सोमवार, 31 मार्च 2014

वरेण्य कवि भवानीप्रसाद मिश्र : जिन्हें कविता लिखती थी...

[समापन क़िस्त]

सन १९८१ में हम सभी दिल्ली छोड़ पटना लौट आये थे. दिल्ली छूटी तो मिश्रजी से गाहे-ब-गाहे सभा-सम्मेलनों में मिल पाना भी ख़त्म हो गया. एक कवि-सम्मलेन में सम्मिलित होने के लिए सन १९८३ में वे पटना आये थे. आयोजकों ने उन्हें राजस्थान होटल में ठहराया था. उन दिनों पिताजी अस्वस्थ थे. मैं उनके आदेश पर अपने पत्रकार मित्र कुमार दिनेशजी के साथ उनसे मिलने गया था. मिश्रजी बहुत आत्मीयता से मिले और मिलते ही पिताजी के स्वास्थ्य के बारे में पूछने लगे. मुझसे सारा हाल जानकार उन्होंने कहा था--'मुक्तजी से कह देना, कल सुबह उनसे मिलने आऊंगा.' वहाँ आयोजकों और मुलाकातियों की भीड़ थी. अधिक बातों के लिए अवकाश न था, फिर भी हमने लिखने-पढ़ने से संबंधित थोड़ी बातें कीं और सप्रणाम विदा होने लगे तो उन्होंने कविता की दो पंक्तियाँ सुनायीं--
जिस तरह हम बोलते हैं,
उस तरह तू लिख,
और इसके बाद भी
हमसे बड़ा तू दिख...!
होटल के कमरे से बाहर निकलकर सीढ़ियों पर ही दोनों पंक्तियाँ हमने एक कागज़ पर लिख लीं और लौट चले. 'हमसे  बड़ा दिखने-बनने का उद्बोधन, आशीष या चुनौती' देती ये पंक्तियाँ अचंभित करती हैं. पीढ़ियां गुज़र जाएँगी, लेकिन कविता में बोलने की तरह लिखने का हुनर कोई और पैदा कर सकेगा, इसमें मुझे संदेह है. वह हुनर तो भवानीप्रसादजी के साथ ही चला गया....!

दूसरे दिन सुबह-सबेरे पिताजी बज़िद हो गए कि मैं उन्हें भवानीप्रसादजी के पास ले चलूँ. मैंने उनसे कहा भी कि तबीयत ठीक नहीं तो आप रहने दें, भवानीप्रसादजी ने तो कहा ही है कि वे आपसे मिलने आयेंगे. लेकिन वे नहीं माने. मैं उन्हें अपनी मोटरसाइकिल से होटल ले गया. होटल के कमरे का दरवाज़ा स्वयं भवानीप्रसादजी ने ही खोला और पिताजी को देखते ही उनसे लिपट गए, आनंदित होकर और हुलसकर मिले तथा कमरे में प्रवेश करते ही उन्होंने पहला वाक्य कहा--'मैं तो मिलने के लिए आने ही वाला था, आपने क्यों तकलीफ की?'
पिताजी बोले--'तुम दिल्ली से आ सकते हो, मैं अपने घर से भी यहाँ तक नहीं आ सकता?' फिर तो उनकी पिताजी से खूब बातें हुईं, देर दोपहर तक दोनों साथ रहे और मैं मूक श्रोता बना रहा. पिताजी से शाम के वक़्त कवि-सम्मलेन में न आने का आग्रह करते हुए उन्होंने सम्मलेन में सुनाई जानेवाली अपनी कविताएँ पिताजी को होटल में ही सुना दीं. उनके श्रीमुख से मुग्ध कर देनेवाली कविताएँ सुनना और वह साथ-संग ही अंतिम साथ-संग सिद्ध हुआ.

१९८४ में मैं सप्रयोजन उनके पितृगृह नरसिंहपुर भी गया था. तब भवानीप्रसादजी तो वहाँ नहीं थे, लेकिन उनके अनुज श्रीकेशवानन्दजी और परिवार के अन्य सदस्यों से मेरी मुलाकात हुई थी. मैंने उस भूमि और उस चौखट को नमन किया था, जो मुझे मिश्रजी के घर में ले गई थी. उस भूमि पर विचरण करते हुए मैंने 'सतपुड़ा के घने जंगलों' का भी स्मरण किया था, जो मिश्रजी की कविता में अमर होकर 'ऊँघते-अनमने' खड़े हैं! केशवानन्दजी और उनका पूरा परिवार मुझसे बड़ी आत्मीयता से मिला था. भवानीप्रसादजी के पितृगृह की मधुर स्मृतियाँ सँजोकर मैं पटना लौट आया था.

