बुधवार, 11 नवंबर 2015

मेरी परलोक-चर्चाएँ... (१७)

[रहीं सालती मन की गाँठें... ]

कानपुर लौटकर जीवन सामन्य गति से चल पड़ा था। बैचलर क्वार्टर की गतिविधि भी सामान्य थी, किन्तु असामान्य कुछ प्रतीत होता था, तो वह था लक्ष्मीनारायण ओज़ाजी का व्यवहार। जब से लौटा था, मैं लक्ष्य कर रहा था कि वह मुझसे ही बचकर निकलने लगे थे। अब तक तो मैं ही उनसे कन्नी काट जाता था, अब वह काटने लगे थे। यह मुझे विचित्र-सा लगता। वह मुझसे बचकर निकल जाते, सम्यक् दूरी बनाकर रहते, बातें करते तो जल्दी-से-जल्दी खिसक जाने की फ़िराक़ में रहते। मुझे आश्चर्य हुआ तो एक दिन मैंने शाही से पूछा--'देखता हूँ कि ओज़ाजी आजकल मेरा कुछ ज्यादा ही लिहाज़ करने लगे हैं; समझ में नहीं आता कि ऐसा परिवर्तन उनके आचरण में क्यों आया ?' शाही ने मुस्कुराकर कहा--'तुम जब दिल्ली में थे, उन दिनों तुम्हारे भूत-प्रेत के खूब चर्चे हुए थे। तभी से ये दानव डरा हुआ रहता है। वह तो हमारे कमरे से भी दूर-दूर रहता है भाई।' हम दोनों ने ज़ोरदार ठहाका लगाया। हँसी थमी तो मैंने शाही से कहा--'चलो, मेरी प्रेत-चर्चा से इतना लाभ तो हुआ।'....

१९७६ की शरीर-सौष्ठव की प्रतियोगिता में शाही ने सभी प्रतियोगियों को परास्त करके 'मिस्टर स्वदेशी' की उपाधि प्राप्त की थी। परास्त होनेवालों में लक्ष्मीनारायण ओज़ाजी भी थे, जो हर साल यह तगमा अपने गले में धारण कर गौरव-स्फीत रहते थे। इस पराजय से वह गहरी निराशा में डूब गए थे। वो कहा है न--'सब दिन होत न एक समाना.... !' अब उन्हें मुझसे भयभीत भी रहना था और अपनी पराजय से दुखी भी। लेकिन शाही बड़े दिलवाले थे, उन्होंने लक्ष्मीनारायणजी को जल्द ही सांत्वना-पुरस्कार दिया। उन्होंने लॉबिंग करके उन्हें मेस का प्रबंधक नियुक्त करवा दिया, जिसमें मैंने भी पूरा सहयोग किया था। इसके बाद तो वह अपनी टोली के साथ हम दोनों से भी मित्रवत जुड़ गए, लेकिन एक बात अटल रही कि उन्हें मुझसे बचकर रहना है।

एक और नवीनता देख रहा था। अब शाही हर शाम कहीं बाहर का कार्यक्रम बनाने लगे थे--ज्यादातर आर्य नगर का। वहाँ उनके कुछ पुराने मित्र भी थे। शाम के वक़्त मैं और शाही अपनी-अपनी साइकिल से आर्य नगर चले जाते, वहीं मित्रों के साथ मटरगश्तियाँ करते, चाय पीते, धुँए उड़ाते और देर रात क्वार्टर लौट आते। कई बार हम सीधे शाही के बड़े पापा (जिन्हें सभी 'दादा' कहते थे) के घर पहुँचते और वहीं शाम की चाय पीते। दादा गंभीर, शांत और पुस्तक-प्रेमी थे। हमेशा किसी पुस्तक में डूबे मिलते। शाही की बड़ी माँ नेपाल के राजघराने से किसी रूप में सम्बद्ध थीं--अनिंद्य सुंदरी! जीवन के चौथेपन में भी उनके चहरे पर गजब का तेज था, विचित्र आकर्षण था! वृद्धावस्था में वैसी सुंदरता मैंने कम ही देखी है। वह बहुत मीठा बोलतीं और न जाने क्यों मुझे बहुत मानतीं, खूब बातें करतीं। शाही की छोटी बहन (ममता) मुझे भी बड़े भाई का मान देती। वहाँ पहुँचकर मुझे लगता, मैं भी उसी घर का एक सदस्य हूँ।

