बुधवार, 30 जून 2010

उम्मीदों की आत्महत्या !

तुमने उसे पत्थर समझ
जोर से पटका--
कि जानो आग कितनी है !
तुमने उसे पारस समझ
जोर से रगडा--
कि जानो तुम्हारे संशयों में
सच्चाई कितनी है !
तुमने उसे स्वलिखित कविता समझ
निःशब्द पढ़ डाला--
कि जानो तुम्हारे संप्रेषणों में
अर्थपूर्ण बात कितनी है !

सच है,
तुमने उसे पत्थर समझ
जोर से पटका--
पत्थर के कण-कण बिखरे
क्षत-विक्षत हुआ था फर्श
और बिखरे कण छिटककर
दूरस्थ आत्मीय और हितैषी
बंधुओं को भी लगे थे--
तुम ही अनजान थे इससे !
तुम्हीं अनजान थे इससे
कि टूटे और तडके थे--
उनकी मन-वीणा के तार
बिखरकर रह गए थे
आशाओं के अम्बार !

पीड़ा थी--
असह्य पीड़ा,
बोझिल था मन,
विथकित और असहाय था--
प्रकृति का तन !

तुम उन्हें ही टेरने लगे पहले,
उस पुनीता कि कथा
पहुंचाई थी तुमने
स्वजन पंचों के बीच--
वे सभी मूक-द्रष्टा ही रहे--
ईश्वर बने !

तभी तुमने फिर ये चाहा
कि सहेजूँ उसी पत्थर को--
समेटूं -- अंजुरी भर लूं !
छद्म वेश में,
नए आवेश में--
तुम फिर बढे...
पर हाय, नियति की रूप-रेखा,
जिसे तुमे पत्थर समझ
फर्श पर था जोर से पटका--
वह तो स्फटिक रत्न था,
कण-कण बिखरकर
वह भी अपनी नियति पर स्तब्ध था !

तुमने उसे पत्थर समझकर
था जोर से पटका
और विधाता ने तुम्हारे हाथ से
यूँ ही अचानक
जो मिला था रत्न--
वह झटका !!

सोमवार, 21 जून 2010

सारी हदें बढ़ने लगी हैं ...

[ग़ज़लनुमा]

गुमशुदा लाशें लहरों से ये कहने लगी हैं --

क्यों हवाएं आज परेशान-सी रहने लगी हैं !


वतन की हर गली में हादसों की क्या कमी थी,

सौहार्द्र की इन सीढ़ियों पर चींटियाँ चढ़ने लगी हैं !


वे जल-समाधि पा गए जो उम्र भर जलते रहे,

नाशुक्र आँखें आज फिर क्यों इस तरह बहने लगी हैं ?


हमारी गमगुसारी के लिए इस तंत्र में हलचल हुई,

मुआवज़े को ये कतारें फिर वहीँ लगने लगी हैं !


क्यों फरारों के लिए वारंट जारी कर दिए--

इन तमाशों को भला क्यों पीढियां सहने लगी हैं ?


हादसों के सिलसिले अब हद से ज्यादा हो गए,

इस 'बड़े' जनतंत्र में सारी हदें बढ़ने लगी हैं !!