सोमवार, 23 नवंबर 2015

मेरी परलोक-चर्चाएँ... (२१)

[अजब था हाल दिल का, गज़ब थी दोस्ती उसकी... ]

सन १९७० में आचार्य रजनीश पटना पधारे थे। तब तक वे आचार्य ही थे, 'भगवान्' या 'ओशो' नहीं हुए थे। उन दिनों आकाशवाणी, पटना के हिंदी प्रोड्यूसर पिताजी थे। उन्होंने हिन्दी वार्ता विभाग के लिए आचार्य के 'मुक्त-चिंतनों' का ध्वन्यांकन किया था और घर आकर उनकी वक्तृता की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। तभी पता चला कि पटना के लेडी इंस्टीफिंसन हॉल में तीन दिनों तक शाम के वक़्त आचार्यश्री के भाषण होंगे। मैंने अपने अभिन्न मित्र कुमार दिनेशजी के साथ घर से ८ किलोमीटर दूर जाकर तीनों दिन उनके भाषण सुने थे। आचार्य समय-सिद्ध वक्ता थे। बिना घड़ी देखे ठीक एक घंटे का सम्भाषण करते थे और अपने कथन की प्रस्तावना में वह छोटी-छोटी कहानियाँ सुनाते थे। सरस्वती की उन पर बड़ी कृपा थी। वह धाराप्रवाह बोलते थे, किञ्चित नःस्वर के साथ। उनके तर्क अकाट्य थे--अनेक प्रमाणों से पुष्ट और लघु कथाओं से सिद्ध। तीन दिनों में उन्होंने कई छोटी-छोटी कथाएँ सुनाई थीं, उनमें से कई जीवन भर के लिए स्मृति में ठहर-सी गयी हैं। उन कथाओं का प्रभाव भी मेरे आचार-विचार और व्यवहार पर पड़ा था। उनकी एक कथा इस प्रकार थी--
"एक व्यक्ति तीव्र गति से एक गलियारे में चला जा रहा था। गलियारे के दोनों ओर कमरे बने हुए थे, जिनके द्वार बंद थे। वह सभी दरवाज़ों पर दृष्टि डालता शीघ्रता से बढ़ा जा रहा था। तभी एक द्वार पर दृष्टि पड़ते ही वह ठिठक गया। दरवाज़े के बाहर लिखा हुआ था--'अंदर आना मना है!' यह पढ़ते ही उस व्यक्ति के मन में पहली प्रतिक्रिया हुई कि 'अंदर जाना वर्जित क्यों है? क्या है वहाँ?' और दूसरी यह कि 'अब तो अंदर देखकर जानना ही होगा कि अंदर प्रवेश की मनाही क्यों है।' मैं आपसे यही कहना चाहता हूँ कि जहाँ वर्जना है, वहीं विद्रोह है। वर्जना विद्रोह की जननी है। वर्जना अवज्ञा की उत्प्रेरिका है।.…" इन पंक्तिओं बाद आचार्यजी अपना सम्भाषण मूल कथ्य की ओर ले चले…!
पिताजी-प्रभाकरजी की वर्जना, अमित भइया की चेतावनी और मित्रवर शाही की निरंतर रोक-टोक मुझे परा-जगत में विचरण से जितना दूर रहने को प्रेरित कर रही थी, मन उतनी ही तीव्रता से उधर खिंचा जाता था।..... मेरी कुण्डली और मनोरचना में भी संभवतः ऐसे कुछ तत्व अवश्य रहे होंगे कि सीधी राह से हटकर वक्र चलना ही मुझे अच्छा लगता था। अतिरिक्त यह कि आचार्यश्री की इन लघु-कथाओं का प्रभाव मेरी वक्र चाल की संपुष्टि भी कर रहा था।
एक-डेढ़ महीने के लम्बे विश्राम के बाद एक रात जब सोने के लिए शय्या पर लेटा तो कुछ अजीब-सा हाल मन का होने लगा। जैसे दिल में कोई ऐंठन-सी हो रही हो, कोई बेचैनी, कोई तड़प मुझे पुकार रही हो, कुछ बोझ-सा महसूस होने लगा था। विचित्र मनःदशा थी। शाही तो सुखी प्राणी थे, लेटते ही सो जाते थे। मैं लेटकर पहले पढता था, फिर कुछ विचार उपजे तो लिखने बैठ जाता था--गद्य में अथवा पद्य में। मैंने निद्रा-देवी के आवाहन के लिए पत्रिका उठाई, तो उसमें भी मन न रमा। कुछ लिखने की भी बिलकुल इच्छा नहीं थी। फिर आँखें मूँदकर आपदाओं को हरनेवाले प्रभु श्रीराम की वंदना का एक मंत्र (पिताजी से सुना हुआ--कंठाग्र मंत्र) जपने लगा। लेकिन, उस रात तो किसी विधि चैन ही न आता था।