प्रायः एक वर्ष बाद ६ फ़रवरी १९८५ को केशवानंदजी की कन्या का विवाह था. उसी में सम्मिलित होने भवानीप्रसादजी नरसिंहपुर गए थे. केशवानंदजी ने अवस्थी-परिवार को भी विवाह में सादर आमंत्रित किया था. मैं तो उसमें सम्मिलित नहीं हो सका था,लेकिन मेरी सहधर्मिणी की छोटी बहन कथा-लेखिका वंदना अवस्थी उसमें शामिल हुई थीं. भवानीप्रसादजी अपनी स्वाभाविक सहृदयता और आत्मीयता से उससे मिले थे. १९ फ़रवरी को वंदना का जो पत्र हमें पटना में मिला था, उसमें मिश्रजी और पूरे परिवार की हार्दिक प्रशंसा थी, विवाह के सानंद संपन्न होने का संवाद था. यह सुखद संवाद पाकर हम सभी प्रसन्न थे, किन्तु ठीक दूसरे दिन २० फ़रवरी १९८५ को भवानीप्रसादजी के अवसान का दुखद समाचार हमें एक गहरे आघात की तरह मिला. नियति की इस वंचना पर हम सभी स्तब्ध रह गए थे. मृत्यु बहुत दिनों से उनका पीछा कर रही थी. दिल के कई दौरे पड़ चुके थे, कुछ तो सांघातिक थे, लेकिन हर आघात से प्रभु-कृपा उनकी रक्षा कर लेती थी. इस बार मौत ने अचानक ही उन्हें अपने आगोश में ले लिया था।
शरीर तो मरणधर्मा है. वह 'गीतफ़रोश' भी चला गया. लेकिन भवानीप्रसादजी का यशःशरीर, उनका विपुल काव्य-साहित्य, हमारे बीच सदैव बना रहेगा और हमें अनुप्राणित करता रहेगा...!

रविवार, 30 मार्च 2014

वरेण्य कवि भवानीप्रसाद मिश्र : जिन्हें कविता लिखती थी...

[दूसरी क़िस्त]

सन १९७४ में भवानीप्रसादजी को दिल का प्राणघातक दौरा पड़ा था. तब वे एक कवि-सम्मलेन में शिरकत करने कानपुर गए थे. इस हृदयाघात से उनकी प्राण-रक्षा तो हुई, लेकिन उसके बाद वे अपना नहीं, पेसमेकर का जीवन जीते रहे. किन्तु, इस आघात का उनके मन-प्राण पर कोई आतंक नहीं था. उनकी मस्ती-प्रफुल्लता क्षीण नहीं हुई थी. देश-भर में उनकी दौड़ में कोई कमी नहीं आयी थी. काव्य-सम्मेलनों, साहित्यिक आयोजनों, व्याख्यान-समारोहों में वे सम्मिलित होते रहे, कविताएँ सुनाते रहे अपनी उसी जानी-पहचानी बेफिक्री के साथ...

सन १९७४ से पांच वर्षों के दिल्ली-प्रवास में भवानीप्रसादजी के अधिक निकट आने का सौभाग्य मुझे मिला था. इसी अवधि में (१९७७ में) मेरे विवाह के लिए सुयोग्य कन्या के प्रस्तावक बनकर भी वे मेरे घर पधारे थे, मध्य प्रदेश के अपने अनुज मित्र श्री आर. आर. अवस्थीजी के साथ, जो विधिवशात् आज मेरे पूज्य श्वसुरजी हैं. भवानीप्रसादजी जब भी घर आते, बैठक लम्बी खिंच जाती. बातें तो होतीं ही, कविताएँ ज्यादा होतीं. पिताजी अपने आसन पर बैठे सुपारी कतरते जाते और मिश्रजी की काव्य-सुधा का पान करते. काव्य-संगीत से घर का माहौल खुशनुमा हो जाता. एक घंटे बैठने की योजना तीन-चार घंटों तक चलती जाती अनवरत...!

