बुधवार, 19 सितंबर 2012

अँधेरी कोठरी के अकेले रौशनदान थे लोकनायक जयप्रकाश नारायण


[समापन किस्त]
पिछले २५-३० वर्षों में इतना कुछ बादल गया है कि इस परिवर्तन पर यकीन नहीं होता ! जयप्रकाशजी जिन मूल्यों-आदर्शों के पुनर्स्थापन के लिए जीवन भर जूझते रहे, आज उसकी कामना करनेवाला भी कोई नहीं दीखता. उन्होंने राजनीति में प्रजा-नीति, लोक-नीति, सर्व-उदय, लोक-कल्याण की उदात्त भावना को प्राणपण से प्रतिष्ठित करने की चेष्टा की थी; लेकिन अब तो राज-ही-राज रह गया है, नीति की जगह अनीति ने ले ली है. पिछले तीन दशकों में मूल्यों का ऐसा ह्रास हुआ है कि बदली सूरत को पहचानना भी मुश्किल है. आत्मानुशासन, संयम, शील, भद्रता, शालीनता, परोपकार, सदाचरण जैसे गुण दुर्लभ होते जा रहे हैं. उनकी जगह असंयम, अशालीनता, अभद्रता, दुराचरण और लोभ-लालसा ने ले ली है. जो राह जयप्रकाशजी ने दिखाई थी, जिस राह पर वह देश को ले चलना चाहते थे, उस राह पर आज कोई अग्रसर नहीं दीखता. पक्ष और प्रतिपक्ष तर्क-वितर्क और कुतर्क में लगे हैं, विधान सभाएं और संसद पहलवानों के अखाड़े बने हुए हैं. सबको अपनी-अपनी पड़ी है, देश की फिक्र किसी को नहीं है, हम न जाने किस राह पर देश को हांके लिए जा रहे हैं. ऐसे में जे.पी. बहुत-बहुत याद आते है....
मुझे  लगता है, भारत की राजनीति में जयप्रकाशजी त्याग-तपस्या के प्रतीक और सर्वस्व न्योछावर कर देनेवाले अप्रतिम योद्धा तथा जन-भावना को स्वर देनेवाले क्रांतदर्शी की तरह हमेशा याद किये जायेंगे. उन्हें किसी मोह ने नहीं बांधा, पद-लिप्सा उन्हें छू न सकी, कोई प्रलोभन उन्हें डिगा नहीं सका, वह तो 'सर्व-जन हिताय, सर्व-जन सुखाय' के एक सूत्र को थामे जीवन-भर चलते रहे, जलते रहे और अंततः उनके जीवन की निष्कंप दीप-शिखा बुझ गई. जीवन-दीप का बुझ जाना तो नियति थी, लेकिन बुझने के पहले जो चमक और रौशनी वह छोड़ गए हैं, उसके आलोक से आनेवाली पीढियां अनुप्राणित होती रहेंगी. मुझे विशवास है, देश की राजनीति में जयप्रकाशजी सर्वाधिक  स्वच्छ, पवित्र और जुझारू जन-नायक की भाँति अनंत काल तक स्मरण-नमन किये जायेंगे ! इसमें संदेह नहीं कि भारतीय राजनीति की थाली में वह तुलसी-दल की तरह सर्वाधिक पवित्र आत्मा थे !!
[समाप्त]

2 टिप्‍पणियां:

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

कई बार यहाँ टिपण्णी की, लेकिन गायब हो जाती है. अपना स्पैम ज़रूर टटोलें, वहां कई टिप्पणियां पड़ी होंगीं, प्रकाशन के इंतज़ार में.

आनन्द वर्धन ओझा ने कहा…

मित्रों,
दैनिक जनसत्ता, नई दिल्ली ने ७ अक्टूबर २०१२ को यह सम्पूर्ण संस्मरण 'बहुत याद आते हैं जे० पी०' शीर्षक से प्रकाशित किया है-- उनकी जयंती (८ अक्टूबर) पर !
--आ.