अंततः सारी वर्जनाओं की अवज्ञा और चेतावनियों की अनदेखी कर मैंने पलेन्चेट का बोर्ड बिछा ही लिया, उस पर पड़ी धूल झाड़ी, अगरबत्ती जलाई और ध्यान-योग के लिए तत्पर हुआ। अभी किसी को पुकारने की सोच ही रहा था कि एक आत्मा बिना बुलाये ही आ पहुँची। वह कोई और नहीं, चालीस दुकानवाली आत्मा थी। वह आते ही आँधी-तूफ़ान-सी मुझ पर बरस पड़ी। 'आप-आप' की मर्यादाएं उसने तोड़ दीं और 'तुम-ताम' पर उतर आई। मुझे उसका यह परिवर्तित आचार प्रिय नहीं लगा। मैंने कहा--'आप यह किस तरह मुझसे बात कर रही हैं?'
वह तो आपे से बाहर थी, तैश में बोली--'अरे छोडो, मैं कब से तुम्हारी प्रतीक्षा में भटक रही हूँ और तुम हो कि मुझसे बात करने की कोई सुध ही नहीं है तुम्हें। ये आप-आप छोड़े, अब तो ऐसे ही बात होगी तुमसे!'
मैंने अपने ऊपर संयम रखते हुए शांत भाव से उससे पूछा--'आखिर हुआ क्या है ? बताओ तो सही, आ तो गया हूँ तुमसे बात करने।' मैं भी पुरानी पटरी से 'तुम' पर उतर आया था।
वह थोड़ी नरम पड़ी। उससे यह जानकार मैं आश्चर्य से अवाक रह गया कि पिछले डेढ़ महीने से वह लगातार मेरे पीछे लगी रही है। मैं जब दिल्ली गया था, तब वह भी मेरा पीछा करती वहाँ तक गई थी। मेरे परिवार के हर व्यक्ति के बारे में वह जानती है, इस विस्मय-बोध से मैं किंचित आक्रान्त हुआ। मैंने उससे कहा--'मुझसे बातें करने को तुम इतनी व्यग्र हो, यह मैं कैसे जान सकता था भला?'

