बुधवार, 12 सितंबर 2012

अँधेरी कोठरी के अकेले रौशनदान थे 'जयप्रकाश नारायण'

[दूसरी किस्त]
दूसरे दिन पिताजी इसी निश्चय के साथ उठे और उन्होंने हमें बताया--"मैंने निर्णय ले लिया है, मैं दिल्ली जाउंगा." मैंने झट-से कहा--"मैं जानता था, आप यही निश्चय करेंगे." उन्होंने पूछा--"तुम कैसे जानते थे ?" मैंने उन्हीं का बार-बार का कहा वाक्य दुहरा दिया. वह हंस पड़े और बोले--"अच्छा लगा यह जानकार कि अब तुम बड़े हो गए हो और पिता के मनोभाव समझने लगे हो." यथासमय वह तैयार होकर जयप्रकाशजी और गोयनकाजी से मिलने चले गए. देर शाम जब पिताजी घर लौट आये तो प्रसन्नचित्त दिखे. एक दिन पहले की उनकी व्यग्रता और चिंता तिरोहित हो चुकी थी.चार दिनों बाद का पिताजी को रेल का आरक्षण मिला. इन चार दिनों में उन्होंने पटनासिटी में फैला जाल समेटा, मुझे बहुत-सी हिदायतें दीं, बड़ी बहिन और छोटे भाई यशोवर्धन को बहुत कुछ समझाया-बताया और निश्चित तिथि को वह दिल्ली चले गए.
पिताजी के श्रीमुख से जयप्रकाशजी के बारे में बाल्यकाल से सुनता रहा था--उनकी युवावस्था के दिनों के बारे में, उनके क्रांतिकारी जीवन के बारे में, हजारीबाग जेल की विशाल दीवार लांघ जाने के बारे में और उनके त्याग-तपस्या-समर्पण के बारे में भी; लेकिन उनके दर्शन का सौभाग्य मुझे अब तक प्राप्त नहीं हुआ था. इन चार दिनों के बीच ही मुझे दो बार उनसे मिलने का सुअवसर मिला, पहली बार पिताजी के साथ और दूसरी बार अकेले. दिल्ली जाने के पहले पिताजी को आन्दोलन के बारे में और प्रकाश्य पत्र की दिशा और चिंता के विषय में सब कुछ सीधे जयप्रकाशजी से जानना-समझना और सुनिश्चित करना था. जयप्रकाशजी ने ही पिताजी को दिल्ली-प्रस्थान के पूर्व एक बार मिल लेने को कहा था. पिताजी जब जयप्रकाशजी से मिलने जाने लगे, तो मैं भी उनके साथ हो लिया.
प्रथम दर्शन का सौभाग्य
जयप्रकाशजी के घर के बाहर नेताओं की, आन्दोलन के समर्थकों की और मुलाकातियों की अपार भीड़ जमा थी. हम ठीक निर्धारित समय पर सच्चिदानंदजी के कक्ष में पहुंचे. वह भीड़ से घिरे हुए थे, लेकिन जैसे ही उनकी दृष्टि पिताजी पर पड़ी, नमस्कारोपरांत वह बोल उठे--"चलें, जे.पी. आपकी ही प्रतीक्षा कर रहे हैं." वह सीढ़ियों से हमें प्रथम तल पर ले गए. बारामदे से होते हुए उन्होंने हमें जे.पी. के कक्ष में पहुंचा दिया. पिताजी को देखते ही जे.पी. अपने बिस्तर से उठ खड़े हुए और दोनों हाथ जोड़ते हुए बोले--"आइये मुक्तजी, आपसे विमर्श का समय हो गया है, बैठिये !" पिताजी ने झुककर उन्हें प्रणाम किया और मैंने आगे बढ़कर उनके पूज्य चरण छुए. पिताजी ने मेरा परिचय देते हुए कहा--"मेरे ज्येष्ठ पुत्र आनंदवर्धन हैं और इन दिनों आन्दोलन में बढ़-चढ़कर भाग ले रहे हैं. नागार्जुन और रेणु के साथ नुक्कड़ कवि-गोष्ठियों में भाग लेते हैं और ज्यादातर घर से बाहर ही रहते हैं." पिताजी की बात सुनकर जे.पी. हलके-से मुस्कुराए और बोले--"इस दौर का अपना कर्तव्य निभा रहे हैं, अच्छी बात है."
