शनिवार, 17 मार्च 2012

साँस-साँस ठहरी-ठहरी ...

ये ज़िन्दगी ख़यालों में
बदहवास-सी गई,
झीनी-झीनी चादर भी
बदरंग-ही मिली !

सोचता हूँ तो नादानी के
बहुत सारे वाकये याद आते हैं
और पकी उम्र में
हम उन पर बेतरह पछताते हैं !

हमने घोसले तोड़े, अंडे फोड़े;
कच्चे-पक्के फल तोड़े
आधे खाए, आधे फेंके;
कागज़ की फिर नाव बनायी,
जल में छोड़ी !
हरी पत्तियाँ, टहनी तोड़ी,
तितली पकड़ी, मसली, छोड़ी;
उपवन दिया उजाड़
और गमलों में पौधे डाले !

छोटे पिल्ले, सुन्दर-सुन्दर तोते पाले,
एक दिन पिंजरा खुला रह गया,
उड़कर प्यारा तोता भागा !
छोटा पिल्ला बड़ा हुआ तो
गुर्राता वह घर से भागा !

वे दिन तो नादानी में ही बीत गए,
जो पढ़ने में पीछे थे,
मुझसे जीत गए !
जाने कब हम बड़े हो गए
अपने पैरों पर खड़े हो गए !
यौवन पानी की धार बना--
कनक कछारों को छूता,
जाने कब का चला गया !
सपनीली आँखों का सपना--
विधिवशात ही छला गया !
गुनाहगार बन गया सफ़र
अनजाने, अनचाहे ही,
रोटी-कपड़े पर उलझ गई
साँस-साँस ठहरी-ठहरी !

अब हाय, ज़रा की डायन तन के
दशद्वार पर देती है दस्तक,
अपने साहस की हठधर्मी
और चलेगी जाने कब तक ?
कभी मूर्च्छना का कोई क्षण
ऐसा भी तो आयेगा--
जो हमारी संरचना को
मिटटी का मोल बताएगा !!

4 टिप्‍पणियां:

vandana gupta ने कहा…

कभी मूर्च्छना का कोई क्षण
ऐसा भी तो आयेगा--
जो हमारी संरचना को
मिटटी का मोल बताएगा …………यही है शाश्वत सत्य्।

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

कविता की बातें हैं गहरी
साँस-साँस ठहरी ठहरी।

Shalini Khanna ने कहा…

सुन्दर रचना..............

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

हमने घोसले तोड़े, अंडे फोड़े;
कच्चे-पक्के फल तोड़े
आधे खाए, आधे फेंके;
कागज़ की फिर नाव बनायी,
जल में छोड़ी !
हरी पत्तियाँ, टहनी तोड़ी,
तितली पकड़ी, मसली, छोड़ी;
उपवन दिया उजाड़
और गमलों में पौधे डाले !
ऐसा सत्यानाश तो अधिकतर बच्चे करते हैं, लड़के कुछ ज़्यादा करते हैं, और यही समय है, अपने बचपन से लेकर अभी तक की गतिविधियों को जांचने-परखने का. जब तक जीवन है, हठधर्मिता इंसान के एक अनिवार्य भाव के रूप में साथ चलती है. सुन्दर जीवन दर्शन है कविता के माध्यम से.