सन १९७५ की बात है. दिल्ली में लक्ष्मीमल्ल सिंघवीजी की अध्यक्षता में दिनकर-जयंती समारोहपूर्वक मनाई गई थी. पूर्णतया स्वस्थ नहीं रहने पर भी भवानीप्रसादजी उस समारोह में उपस्थित हुए थे. पिताजी को भी उस अवसर पर बोलना था. पिताजी नहीं चाहते थे कि भवानी भाई बोलने का श्रम लें, लेकिन अध्यक्षजी ने उनके नाम की घोषणा कर दी, तो पिताजी ने उनसे धीमे-से कहा--'बैठकर बोलो और थोड़ा ही बोलना'. बैठकर बोलना तो उन्होंने स्वीकार कर लिया, लेकिन जब बोलने लगे तो स्वर और भावोद्वेग पर नियंत्रण न रख सके, भाव-विभोर हो गए और स्वर भी ऊर्ध्व हो गया. दिनकरजी के प्रति उनकी श्रद्धा-प्रीति थी ही ऐसी. यह उद्वेग उनके स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं था, लेकिन उनका वह व्याख्यान श्रोताओं को भाव-विह्वल कर गया था. उनकी ऐसी भाव-भीनी भाषा थी, अनूठी शैली थी और ओजस्वी स्वर था कि श्रोतागण मुग्ध-मुदित हो उठे थे. उस स्वर का माधुर्य मेरे मन में आज तक वैसा ही बना हुआ है.

गांधीजी के बाद भवानीप्रसादजी सबसे अधिक प्रभावित लोकनायक जयप्रकाश नारायणजी से थे. उन्होंने बिहार आंदोलन के दौर में बढ़-चढ़कर सहयोग किया था. देश में आपातकाल लागू होने के बाद जिस तरह जयप्रकाशजी की गिरफ्तारी हुई थी, उससे सारा देश क्षुब्ध था. उन्हीं दिनों की बात है, एक मुलाक़ात में भवानीप्रसादजी ने पिताजी से कहा था--'आजकल मैं त्रिकाल-संध्या कर रहा  हूँ.' सचमुच उनका मनोमंथन इतना प्रबल था कि वे प्रतिदिन तीन कविताएँ लिखकर अपनी आतंरिक वेदना और असह्य पीड़ा प्रकट किया करते थे. बाद में उन कविताओं का संकलन भी प्रकाशित हुआ था.

एक बार मैं पिताजी के साथ दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान के परिसर में भवानीप्रसादजी के आवास पर पहुंचा. उनकी तबीयत ठीक नहीं थी. लेटे हुए थे. हमें उन्हीं के कक्ष में पहुंचा दिया गया. पिताजी को देखते ही वे उठकर खड़े होने की चेष्टा करने लगे. पिताजी ने उन्हें बलात लिटा दिया और कहा--'इस औपचारिकता की आवश्यकता नहीं, तुम लेटे रहो.' मैंने उनके पूज्य चरण छूकर आशीर्वाद पाया और उन्हीं की शय्या के पास एक कुर्सी पर बैठ गया. थोड़ी बातचीत के बाद उन्होंने सद्यःप्रकाशित अपनी एक पुस्तक सिरहाने से निकाली और बोले--'इसमें जयप्रकाशजी पर एक लम्बी कविता है, मैं सुनाता हूँ.' पिताजी ने कहा--'तुम रहने दो, मैं पढ़ लूंगा. तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है.' वह नहीं माने. धीमे स्वर में कविता-पाठ करने लगे. कविता पढ़ते हुए बार-बार उनका गला भर आता था. वे थोड़ा रुक-रुककर पंक्तियाँ पढ़ने लगे. फिर अचानक उनकी आँखों से अश्रुपात होने लगा. वे अपने आंसू पोंछते जाते और कविता सुनाते जाते. उनकी यह विह्वलता, विकलता और वेदना की पराकाष्ठा देखकर मैं हतप्रभ था. सोच रहा था, क्या इतना बड़ा कवि अपनी अभिव्यक्तियों से इस हद तक संचालित हो सकता है कि वह विकल होकर रो पड़े? लेकिन भवानीप्रसादजी ऐसे ही कवि थे. जो भी लिखते, अंतर की गहराइयों से लिखते और उस अभियक्ति, उदगार की भाव-प्रवणता से दृढ़ता से बंधे रहते. उनकी सरलता, निश्छलता और भावुकता अप्रतिम थी. बहरहाल, वह पुस्तक उन्होंने पिताजी को उपहारस्वरूप दी थी, जो आज भी मेरे पास सुरक्षित है.