ममता बहुत सुन्दर आयल पेंटिंग करती थी। एक बार उसने यक्षिणी की एक सुदर्शन कलाकृति मुझे भेंट-स्वरूप दी थी। वह आकार में मेरे प्लैनेचेट बोर्ड से छोटी थी और मेरे कंधे के झोले में समा जाती थी। उसका भी पृष्ठभाग बहुत चिकना था। कालान्तर में मैंने उस कलाकृति के पृष्ठभाग को भी प्लैनेचेट बोर्ड-सा बना लिया था। परा-संपर्क के लिए कहीं बाहर जाना होता तो वही बोर्ड साथ ले जाता। वह बोर्ड मेरे पास बहुत लम्बे समय तक रहा, लगभग २५-२८ वर्षों तक--ड्राइंग रूम से सजा हुआ और ममता की याद दिलाता हुआ। लेकिन वह तो बहुत बाद की कथा है।

कुछ दिनों बाद मुझे यह ज्ञान हुआ कि संध्या-समय शाही के क्वार्टर से दूर रहने की एक वज़ह यह थी कि वह इरादतन मुझे परा-जगत-प्रवेश से विरत रखना चाहते थे। लेकिन उन्हें क्या पता था कि वह जहाँ मुझे ले जाते हैं, वहीं मुझे नए सूत्र मिल जायेंगे एक नव्य प्रयोग के।

आर्यनगर के तिराहे पर शाही के अधिक नहीं, तो तीन-चार मित्र तो थे ही। जब भी वह मेरे साथ वहाँ जाते, उनकी मित्र-मण्डली आ जुटती और आर्यनगर के एक छोर से दूसरे छोर तक हम निरुद्देश्य भटकते, गप करते, हँसते-हँसाते। कभी कहीं एक गोला बनाकर बैठ जाते और मैं अपने उन असाहित्यिक मित्रों को बलात् अपनी कविताएँ सुनाता। शाही चिकोटी काटते--'अब यह अपनी चिरकुट कविताएँ सुनाएगा।' कभी किसी ढाबे पर, किसी चायघर में, कॉफ़ी हाउस में हमारी टोली विराजती और चार कप चाय में एक-डेढ़ घण्टे तक वहाँ की कुर्सियां खाली न होतीं। उस उम्र के युवाओं में ये सनक जाने क्यों होती है! आज उन मटरगश्तियों की बात सोचता हूँ तो वह निरुद्देश्य सड़कें नापना और वह अर्थहीन टहल बकवास लगती है--समय का अपव्यय। लेकिन उन दिनों उसी में बड़ा आनन्द आता था।

हमारी आर्यनगर वाली टोली में एक मित्र थे शैलेन्द्र कौशिक (छद्म नाम), वह ज़्यादातर ग़मगीन बने रहते। जिन बातों पर पूरी मण्डली ठहाके लगाती, उस पर भी फीकी हँसी हँसते और अधिकतर चुपचाप रहते। उनकी गंभीरता और चुप्पी मुझे अखरती। मैं सोचता, यह भला आदमी इस तरह अनमना क्यों रहता है? मित्रों के बीच ही मैंने उनसे कई बार इसका सबब पूछा भी था, लेकिन वह कोई टालू उत्तर देकर चुप हो जाते। वह शाही या ईश्वर-जैसे मेरे घनिष्ठ मित्र तो थे नहीं कि साधिकार उन पर दबाव डालकर कुछ पूछता, लिहाज़ा मैं भी चुप्पी लगा जाता।

