गुरुवार, 5 जनवरी 2012

खरामा... खरामा...

धूप का एक टुकड़ा
मेरे आँगन में मुस्कुराया,
मैंने सजदे में सिर झुकाया और--
खुद को समझाया--
चलो, एक उजाला
मेरी गिरफ्त में है;
लेकिन शाम से पहले ही
धूप का वह टुकडा
आँगन से नदारद था !
मैं मायूस तो था,
फिर भी मुस्कुराया था--
धूप-छाँव की यह ज़िन्दगी
यूँ ही कटेगी--
खरामा... खरामा ..... !!