मुझे ऐसे ही एक अन्य अवसर का स्मरण है. पिताजी के आदेश पर मैं मिश्रजी के घर गया था. वे बड़ी आत्मीयता से मिले. मुझे अपने शयन-कक्ष में ले गए. चाय पिलाई और बातें कीं. फिर अपनी तकिया के नीचे से पीतवर्णी तीन-चार पृष्ठ निकाले, जिस पर मोती-से अक्षरों में उन्होंने कविताएँ लिख रखी थीं. मुझसे बोले--'ये कल की लिखी तीन कविताएँ हैं, मैं तुम्हें सुनाता हूँ.' मैंने प्रसन्नतापूर्वक सुनने की इच्छा व्यक्त की तो वे खुश हुए. वे तीनों कविताएँ बहुत मार्मिक थीं, जिन्हें सुनाते हुए रह-रहकर उनका गला रुंध जाता था, आँखें भर आती थीं. मैं उनकी इस मनोदशा का साक्षी बना उद्वेलित होता रहा. मेरा ध्यान कविता से थोडा हटकर उनकी आंदोलित कर देनेवाली अप्रतिम विकलता पर चला गया था. जैसे उन्होंने मेरे भटकाव को लक्ष्य कर लिया हो, हठात पूछा--'सुन रहे हो न?' मैंने अपने आपको समेटकर कहा--'जी हाँ!' उन्होंने कहा--'हाँ, ध्यान से सुनोगे, तभी कविता तुमसे कुछ कहेगी.' मैं उनका आशय समझ गया और ध्यानपूर्वक तीनों कविताएँ मैंने सुनीं. इन कविताओं में उनका रोष और तीखा व्यंग्य मुखर हुआ था. चलते वक़्त मैंने प्रणाम किया तो उनका बहुत सारा आशीर्वाद मुझे मिला. बस से घर की तरफ (मॉडल टाउन, दिल्ली) लौटते हुए उनकी कविता की प्रकाश-किरणें और उनका मनोद्वेग मेरे मन-मस्तिष्क पर छाया रहा और मुझे आश्चर्य है, उस प्रभाव की सघनता आज भी वैसी ही बनी हुई है...

(क्रमशः)

शनिवार, 29 मार्च 2014

वरेण्य कवि भवानी प्रसाद मिश्र : 'जिन्हें कविता लिखती थी...'

[२९ मार्च : पं. भवानीप्रसाद मिश्रजी की जयंती! उन्हें स्मरण-नमन करता हूँ. उनकी स्मृतियों का एक आत्मीय संंस्मरण पोस्ट कर रहा हूँ. आज (३० मार्च को}
यह संस्मरण 'जनसत्ता, दिल्ली ने रविवारी पृष्ठ-३ पर प्रकाशित भी किया है. --आनंदवर्धन.]


गांधीवादी चिंतक और हिंदी के वरेण्य कवि भवानीप्रसाद मिश्रजी की याद करते हुए मन बहुत पीछे साठ के दशक में पहुँच जाता है. उन दिनों वर्ष में एक बार अखिल भारतीय स्तर पर 'रेडियो वीक' मनाने की परिपाटी थी, जिसमें सप्ताह-भर प्रतिदिन एक-न-एक आयोजन होते थे--साहित्यिक, सांगीतिक और रंगमंचीय आयोजन! इसमें कवि-सम्मलेन और 'लोहा सिंह' नाटक की पटना में धूम रहती थी. कवि-सम्मलेन का संयोजन-संचालन मेरे पिताश्री (पं. प्रफुल्लचंद्र ओझा 'मुक्त') करते थे. ऐसे ही एक कवि-सम्मलेन में मैंने सर्वप्रथम भवानीप्रसादजी के दर्शन किये थे, उनकी कविता सुनी थी. सुगठित शरीर, औसत क़द, गौर वर्ण, उन्नत ललाट, अधपके केश और श्वेत परिधान--धोती-कुर्ते में वे दिव्य मूर्ति लगे थे. उस कच्ची उम्र में कविता की उतनी समझ तो थी नहीं, लेकिन अन्य कवियों के बीच उनके काव्य-पाठ के अनूठे अंदाज़ ने मुझे बहुत आकर्षित-प्रभावित किया था.

