किसी और महिला के शरीर में प्रविष्ट होकर मुझसे मिलो, बातें करो और फिर चली जाओ। अगली बार फिर कभी मिलो तो तुम किसी अन्य महिला के रूप में मेरे सामने आओ, यह बार-बार के रूप-परिवर्तन में तुम्हारी पहचान कहाँ है? यह तो बड़ी दुविधा की स्थिति है मेरे लिए!'
उसने शांत स्वर में कहा--'तुम्हारा हठ ठीक वैसा ही है, जैसा तुम्हारे जगत के हर जीव का मृत्यु का वरण न करने का हठ! कोई भी जीव मृत्युकामी नहीं होता,लेकिन मृत्यु तो अवश्यम्भावी है। आज तुम जिन लोगों के बीच हो, जिनसे तुम्हारा संपर्क-सम्बन्ध है, जिनकी तुम्हें पूरी पहचान है, उनमें से सभी, न जाने कितनी-कितनी बार, अपने शरीर के साथ रूप-रंग, शक्ल-सूरत बदल आये हैं, इसका तुम्हें ज्ञान है क्या? रही मेरी पहचान की बात, तो मेरी आवाज़ और बातचीत का तौर-तरीका हमेशा समान ही होगा न। तुम उनसे मेरी शिनाख्त नहीं कर सकोगे क्या?' महत्त्व शरीर का नहीं, उसमें प्रतिष्ठित आत्मा का है। मैं समझ नहीं पाती कि तुम शरीर, शक्ल-सूरत को इतना महत्व क्यों दे रहे हो? क्या तुम मेरा आत्म-साक्षात्कार करके आनंद का अनुभव नहीं करोगे?'
मेरे सारे तर्क फिसड्डी साबित हो रहे थे और मैं निरुत्तर हुआ जाता था। मैंने हारकर कहा--'हाँ, क्यों नहीं; लेकिन मैं तो बस इतना चाहता था कि तुम मिलो, तो मेरी नज़र में तुम्हारी एक पहचान बने और वह बदलती न रहे।'
अब नाराज़ होने की उसकी बारी थी। वह आजिज़ी से बोली--'उफ़, तुम तो हद करते हो। परिवर्तन तो सतत प्रक्रिया है, अपरिवर्तनशील और शाश्वत तो सिर्फ़ आत्मा है। जो अपरिवर्तनीय है, तुम उससे उसकी पहचान माँग रहे हो और जो प्रत्येक जन्म में बदल जानेवाला है, क्षणभंगुर है, उसी से चिपके रहना चाहते हो। तो ऐसा करो, तुम पहले मेरी पहचान सुनिश्चित कर लो, फिर मिलते हैं।'
मैं समझ गया कि वह नाराज़ हो गयी है। ऐसा लगा कि वह मुझसे मुँह फेरकर बैठ गयी है; क्योंकि मैं प्रश्न करता गया और वह खामोश रही। प्लेनचेट का ग्लास देर तक जड़वत् स्थिर रहा, लेकिन मैं खूब जानता था, वह वहीं है, मेरा साथ छोड़ नहीं गयी अभी।…
चालीस दुकानवाली देवी से मेरा यह विवाद लम्बा चला था, लेकिन अंततः मुझे प्रतीत हुआ कि वह अकारण विवाद नहीं कर रही, बल्कि सचमुच विवश थी। मूल रूप में प्रकट होना उसके लिए संभव ही नहीं था। लिहाज़ा, मैंने अपना हठ छोड़ा और उसकी शर्तों पर उससे मिलने की स्वीकृति मैंने दे दी। मेरी स्वीकृति का वाक्य सुनते ही अपनी प्रसन्नता व्यक्त करने को वह मचल पड़ी, बोली--'बोलो, कब मिलना चाहोगे?'
मैंने कहा--'जब तुम कहो, जहां तुम चाहो, मैं वहीं आ जाता हूँ तुमसे मिलने।'
वह गंभीरता से कहने लगी--'इस मुलाक़ात का प्रबंध करने में मुझे थोड़ा वक़्त लगेगा। हम ऐसा क्यों न करें कि एक सप्ताह बाद किसी दिन मिलने की योजना बनायें, तब तक मैं सारा प्रबंध कर लूंगी और तुम्हें स्थान, दिन और निश्चित समय--सब बता दूँगी।'
मुझे उसकी बात माननी पड़ी।
दो दिन बाद के संपर्क में चालीस दुकानवाली आत्मा ने मुझसे कहा था--'हम पांच दिन बाद अमुक तारीख को रात बारह बजते ही मिलेंगे। तुम भैरव घाट की तेरह सीढ़ियां उतरना। तेरहवीं सीढ़ी का पाट अपेक्षाकृत चौड़ा है, तुम वहीं बैठकर मेरी प्रतीक्षा करना। गंगा की धारा की तरफ तुम्हारा मुंह होगा, तो तुम्हें अपने दायें हाथ झरबेरी का एक वृक्ष मिलेगा। मैं उसी वृक्ष की पतली टहनियाँ पकड़कर उतरूँगी--ठीक बारह बजते ही। देखो, तुम अकेले ही आना, तुम्हारे साथ कोई और हुआ, तो मेरी उपस्थिति असंभव हो जायेगी। निश्चित समय का ध्यान रखना, समझे न?'
मैंने उसे आश्वस्त किया और पूछा--'तुम तो चालीस दुकान से आती हो, फिर मुझे इतनी दूर भैरवघाट पर क्यों बुला रही हो, जबकि चालीस दुकान मेरे क्वार्टर के बहुत निकट है? क्या तुम चालीस दुकान के आसपास नहीं मिल सकतीं?'
वह 'ही-ही' करके हंस पड़ी और बोली--'तुम कितने भोले हो, अरे चालीस दुकान में मेरी ससुराल थी, लेकिन अब विदेह होकर तो मैं भैरवघाट में रहती-भटकती हूँ न, इसीलिए तुम्हें वहाँ बुला रही हूँ। और हाँ, अब पांच दिनों तक तुमसे बात न हो सकेंगी। मिलने पर हम बहुत सारी बातें करेंगे, ठीक है न? अब मुझे जाने दो। '
यह पहला अवसर था, जब चालीस दुकानवाली आत्मा ने स्वयं जाने की इच्छा व्यक्त की थी, अन्यथा मुझे ही मनुहार करके, प्रेरित करके अथवा हठपूर्वक हमेशा उसे भेजना पड़ा था। सुबह होने के पहले वह कभी जाना ही नहीं चाहती थी। बहरहाल, बातें स्पष्ट हो गई थीं और मिलने की योजना, समय, स्थान सब नियत हो गया था। अब चालीस दुकानवाली अपने प्रबंधन में व्यस्त होनेवाली थी और मुझे अपने सम्पूर्ण साहस को संचित करना था, अपने पौरुष के बल को समेटना था, अपने देव-पितर के पुण्य का स्मरण करना था और परम प्रभु का नमन करके इस मिलन के लिए स्वयं को तैयार करना था। जितनी सहजता से मैंने इस मुलाक़ात की स्वीकृति दी थी, उतनी आसान वह मुलाक़ात थी नहीं।...
(क्रमशः)