जब तक मैं दिल्ली-प्रवास से लौटकर आया, तब तक शाही पिछले घटना-क्रम की चर्चा इन मित्रों के बीच कर चुके थे। मैंने शाही से ही सुना था कि इस कथा में अत्यधिक रुचि अत्यल्पभाषी शैलेन्द्र ने ली थी और जिज्ञासा करके सारी बातें पूछी-सुनी थीं। शाही से यह जानकार मुझे थोड़ा आश्चर्य भी हुआ था।

दिल्ली से आये मुझे २०-२२ दिन हो चुके थे। एक दिन आर्यनगर पहुंचकर शाही मुझे तिराहे पर रुकने को कहकर दोनों साइकिलें रखने बड़े पापा के घर गए। तिराहे की एक राह पर थोड़ा अंदर जाकर उनका घर था। तिराहे पर मैं खड़ा था कि शैलेन्द्र मिल गए। उनसे मेरी बातें होने लगीं ।
मैंने उनसे कहा--'सुना कि तुमने 'मिल गेट वाले प्रसंग' में बहुत रूचि ली।'
वह बोले--'हाँ, मुझे तो बहुत आश्चर्यजनक लगा। क्या सचमुच ऐसा हुआ था या शाही उसे बढ़ा-चढ़ाकर सुना रहा था?'
मैंने कथा की सच्चाई के पक्ष में अपनी बात रखी। उन्हें जैसे विश्वास नहीं हो रहा था। वह कुछ कह ही रहे थे कि शाही आ पहुंचे। हम तीनों में यही चर्चा होती रही। अचानक शैलेन्द्र ने पूछा--'क्या प्लैनेचेट से मेरी किसी समस्या का भी समाधान हो सकता है?'
शाही बोले--'तेरी क्या समस्या है? तू तो खुद ही एक समस्या है।'
शैलेन्द्र फिर शांत हो गए। मैंने गौर किया, पीड़ा की एक लहर उनकी शक्ल पर आयी और गुज़र गई। उनकी चेतना ने फिर मौन में समाधि ली। लेकिन, मैं समझ गया कि उनके जीवन में कहीं कुछ उलझा हुआ-सा रह गया है। उस समय तो मैंने उन्हें नहीं कुरेदा, क्योंकि अन्य मित्र भी आ जुटे थे। लेकिन शीघ्र ही मुझे उनके मन की टोह लेने का सुअवसर मिल गया था।

साप्ताहिक अवकाश में किसी शनिवार की शाम मैं श्रीदीदी-मधु दीदी के घर गया था। शनिवार की रात और रविवार का पूरा दिन वहाँ बिताकर सायंकाल में मैं शाही से मिलने आर्यनगर आया। घर से पता चला कि शाही तो कहीं निकले हुए हैं। मैं आर्यनगर के अपने तमाम अड्डों के चक्कर लगाता फिरा, कोई कहीं नहीं मिला। वह मोबाइल-युग तो था नहीं कि एक क्षण में जान लूँ कि मित्र-मंडल कहाँ विराज रहा है। उस ज़माने में घर से निकला हुआ, सड़क पर चलता-फिरता आदमी पकड़ से बाहर होता था। मैं निराश होकर लौटने का मन बना ही रहा था कि शैलेन्द्र बीच सड़क पर मिल गए। उन्हें भी ज्ञात नहीं था कि शाही तथा अन्य मित्र कहाँ हैं। फिर तो हम दोनों की ही जोड़ी जमी। टहलते और बातें करते हम दूर एक उद्यान में जा बैठे। बातों के बीच मैंने उनसे सीधा सवाल किया--'उस दिन तुम कुछ कहते हुए चुप हो गए थे। मुझसे निःसंकोच कहो, तुम्हारी समस्या क्या है? मेरे वश की बात हुई तो समस्या के समाधान की कोई-न-कोई राह निकल आएगी।'
शैलेन्द्र ने गहरी आँखों से मुझे देखा, जैसे मुझे तौल रहे हों। दो पल बाद बोले--'हाँ, तुम्ही से कह सकता हूँ, लेकिन वादा करो कि इसे सब मित्रों से कहोगे नहीं।'
मैंने पूछा--'ऐसा भी क्या है! तुम नहीं चाहते हो तो मैं किसी से नहीं कहूँगा। तुम बात तो बताओ। '