गांधीयुग की छाया में पली-बढ़ी उस समूची पीढ़ी में आचरण और मर्यादाओं के पालन की बात ही कुछ निराली थी. वर्धा आश्रम में कई वर्षों के निवास ने भवानीप्रसाद मिश्रजी को उदात्त जीवन जीने की प्रेरणा दी थी, सत्यनिष्ठ, विनयी और संस्कारवान बनाया था. वे मेरे पिताजी से तीन वर्ष  छोटे थे, उन्होंने आजीवन अनुज होने की शालीनता का परिचय दिया और पिताजी को बड़े भाई का आदर-मान देते रहे. वे पिताजी के अनुज तो थे ही, घनिष्ठ मित्र भी थे--आकाशवाणी-कार्यकाल के ज़माने से. कभी वे दिन भी थे, जब भवानीप्रसादजी आकाशवाणी, बम्बई और फिर दिल्ली में प्रोड्यूसर पद पर कार्यरत थे और पिताजी आकाशवाणी, पटना में. वे जब भी मिलते, बड़ी आत्मीयता से मिलते, हुलसकर मिलते. ऐसे अनेक अवसरों का स्मरण मुझे है, जब पिताजी से मिलने की परम प्रसन्नता मैंने उनके श्रीमुख पर साफ-साफ़ देखी थी--आकुल, आह्लादित, उत्कंठ प्रफुल्लता! विनय, अनन्य प्रीति और मृदुलता उनके चरित्र का भूषण थी. वे बड़े कवि तो थे ही, सर्वात्मना भद्र, शालीन और सहृदय व्यक्ति थे.

उनकी कविता श्रोताओं-पाठकों से सीधा संवाद करती है--बोलती-बतियाती है, नदी की धारा-सी कल-कल बहती जाती है--गति, लय के साथ अनंत प्रवाह-सी. भाव-बोध में रची-बसी अप्रतिम शब्द-रचना में वे सिद्धहस्त थे. अद्भुत प्रवाहमयी कविता करने का उनका कौशल अनूठा था. पच्चीस-तीस वर्षों के लम्बे प्रसार में भवानीप्रसादजी काव्य-मंच के सर्वाधिक प्रसंशित और प्रिय कवि रहे. उनकी कविताएँ खूब पढ़ी-सुनी गईं और चर्चा में बनी रहीं! वे दूसरे सप्तक के कवि बने--भाषा-भाव के बहुत समृद्ध कवि! वे बोली-बानी के कवि थे. उनके काव्य-ग्रंथों 'गीतफरोश', 'बुनी हुई रस्सी', 'चकित है दुःख', 'अँधेरी कविताएँ', 'त्रिकाल संध्या', 'खुशबू के शिलालेख' आदि में इसके यथेष्ट प्रमाण मिलते हैं. उन्होंने अपनी कविता के बारे में कहीं लिखा भी है--"मैं कविता नहीं लिखता, कविता मुझको लिखती है...". उनकी कविताएँ पढ़कर सचमुच ऐसा प्रतीत होता है कि उनके उद्वेगों, आवेगों, विचारों, चिंतनों को कविता स्वयं शब्द दे रही है और वह भी कितनी सहजता से, सरल-सहज शब्दों में--
'कुछ पढ़ के सो,
कुछ लिख के सो,
जिस जगह जागा सबेरे
उससे आगे बढ़ के सो...!'
[क्रमशः]

बुधवार, 26 मार्च 2014

पंडित नाथूराम शर्मा 'शंकर' की स्मृतियों के साथ जागरण की एक रात...

