मंगलवार, 21 जनवरी 2014

सहमे ज़माने रह गए...

"रूह एक फ़ना हुई, उसके फ़साने रह गए,
पत्थरों की नोंक पर ही अब निशाने रह गए!

हम हुए बेदार बेहद, उनकी बला ठहरी रही,
अब तो ग़ैरत को मसलने के बहाने रह गए !

कैसे कहें अच्छा हुआ, या हुआ बेहद बुरा,
हमनशीनों के न अब ठौर-ओ-ठिकाने रह गए !

एक क़तरा आँख से था, जब टपकना चाहता,
ठहर जा कम्बख़त, तुझे किस्से सुनाने रह गए!

मौत से भी क्या भली कोई शै होती है जनाब,
ख़ाक हुए सब मसलहे, किस्से पुराने रह गए !

अब मोहब्ब्त की ज़मीं पर ये सफ़र मुश्किल हुआ,
मौसमों की मार के सहमे ज़माने रह गए !!

रविवार, 12 जनवरी 2014

वशिष्ठ की वापसी : हमारी विक्षिप्तता...

[मित्रवर सुधांशु शेखर त्रिवेदीजी के आग्रह पर मेरे पूज्य पिताजी (पं. प्रफुल्लचंद्र ओझा 'मुक्त') का यह आलेख, जो १७ फरवरी १९९३ को नवभारत टाइम्स, पटना में छापा था और उनकी अप्रकाशित पुस्तक 'सिर धुनि गिरा लागि पछितानी..' में संग्रहीत है, उनके लिए और अन्य पाठकों के लिए भी, ब्लॉग पर रख रहा हूँ. आलेख किंचित बड़ा है, थोड़ा धैर्य धारण कर कृपया इसे पढने का कष्ट करें--आनंद.]


वशिष्ठ की वापसी : हमारी विक्षिप्तता...

अभी उस दिन मैंने अखबार में पढ़ा कि पांच वर्षों की गुमनामी के बाद वशिष्ठ बड़े नाटकीय ढंग से अपने घर पहुँच गए हैं. पांच बरस पहले, विक्षिप्तता में,  उन्हें इलाज़ के लिए पटना से पूना ले जाया जा रहा था. रस्ते में, रात के सन्नाटे में, एकाएक वह खंडवा में गाड़ी से उतर गए थे. साथ जा रहे भाई की जब नींद खुली, तो वशिष्ठ का कोई आता-पता नहीं था. उनकी खोज-ढूंढ का कोई नतीजा नहीं निकला.
किसी सामान्य व्यक्ति के लिए यह कल्पना भी अत्यंत कठिन है कि बदन पर पड़े एक धोती-कुर्ते के साथ उसने ये पांच बरस कैसे बिताये होंगे. वह तो अपने आपे में नहीं था. उसे पता नहीं था कि वह कहाँ, किन लोगों के बीच है और क्यों है? उसके रहने का कोई ठिकाना नहीं था, खाने का कोई साधन नहीं था, पहनने के लिए दूसरा कपड़ा नहीं था. परिवेश अजाना था, भाषा अपरिचित थी, लोग पराये थे. कैसे गुज़ारे होंगे उसने ये पाँच साल? कैसे जिया होगा? कैसे?
क्या वह इन पांच वर्षों तक नगर-नगर, डगर-डगर, निरुद्देश्य सड़कें नापता रहा होगा? क्या उमस भरी गर्मी की रातें  उसने किसी दूकान के पटरे पर, सड़क के किनारे या किसी खाली घर के बारामदे पर गुज़ारी होंगी? क्या वह बरसातों में किसी घर के पिछवाड़े या कोने-अंतरे में पड़ा रहा होगा या आसमान के नीचे खड़ा भीगता रहा होगा? और उसकी जाड़े की रातें कैसे बीती होंगी? क्या बर्फ-सी ठंडी ज़मीन पर गुड़ी-मुड़ी होकर उसने शीत-लहरियां झेली होंगी? क्या हवा के तेज झकोरे उसके अंजर-पंजर को बरछे की नॉक की तरह बेधते रहे होंगे? क्या किसी दयावान ने उसके शरीर पर कभी फटा कम्बल या टाट-बोरा डाल दिया होगा और सबेरे उन्हें झाड़कर वह आगे बढ़ चला होगा? कैसे जिया होगा वह इतने दिन?
लेकिन कौन है यह वशिष्ठ? क्यों उसका उल्लेख जरूरी है? काल के प्रचंड प्रवाह में क्यों मैं किसी मतवाली लहर पर उसका नाम दर्ज़ करना चाहता हूँ? आखिर कौन है यह वशिष्ठ? किसका नाम है वशिष्ठ?
वशिष्ठ नाम है भारत की ऊर्जा का. यह नाम है भारतीय मेधा के चरम विकास का. यह नाम है भारतीय प्रतिभा के नवोन्मेषशाली प्रचंड प्रकाश का, जिसने कुछ ही समय पहले गणितीय ज्ञान की चमक से संसार को स्तब्ध और विस्मित कर दिया था. संसार-भर के शिखर वैज्ञानिकों ने कहा था--"यह तो मनुष्य नहीं, चमत्कार है. इतना बड़ा गणितज्ञ, इनता बड़ा वैज्ञानिक, न तो पहले कभी हुआ था, न आगे कभी होगा."
हाँ, वशिष्ठ वैसा ही था. अगर हमने उसे पहचाना होता, अगर हमने उसका समुचित सम्मान किया होता, अनुकूल और स्वछन्द वातावरण दिया होता तो आज उसके नाम से दुनिया में भारत की पहचान होती, जैसे गांधी और टैगोर के नाम से होती है. लेकिन भारत की स्वतन्त्रता के बाद हमारे देश में एक ऐसी हाहाकारी बुभुक्षा ने जन्म लिया, भ्रष्टाचार की ऐसी सर्वनाशी संस्कृति का भीषण विकास हुआ कि जिसे भी अवसर मिला, सुविधा मिली, वह अपनी गोटी लाल करने के प्रयास में देश को, समाज को, व्यक्ति को--सबकुछ को भूलकर सर्वथा आत्ममभर बन गया. ईश्वर ने वशिष्ठ के रूप में भारत को जो अनमोल खज़ाना दिया था, कभी न ख़त्म होनेवाली जो पूँजी दी थी, उसे किसी ने नहीं पहचाना. उसकी ओर किसी का ध्यान नहीं गया. नतीजा क्या हुआ? पाँच बरसों के बाद वह छपरा (बिहार) के डोरीगंज मुहल्ले में भीख मांगकर पेट पालता कई दिनों से पड़ा था. उसे कुछ लोगों ने पहचाना. उसे उसके गाँव, भोजपुर के वसंतपुर में, उसके परिवारवालों के पास पहुंचा दिया. अब वह वहीँ अपनी बिसरी ज़िन्दगी की याद में घुटता-छटपटाता अपने दिन बिता रहा है.
किसी ज़माने में विश्वबंधुत्व का, भाईचारे का, सह-अस्तित्व का, सत्य, अहिंसा और प्रेम का प्रचार-पसार करनेवाले हमारे देश में आज आग लगी हुई है. रोज दिन देश में हत्याएं होती हैं, नर-संहार होता है, हादसे होते हैं और मरनेवाले परिवार को नगद मुआवजे दिए जाते हैं. तूफ़ान आते हैं, बाढ़ आती हैं, सूखा पड़ता हैं, लोगों को  मुआवजे दिए जाते हैं--यह बात और हैं कि उसमें से कितनी राशि जरूरतमंदों तक पहुंचती हैं और कितनी उसको बांटनेवालों की तिजोरी में गायब हो जाती हैं.
देश की माली हालत यह है कि हम भिक्षा-पात्र लेकर विदेशों में जाते हैं और भिक्षा अथवा कर्ज के रूप में अरबों-खरबों की राशि हासिल करके राष्ट्र-निर्माण करते हैं. हम कर्ज का सूद चुकाने के लिए फिर कर्ज लेते हैं और बची हुई राशि से फिर राष्ट्र-निर्माण करते हैं.  राष्ट्र-निर्माण कैसे होता हैं? आये दिन देश भर में खेलों का आयोजन होता हैं, घुड़दौड़ होती है, सट्टा खेला जाता है, रैलियां और उनके जवाब में फिर रैलियां होती हैं. अरबों-खरबों का वारा-न्यारा होता है. राष्ट्र-निर्माण परवान चढ़ता है.
देश के विकास के लिए, देश को समृद्ध और समुन्नत देशों  की बराबरी पर पहुंचाने के लिए देश भर में दूरदर्शन और आकाशवाणी के केंद्र खोले जा रहे हैं, घर-घर में टी.वी. और रेडियो सेट पहुंचाए जा रहे हैं, गाँव-गाँव में बिजली के खम्भे, नल या नलकूप लगाए-बनाये जा रहे हैं, सिंचाई का इंतजाम हो रहा है, देश की जरूरत के मुताबिक बिजली के उत्पादन की जी-तोड़ कोशिशें हो रही हैं. जान-सुनकर छाती दो गज चौड़ी हो जाती है. हमारे राष्ट्र का निर्माण कैसा अद्भुत है, हमारा देश कैसे विस्मयकारी रूप से विकास कर रहा है.
खम्भे गड़े हैं, उनसे रौशनी नहीं होती. नल और नलकूप बने हुए हैं, बिजली के अभाव में उनसे पानी की एक बूँद नहीं टपकती. रेडियो और टी.वी. सेटों से घर-घर शोभायमान है, लेकिन आवाज़ उनसे कभी-कदाचित ही आती है, वह भी परम सौभाग्यशाली बड़े नगरों और प्रादेशिक राजधानियों में ही. राष्ट्र-निर्माण की ऐसी धूमधाम और देश के ऐसे त्वरित विकास की आपाधापी में वशिष्ठ की याद किसे आ सकती है? वह है किस खेत की मूली?
इसी शती के उत्तरार्द्ध में एक दिन उस परम शक्ति ने अपने आशीर्वाद से अभिषिक्त करके एक तेजस्वी बालक को बिहार की धरती पर, आधुनिक भोजपुर के वसंतपुर ग्राम में, एक निर्धन किसान के घर अवतरित किया. स्मरणीय है कि वशिष्ठ भगवान् राम के गुरु थे. ओट में छिपी नियति के द्वारा यह नाम उसे अकारण नहीं दिया गया था. हमारा अतीत साक्षी है कि युगों से इस देश का इतिहास बिहार ने ही बनाया है. ईश्वर ने किसी विशेष अभिप्राय से ही वशिष्ठ को बिहार में ही जन्म दिया था.
वशिष्ठ के पिता कलकत्ता में पुलिस के सामान्य सिपाही थे, लेकिन बेटा उनके घर असामान्य प्रतिभा लेकर उत्पन्न हुआ था. उस प्रतिभा ने ही उसे नेतरहाट में शिक्षा प्राप्त करने का सुयोग दिया. मैट्रिक में सर्वप्रथम आकर उसने सबको चकित कर दिया. फिर पटना के साइंस कॉलेज का द्वार उसके लिए अनायास ही खुल गया.
जब पहली बार वशिष्ठ आई.एस-सी. की कक्षा में बैठा, तो अध्यापक ने उसे देहाती-गंवार समझकर कक्षा से बाहर जाने को कहा. लेकिन उसकी मेधा के चमत्कार ने पासा पलट दिया. वशिष्ठ ने इण्टर की पढाई के दौरान ही स्नातकोत्तर परीक्षा के सभी प्रश्न-पत्रों को हल करके विश्वविद्यालय के इतिहास में क्रांति कर दी. इण्टर के बाद उन्हें सीधे एम.एस-सी. की डिग्री दे दी गयी. ऐसा कभी नहीं हुआ था.
फिर वह अमेरिका पहुंचे. वहाँ भी उन्होंने अपनी प्रतिभा का अलौकिक चमत्कार दिखलाया. उन्होंने पी.एच-डी. किया; डी.लिट. की उपाधि ली और उसी विश्वविद्यालय में वह अध्यापन करने लगे. उन्होंने कुछ पुस्तकें भी लिखीं, जिनमें 'वशिष्ठाज़ थ्योरी ऑफ़ रेलेटिविटी' को संसार के वैज्ञानिकों द्वारा अभूतपूर्व सम्मान मिला. उस ग्रन्थ को सापेक्षवाद के मानक ग्रन्थ के रूप में सर्वस्वीकृति मिली. वशिष्ठ ने आइंस्टीन के काम को आगे बढ़ाया था. उनकी स्थापनाएं और तर्क अकाट्य थे.
इसी समय वशिष्ठ की निजी ज़िन्दगी को एक गहरा झटका लगा. उनके विभागाध्यक्ष ने प्रस्ताव किया कि वह उनकी एकमात्र कन्या से विवाह कर लें और अमेरिका की नागरिकता लेकर यहीं बस जाएँ. गँवई-गाँव की मानसिकतावाला बेचारा वशिष्ठ! इस प्रस्ताव ने उसे त्रस्त कर दिया. उसे अपना गाँव याद आया, अपने माँ-बाप याद आये, अपना देश याद आया. मेम बहू की कल्पना से ही वह थर्रा उठा. विनम्रतापूर्वक उसने वह प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया. फिर अमेरिका में टिके रहना उसके लिए कठिन हो गया. वह अपने देश लौट आया.
अपने देश में भी वह जहां काम करने गया, उसे उपेक्षा मिली, तिरस्कार मिला, नीचा दिखने की कोशिश की गई. उसकी मेधा और प्रतिभा ही उसकी दुश्मन बन गई. उसका मन भटकने लगा. वह नौकरी छोड़कर लौट आया.
इस बीच छपरा जिले के एक डॉक्टर की कन्या से उसका विवाह हो गया था, लेकिन जिसने पहले ही गणित से परिणय कर लिया हो, हाड-मांस की पत्नी से उसकी पटरी नहीं बैठी. असंतुष्ट पत्नी उसको छोड़कर हमेशा के लिए मायके चली गई. वशिष्ठ का मानसिक संतुलन बिगड़ता गया.
मैं वैज्ञानिक नहीं हूँ. डॉक्टर भी नहीं हूँ. एक सामान्य लेखक हूँ. फिर भी मैं मानता हूँ कि विक्षिप्त डॉक्टर वशिष्ठ नहीं हैं, उनके देशवासी हम सब लोग हैं, जो उन्हें विक्षिप्त मानते हैं और उन्हें वैसा ही बना रहने देना चाहते हैं. उनके लिए कुछ करना नहीं चाहते. डॉक्टर वशिष्ठ विक्षिप्त नहीं हैं. उनका मन सो गया है. अवचेतन में चला गया है. उसे जगाने की जरूरत है. उसे जगाने का प्रयास करना हमारा प्रथम और आवश्यक कर्त्तव्य है. हमें अपने उस कर्त्तव्य का पालन करने में सावधान होना चाहिए.
जिस देश में अनर्थक कामों में अरबों-खरबों की राशि खर्च की जा रही हो, उस देश को ईश्वर की धरोहर को, इस अक्षय पूंजी को बचाने के लिए दस-बीस लाख या दस-बीस करोड़ भी खर्च करने पड़ें, तो वह तत्काल खर्च करके यह सार्थक काम समय रहते कर लेना चाहिए. डॉक्टर वशिष्ठ के मन को जगाने का काम वशिष्ठ की रक्षा का प्रश्न नहीं है, यह भारत की तेजस्विता की, मेधा की और गरिमा की रक्षा का प्रश्न है. हमारे देश के कर्णधारों का मन जागेगा, तभी वशिष्ठ के मन को जगाने का प्रयास किया जा सकेगा. अपने ही हित के लिए यह प्रयास अवश्य और अविलम्ब किया जाना चाहिए.
वशिष्ठ जागेगा तो हमारा देश भी जाग उठेगा. उसके ज्ञान और प्रतिभा का प्रकाश युगों तक भारत को तेजस्वी और भास्वर बनाये रखेगा. उसके कृतित्व से विश्व-सभा में भारत को सदा सम्मानित स्थान मिलेगा. मैं आशा करता हूँ कि हमारे देश के कर्णधार वशिष्ठ को जगाने से नहीं चूकेंगे--उन्हें चूकना भी नहीं चाहिए!

रविवार, 5 जनवरी 2014

नए वर्ष का अभिनन्दन है...!


मन की मोहक चिड़िया बोली,
नया साल आया है,
उठो, लिखो कुछ आज,
कोई ख़याल नया आया है?
मैं बोला उस चिड़िया से,
तू नाहक चीं-चीं करती है,
बहुत सबेरे मुझे जगाकर
माथापच्ची करती है !
वर्षों का क्या करूँ मोल मैं,
जीवन-क्षण बीत रहा है,
अंतर का जो सहज भाव था,
प्रतिक्षण रीत रहा है !
बस, सम्बल है एक भाव का,
अन्तस्तल निष्कलुष रहे,
मलिन वसन हो तन पर लेकिन,
घट-नाद निष्कलुष रहे!
मैंने देखा, यह सुनकर
चिड़िया पलकें झपकाती है,
अपने पंख खोलकर वह,
मन-आँगन में उड़ती जाती है!
विगत वर्ष का शोक क्या करूँ,
नए वर्ष का अभिनन्दन !
अभिवादन है आप सबों का,
सबका करता मैं वंदन!!
--आनंदवर्धन ओझा.
[नव-वर्ष प्रभात पर रचित पंक्तियाँ, १ जनवरी, २०१४]