रविवार, 12 सितंबर 2010

समाधान ही विराम बन गया है...

सांप-सी रेंगती नदी के पास
मैं आज भी खाली हाथ
खड़ा हूँ !
उजाले का विश्वासघात
और अंधेरों का सपना
मैं बहुत पीछे छोड़ आया हूँ !
इस रुआंसी हो आयी शाम में
पाकड़ की टहनी से लटके
किसी चमगादड़ की तरह
उलटबांसियों-सी ज़िन्दगी का
ज़हर मैंने पिया है
और घूरे पर फ़ेंक आया हूँ
अपना भाग्य...
और याचना की तमाम कुंठाएं
उस रूपसि के चरणों पर
रख आया हूँ,
जिसने मेरी सारी भावनाओं को
संबोधनहीन स्नेह के नाम पर
कैद कर लिया है !

न जाने कौन-से लुत्फ़ के लिए
जिसने मेरे विश्वास को ज़हर
और अपने स्नेह को अमृत कहा है--
उस सम्मिश्रण को विष जानकार भी
मैंने पिया है !
लेकिन एक प्रश्न
आज भी ज़िंदा है;
सांप-सी रेंगती और
अनिर्दिष्ट तक चली गई
उस नदी की तरह,
जिसके मुहाने पर
मैं आज भी खाली हाथ खड़ा हूँ--
पीछे छूट गए तुम्हारे तमाम
आश्वासनों की लाश पर
औंधा पड़ा हूँ !!

मस्तिष्क की पतली शिराओं में
आज भी बहती-सी लगती है वह नदी...
और मैं वहीं खड़ा देखता हूँ अपने आपको
जहां तेज़ बहाव से कट रही है
मुहाने की मिट्टी... !

इस ज़िन्दगी के दस्तावेज़ पर
वक़्त के पड़े बे-वक़्त निशान
और उस पहचान के नाम--
प्रवाहित करता हूँ ये इबारतें;
जिसमे हर शक्ल अनजान
और हर समाधान
एक विराम बन गया है !!