मित्रो,
कल रात बिस्तर पर देर तक नींद नहीं आयी, करवटें बदलता रहा. मौसम खुशगवार था, लेकिन लगता है, मन का मौसम कुछ ठीक नहीं था...लेकिन रात तो नींद में बितानी थी और नींद आती न थी. मंत्र-जाप शुरू किया.. और यह सब करते बहुत देर हो गई.... तभी पूज्य पिताजी की याद आयी, उन्हें नमन करने लगा... बहुत छुटपन से उनसे मैंने बहुत-सी कहानियाँ सुनी थीं, उनमें से एक याद आयी--अपने समय के प्रसिद्ध आशुकवि पंडित नाथूराम शर्मा 'शंकर' की कथा. आपको संक्षेप में उनकी कथा सुनाऊँ...?
सन १८५९ में जिला अलीगढ़ में जन्मे महाकवि शंकर ब्रजभाषा और खड़ी बोली के कवि थे. उनकी प्रतिज्ञा थी :
'दीजै समस्या ता पर कवित बनाऊँ चट,
कलम रुके तो, कर कलम कराइये ... !'
पिताजी बताते थे कि इलाहाबाद में एक आशु-कवि-सम्मलेन में 'शंकर' पधारे हुए थे और लट्ठधारी एक कवि और थे जो स्वयं को कवि केशव (जिन्हें कठिन काव्य का प्रेत कहा गया है) का शिष्य कहते थे. वहाँ समस्या दी गई थी--'नीके'.
जब मंच पर शंकर आये तो समस्या-पूर्ति करते हुए उन्होंने कई पंक्तियाँ पढ़ीं और जब अंतिम दो पंक्तियों पऱ आये तो सभा में तहलका मच गया, वे पंक्तियाँ थीं--
'एक तs केसव  प्रेत भये,
दूजे भये बेटा भुतनी के.!'
इन पंक्तियों को पढ़ते हुए शंकरजी ने हाथ का इशारा लट्ठधारी कवि की और किया..., फिर क्या था, पंक्तियाँ समाप्त होते ही लट्ठधारी कवि अपनी लाठी भांजते दौड़ पड़े... अब शंकर जी आगे-आगे और वे पीछे-पीछे सभा-भवन से दौड़ते-भागते बाहर निकल गए... और पूरी सभा ठहाकों से देर तक गूंजती रही...! पिताजी इस अपूर्व दृश्य के स्वयं साक्षी थे.
पं. नाथूराम शर्मा 'शंकर'जी ने कई काव्य-ग्रन्थ लिखे. एक तो 'समस्या-पूर्ति' के नाम से ही प्रकाशित हुआ. उन्होंने 'अनुराग रत्न', 'शंकर-सरोज', 'गीतावलि', 'कविता-कुञ्ज', 'दोहा', 'कलित-कलेवर', 'शंकर सतसई' आदि अनेक पुस्तकों का प्रणयन किया. अंग्रेज़ों के ज़माने में वे कानपुर में सिंचाई विभाग में कार्यरत थे और आयुर्वेद की औषधियों से उपचार भी करते थे. वे आयुर्वेदाचार्य थे, साथ ही आर्यसमाज-आंदोलन से भी प्रभावित थे.
कालान्तर में उनके परिवार में अघटनीय घटनाएं एक-के-बाद-एक होती गईं. माता, पत्नी, पुत्री, पुत्र, भगिनी की मृत्यु ने उन्हें तोड़कर रख दिया था.
इन सारी विपदाओं के बाद किसी आशु-कवि सम्मलेन से उन्हें आमंत्रण मिला. वे वहाँ गए. समस्या दी गई थी--'मन की'! शंकरजी ने जो समस्या-पूर्ति की, वह मर्मविद्ध करनेवाली है. आप भी देखें :
"देवी शंकरा ने देवलोक में निवास पाया,
पीर पति की-सी न सहारी बूढ़ेपन की,
शारदाकुमारी बूढ़ी दादी के समीप गई,
माँ से महाविद्या मिली राख त्याग तन की,
माता, सुता, भगिनी की ओर उमाशंकर ने
कूच किया ओढ़कर चादर कफ़न की,
हाय, शोक-मूसल से काल ने कुचल डाली
कोमल कवित्व-शक्ति 'शंकर' के मन की!"
ये सारी पंक्तियाँ पिताजी से सुनकर मैंने अपनी डायरी में लिख ली थीं. १९९५ में पिताजी के निधन के बाद एक दिन पं. रामनरेश त्रिपाठी की पुस्तक 'कविता कौमुदी' से अंत की दो पंक्तियाँ और मिलीं :
"क्या सूझे कवि कौमुदी, हा बुध रामनरेश,
हा, शंकर को हो गया अन्धकारमय देश...!"
हिंदी-उर्दू और ब्रजभाषा के इस महान कवि ने सन १९३२ में इहलीला समाप्त की...!

यह प्रकरण याद करते, पुरानी डायरी खोजते और लिखते सुबह के चार बज गए...! फिर जब बिस्तर पर गया तो गहरी नींद सो गया...! पिछली रात तो पूज्य बाबूजी और शंकरजी की यादों के साथ जागकर बितानी थी, बिस्तर पर जाते ही कैसे सो जाता भला....?