सोमवार, 13 अगस्त 2012

दूब बोली...



विक्षुब्ध भाव से
दूब वृक्ष से बोली हंसकर--
'हे महावृक्ष !
तुम्हारी विराट छाया में
हर्षित-प्रफुल्लित ही रहती हूँ;
किन्तु, मुझे धूप नहीं मिलती
खुला आकाश नहीं मिलता
इस कारण से--
तुम्हारी तरह महावृक्ष बन नहीं पाती,
किसी को छाया का सुख दे नहीं पाती;
क्या करूँ ?'

महावृक्ष थोड़ी देर मौन रहा,
फिर बोला--
'विराट बनना मेरी नियति में था,
सूर्य का प्रचंड ताप सहना
मेरे प्रारब्ध में था,
वर्षा-ओले की तीखी मार खाना
मेरे भाग्य में था; किन्तु--
यदि तुम्हें यह सब सहना पड़ता
तो तुम जल-पिस जातीं,
जन्म पाते ही मिट जातीं !

लेकिन तुम्हारा यह कथन
असत्य है कि
तुम किसी को छाया दे नहीं पातीं,
किसी के योग्य बन नहीं पातीं !
कितनी उपयोगी हो तुम,
तुमको बिलकुल ध्यान नहीं है,
सौभाग्यशाली कितनी हो तुम,
इसका तुमको ज्ञान नहीं है !

सच तो यह है कि
तुम धरती माता के कलेजे से
चिपकी रहती हो,
उसे हरा परिधान पहनाती हो
माँ के कलेजे को ठंडक पहुंचाती हो;
तुम्हारी जड़ों और कोमल पत्रों के नीचे
न जाने कितने कृमी-कीट
क्रीड़ा करते हैं,
जीवन पाते हैं और
प्रमोद में मग्न रहते हैं !

संघर्षों की आँच-तपा
मैं चूर हुआ जाता हूँ
औ' विराट बन
माता से भी दूर हुआ जाता हूँ;
तुम तो भाग्यबली के ही सामान हो,
अपनी लघुता में भी
कितनी सुखी,
कितनी महान हो !'

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