क्रमशः उसका क्रोध शांत हो रहा था। वह बेबसी से बोली--'और मैं क्या कर सकती थी, तुम्हें जगाने के मेरे पास क्या साधन थे? आज मैंने भी ठान लिया था कि तुम्हें इतना बेचैन कर दूँगी कि मुझसे बात करने को विवश हो जाओगे तुम!'
मैंने कहा--'अच्छा, तो वह तुम्हीं थीं, जो मुझे परेशान कर रही थीं। लेकिन इस तरह व्यग्र होना और मुझे परेशान करना तो ठीक नहीं है। अब बता भी दो, तुम्हारी व्यग्रता का कारण क्या है?'
लेकिन उसे कारण कुछ बताना नहीं था, सिर्फ मुझसे बातें करनी थी। और, बातें भी क्या? अनर्गल, बे-सिर-पैर की। मैंने कारण जानने की ज़िद की तो वह बोल पड़ी--'तुमसे बात किये बिना मुझे चैन नहीं पड़ता, मैं उद्विग्न रहती हूँ। तुम्हें क्या मालूम, पिछले डेढ़ महीने मैंने किस बेकली से बिताये हैं।'
मैंने कहा--'और वह जो तुम मुझसे मदद मांगती रही हो, वह क्या है ! मैं किस तरह तुम्हारी मदद कर सकता हूँ? जिस रूप में चाहो, तुम्हारी सहायता के लिए मैं तैयार हूँ। तुम्हारी कुछ सहायता कर सकूँगा, तो संभव है, तुम्हारे मन को थोड़ी शान्ति मिले, लेकिन वही करने को कहना जो कर पाना मेरे लिए संभव हो। तुम बताओ तो सही!'
--'हाँ, हाँ, समय आने दो, वह भी बताऊँगी। अभी तो तुम मुझसे वादा करो कि सप्ताह में तीन दिन मुझसे जरूर बातें करोगे, भूलोगे नहीं।'
मैंने कहा--'मुझे इस तरह बंधन में न बाँधो। रोज़ कोई-न-कोई व्यस्तता रहती है। चलो, सप्ताह में एक बार बात ज़रूर करूँगा तुमसे, वादा रहा।'
वह इठलाकर बोली--'इतने से काम नहीं चलेगा। मुझे तो बहुत-सी बातें करनी हैं तुमसे। बहुत सारी बातें! वादा करो, सप्ताह में तीन दिन।'
ऐसी ही अनावश्यक बातें करते हुए रात के दो बज गए थे और चालीस दुकानवाली देवी न जाना चाहती थीं और न उल्लेखनीय कुछ कहना। उसका प्रलाप सुनते-सुनते मुझे उजलत होने लगी थी। जैसे ही मैं उससे लौट जाने को कहता, वह बोल पड़ती--'पहले वादा करो।' अंततः मुझे हार माननी पड़ी और वादा करना ही पड़ा कि प्रति सप्ताह तीन बार उससे बात करूँगा।
चालीस दुकानवाली आत्मा का मुझमें इतनी रुचि लेना मुझे असहज भी लग रहा था और प्रीतिकर भी। लेकिन, मैंने अपना वादा मुस्तैदी से निभाया। डेढ़-दो महीनों तक उससे लगातार वार्तालाप होता रहा। अब उसे बुलाने-पुकारने की ज़हमत भी नहीं उठानी पड़ती थी। बोर्ड बिछा नहीं कि वह मेरे ग्लास में आ बैठती। मुझे ऐसा लगने लगा था कि वह मेरे कमरे की हवाओं में ही तैरती रहती थी कहीं और बोर्ड बिछने की तत्परता से प्रतीक्षा करती थी। अब वह मेरी अच्छी मित्र बन गई थी। कई मसलों में उसने मेरी सहायता भी की थी। परा-जगत से संयोग और सूत्र भी मेरे लिए ढूँढ़ लाती थी। कतिपय समस्याओं का समाधान तुरत बता देती, मेरे सामने दूसरों के राज़ फ़ाश कर देती और मैं चकित रह जाता। आज सच कहूँ तो मेरे जोड़ीदार शाही भाई के ही कुछ पोशीदा मामले उसने मेरे सामने उजागर कर दिए थे और जब चालीस दुकानवाली का उल्लेख किये बिना मैंने उन मसलहों पर शाही को धर दबोचा, तो अंततः उन्हें उसकी सत्यता स्वीकार करनी पड़ी थी।
हम दोनों मित्रता के प्रगाढ़ बंधन में बंध गए थे, लेकिन अजब थी यह मित्रता भी और गजब थे इसके उलझे हुए तंतु भी--कठोर भी, कोमल भी।.…
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं: