शुक्रवार, 14 दिसंबर 2012

यादों के आइने में कवि बच्चन...


[सातवीं क़िस्त]

1979 में मैंने अपनी नौकरी बदली और दिल्ली से हरद्वार चला आया। हरद्वार आये थोडा ही वक़्त बीता था कि 'कुली' के सेट पर गंभीर चोट खाकर अमित भैया के अस्पताल में भर्ती होने की सूचना मिली। उन दिनों की याद करके आज भी सिहर उठाता हूँ। बच्चनजी के पत्रों में उनकी व्यग्रता, विकलता और संताप की झलक मिलती। उस कठिन काल में मैंने पिताजी को दिन-रात महामृत्युंजय मंत्र का पाठ करते हुए देखा था।पिताजी अपने पत्रों से तो बच्चनजी को ढाढस बंधाते, हिम्मत देते और प्रभु की अनंत कृपा का भरोसा दिलाते; लेकिन मैं जानता हूँ, वह स्वयं बहुत विकल-व्यग्र और चिंतित थे। यह विकलता-व्यग्रता तब तक बनी रही, जब तक अमिताभ भैया पूरी तरह प्रकृतिस्थ होकर घर नहीं आ गए।

संभवतः 1981 में मुझे अचानक अपने मालिकों के पास मुंबई जाना पडा। गाड़ी सुबह-सुबह मुंबई पहुंची थी। मैं सीधे हिंदुजा-बंधुओं के निवास पर चला गया और दिन भर वहीं  बना रहा। हिंदुजा-बंधुओं के गेस्ट हाउस से ड्राइंग रूम तक चहलकदमी करता मैं इस प्रयत्न में लगा रहा कि मुझे अपनी बात मालिकों के सम्मुख रखने का अवसर शीघ्र मिल जाए। दिन के करीब 12-1 बजे हिंदुजाजी के ड्राइंग रूम में एक सुदर्शन युवक को देखा, जो श्रीअशोक पीo हिंदुजा की पत्नी से बातें कर रहे थे। वह मुझे जाने-पहचाने-से लगे। मैंने स्मृति पर जोर डाला तो यह निश्चय होने लगा कि  ये तो अजिताभ बच्चनजी हैं, जिनसे मैं 10-11 साल पहले मिला था। अजित भैया में ज्यादा फर्क नहीं आया था, सिवा इसके कि वह कुछ अधिक पुष्ट देह-यष्टि के हो गए थे।मेरे मन में जैसे ही यह सुनिश्चित हुआ कि  ये अजित भैया ही हैं, मैं उनसे मिलने को व्यग्र हो उठा; किन्तु  ड्राइंग रूम में हठात प्रवेश करना शिष्टता की सीमा का उल्लंघन होता। मैं वहीँ कैरिडोर में टहलता रहा। थोड़ी देर बाद अजित भैया बाहर आये। मैंने उन्हें पीछे से आवाज़ दी। वह पलटे ग्यारह वर्षों बाद अचानक यहाँ मुंबई में, वह भी हिंदुजाजी के आवास पर, मुझे पहचान  लेना उनके लिए भी आसान नहीं था। उनकी आँखों में अपरिचय का भाव देखकर मैंने उन्हें अपने बारे में बताया, 1970 की मुलाकात की याद दिलाई तो वह पुलकित हुए। उन्होंने कहा--"तुम तो बहुत बदल गए हो, बड़े भी हो गए हो।" मैंने बच्चनजी के स्वास्थ्य के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा--"अच्छे हैं। तुम घर आकर उनसे मिल सकते हो।" मैंने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा--"यहाँ जिस काम से आया हूँ, वह जैसे ही हो जाएगा, मैं अवश्य बच्चन चाचाजी के दर्शन करने आउंगा।" थोड़ी औपचारिक बातों के बाद अजित भैया विदा हुए।
श्री एसoपीo हिंदुजाजी से शाम 3  बजे की मेरी मीटिंग तय हुई। उनसे मिलते ही समस्याओं का समाधान भी हो गया; लेकिन उन्होंने मुझे आदेश दिया कि  'तुम अभी शाम 6 बजे की फ्लाइट से दिल्ली चले जाओ और वहाँ से टैक्सी लेकर कल तक हरद्वार पहुँचो। मैंने फ्लाइट में तुम्हारा टिकट बनाने के लिए दफ्तर में कह दिया है।' एक दिन की मुहलत माँगने की जगह भी उन्होंने नहीं छोड़ी थी। मैं क्या करता, बच्चनजी के दर्शन किये बिना ही हुझे मुंबई से लौटना पड़ा।
हरद्वार लौटे मुझे 5-6 दिन ही बीते थे कि बच्चनजी का लंबा पत्र पिताजी के पास आ पहुंचा। थोड़ी नाराजगी के स्वर में उन्होंने पिताजी को लिखा था--"अजित से ज्ञात हुआ था कि आनंदवर्धन बम्बई आये थे। उन्होंने अजित से कहा भी था कि  वह मिलने मेरे पास आयेंगे। मैं तो उस दिन देर रात तक और दूसरे  दिन भी 'प्रतीक्षा' में प्रतीक्षा ही करता रह गया। ... मिलने आने में कोई अड़चन थी तो उन्हें फ़ोन करना चाहिए यथाशीघ्र सूचित करो कि  वह सकुशल तुम्हारे पास पहुँच गए हैं।" पिताजी ने उन्हें विस्तार से मेरी व्यस्तता और विवशता के बारे में लिखा था और तब मुझे क्षमादान मिला था; लेकिन यह जानकार मैं मन-ही-मन हर्षित-प्रफुल्लित हुआ था कि एक पिता की तरह ही उन्हें मेरी फिक्र थी और मेरे बिना मिले लौट आने का मलाल भी था। बच्चनजी ऐसे ही स्नेही और निकटस्थों  पर प्रीति  लुटानेवाले सहृदय व्यक्ति थे।
[क्रमशः]

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