हम सभी बैठ गए और पिताजी लोकनायक से बातें करने लगे तथा मैंने जे.पी. के प्रभामंडित मुखमंडल पर ध्यान केन्द्रित किया. वह एक आरामकुर्सी पर विराजमान थे. दुग्ध-धवल कुरते-पायजामे में उनकी गोरी काया दीप्तिमान थी. वह दुबले-पतले कद्दावर व्यक्ति थे--उन्नत ललाट, दीर्घ बाहु और लम्बी सुदर्शन उँगलियोंवाले--प्रायः खल्वाट मस्तक ! उनकी तेजस्वी आँखों पर मोटे फ्रेम का चश्मा था और वह पिताजी पर तीक्ष्ण दृष्टि डालते हुए गंभीर विचार-विमर्श में निमग्न थे. मैंने उनके कक्ष पर सर्वत्र दृष्टि डाली--वहाँ सादगी और सुरुचि का साम्राज्य था. उस लम्बवत कक्ष के एक छोर पर अपेक्षाकृत ऊँची पलंग पर उनका बिस्तर लगा था, जिसपर श्वेत चादर बिछी थी, श्वेत तकिये रखे थे. दो दीवारों पर दो चित्र लगे थे--एक पर महात्मा गांधी का, दूसरे पर विनोबा भावे का.एक टेबल पर लिखने-पढ़ने की सामग्री और प्रभावतीजी का फ्रेम-जड़ा चित्र रखा था तथा कुछ पुस्तकें आलमारियों में करीने-से सहेजकर रखी हुई थीं. मुझे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे मैं गाँधी आश्रम के किसी कमरे में आ पहुंचा हूँ. कुछ वैसी ही अनुभूति हुई, जैसी वर्षों पहले (संभवतः १९६५) में सदाकत आश्रम (पटना) में पूज्य राजेंद्र बाबू से मिलते हुए हुई थी. वहाँ एक पूत भाव का स्वतः सृजन हो रहा था...
मैंने देखा, जे.पी. पिताजी को पत्र की रूप-रेखा, दिशा और चिंता के बारे में विस्तार-से बता रहे हैं. पिताजी के प्रश्नों और उनकी जिज्ञासाओं का समाधान करते हुए जे.पी. कभी गंभीर हो जाते, कभी मुस्कुरा उठते. बातों-बातों में पिताजी ने हठात पूछा--"क्या पत्र को शासन-तंत्र की हर अच्छी-बुरी बात का विरोध करना चाहिए, उसके हर आचरण की भर्त्सना करनी चाहिए ?" प्रश्न सुनते ही जयप्रकाशजी ने अपनी दायीं भुजा ऊपर उठाई और पूरी दृढ़ता से दो-तीन शब्द कहे--"no, fair criticism. शासक-दल भी कोई उचित कार्य करता है, जन-भावना का ख़याल रखकर कोई कदम उठाता है, तो हमें उसकी सराहना करनी चाहिए." जे.पी. का हाथ थोड़ी देर हवा में ही ठहरा रहा और उनकी लम्बी उंगलियाँ हवा में ही थरथराती रहीं. उनकी वह मुद्रा मेरे मानस पटल पर सदा के लिएअंकित होकर रह गई है. उम्र की इस दहलीज़ पर खड़े जे.पी. अपने आत्म-बल से सर्वशक्तिमान सत्ता के विरुद्ध हुंकार भर रहे थे, किन्तु उनके मन में अपने धुर विरोधियों के लिए भी रत्ती-भर द्वेष-भाव नहीं था. वह सत्पथ पर अडिग थे और प्रतिपक्षी के उचित आचरण की सराहना करने के पक्षधर थे. उनका यह अकेला वाक्य उनके विशाल और निष्कलुष ह्रदय का साक्ष्य देता-सा लगा मुझे !
[क्रमशः]

2 टिप्‍पणियां:

ashish ने कहा…

हम पढ़ रहे है और विमुग्ध है .. अगली कड़ी की प्रतीक्षा है.

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

हम भी पढ़ रहे हैं, सुन भी रहे हैं, और कमेन्ट के रूप में हुंकारा भी भर रहे हैं... :) अगली पोस्ट पढने जा रहे हैं.