शैलेन्द्र ने जो कथा सुनाई, वह कष्टदायी थी--बाल्य-काल में उनके छोटे भाई की मृत्यु छत से गिरने से हुई थी। किसी कटी हुई पतंग की डोर पकड़ने में उनका भाई दुमंज़िली छत से नीचे गिर गया था। तब छत पर शैलेन्द्र ही छोटे भाई के साथ थे। यह घटना तब की थी, जब शैलेन्द्र १०-११ वर्ष के थे और उनके अनुज मात्र ७-८ वर्ष के। १३-१४ वर्ष पुरानी इस घटना की शोक-छाया आज तक उनके पूरे परिवार पर व्याप्त थी। शैलेन्द्र के माता-पिता उन्हें ही इस दुर्घटना के लिए ज़िम्मेदार ठहराते रहे थे। शैलेन्द्र की लाख सफाई और अपनी निर्दोषिता सिद्ध करने का हर प्रयास विफल हो गया था। माता-पिता के साथ घर का हर सदस्य यही मानता था कि पतंग की डोर पकड़ने की धक्का-मुक्की में घर का नन्हा चिराग बुझ गया था। कुछ वर्षों तक यह दोषारोपण और शैलेन्द्र का स्वयं को निर्दोष सिद्ध करने का यत्न चलता रहा, फिर समय के साथ उसकी धार कुंद होती गई। अब कोई किसी से कुछ नहीं कहता था, लेकिन सब के मन में गाँठें वैसी ही बँधी रह गयी थीं।

शैलेन्द्र अवसाद की इस छाया से आज तक उबर नहीं सके थे। इस लाँछना से लड़ते हुए उन्होंने युवावस्था में प्रवेश किया था और इसका उनके सम्पूर्ण व्यक्तित्व गहरा तथा प्रतिकूल प्रभाव पड़ा था। यह दुखद और अंतरंग कथा सुनाते हुए वह कई बार विह्वल होकर रो पड़े थे। मैंने उन्हें सांत्वना दी, संयत किया। अंततः उन्होंने अत्यन्त आर्त्त भाव से कहा--'मेरे घर के लोगों की इस आधारहीन अवधारणा को असत्य सिद्ध कर, मुझ पर अकारण लगी इस लांछना को क्या तुम किसी तरह मिटा नहीं सकते आनंद? तुम समझ सकते हो, मेरी यह पीड़ा मारक है।'
मैंने कहा--'इसका निराकरण तो सिर्फ़ तुम्हारे छोटे भाई की आत्मा ही कर सकती है। कहो तो उसे ही बुलाकर घटना का सत्य पूछ लूँ ?'
शैलेन्द्र उत्साहित होकर बोले--'क्या ऐसा हो सकता है?'
मैंने कहा--'अवश्य हो सकता है। छोटे भाई का कोई चित्र होगा न तुम्हारे पास?'
शैलेन्द्र बोले--'होगा तो ज़रूर, खोजना पड़ेगा। लेकिन उसे तुम्हें मेरे घर पर ही बुलाना पड़ेगा, ताकि सत्य घरवालों के सामने ही उजागर हो और मेरे माथे से वह दाग़ मिट जाए हमेशा के लिए ।'
मैंने कहा--'अब तो अगले रविवार को ही यह संभव हो सकेगा।'
मैंने देखा, मेरे इस उत्तर से उनके चेहरे पर निराशा के भाव जागे; लेकिन शीघ्र ही संतुलित होकर उन्होंने कहा--'चलो ठीक है, अगले रविवार को ही सही। बस, तुम भूल न जाना और पूरी तैयारी से आना, तब तक मैं तस्वीर भी ढूँढ लूँगा।'
इसी निश्चय के साथ हम दोनों उठ खड़े हुए।...
(क्रमशः)
[ मित्रवर से स्पष्ट स्वीकृति नहीं मिलने के कारण छद्म नाम 'शैलेन्द्र दीक्षित' रखा है। --आ.]

1 टिप्पणी:

Jay dev ने कहा…

बहुत बढ़िया |