बुधवार, 31 मार्च 2010

एक दशाब्दी की कविता...

{सौवीं प्रविष्टि}

उपनगरों के देवता !
महानगर के कुम्भकर्ण की आँखों में
अब तुम भी जीने लगे हो !

शहर के कुछ आवारा छोकरों ने
शुरू कर दिया है
तुम्हें ब्लैकमेल करना,
पान की गुमटियों पर खड़े होकर
सीटियाँ बजाने में,
फब्तियां कसने में,
किसी नवयौवना को
नगरवधू की संज्ञाएं देकर पुकारने में
तुम ज़िन्दगी का चाहे जितना मज़ा लो,
इस यात्रा तुम खो गए हो--
यह निश्चित है !

भाग-दौड़ की इस कविता में
एक दशाब्दी से मैं
खुद अपने आपको तलाश रहा हूँ;
लगता है,
बंद सीलन-भरे कमरे में
बूँद-बूँद कर मैं रीत गया हूँ,
अंधे उजड्ड मौसम-सा बीत गया हूँ !

प्रेम-संबंधों की शव-यात्रा में
मुझे शामिल मत करो
इस अहसान के बदले
मैं अपनी ज़िन्दगी की
तमाम जीवित संवेदनाएं
तुम्हें भेंट कर सकता हूँ;
लेकिन, इस उपलब्धि पर
तुम जश्न मत मनाना--
इस त्याग में भी
मेरा ही स्वार्थ होगा;
क्योंकि मैं--
भावनाओं के कमजोर आंसुओं में
एक मज़बूत इरादे को जन्म दे रहा हूँ !

जब तुमने मेरी छाया के कई टुकड़ों को
बहुत सारे आवारा नाम मत पुकारा था
और रेत की दीवार समझ
मेरी भावनाओं पर
अपने दिमागी बेहया खच्चरों को
दौडाया था--
मैं तब भी चुप था,
आज भी हूँ;
भाषा को उद्गारो का
आधार मान लिया है मैंने;
क्योंकि --
महानगर की इन काली छायाओं के बीच
अखंड मौन का एक कठिन व्रत लेकर
मैं दशाब्दी से खडा हूँ !!

बुधवार, 24 मार्च 2010

ताहि बिधि 'मस्त' रहिये...


[समापन किस्त]

एक दिन पिताजी राजेन्द्र बाबू के पास पहुंचे, तो उनके आसपास अधिक भीड़-भाड़ नहीं थी। वह हलके-फुल्के मूड मे थे। संभवतः, अलभ्य-से फुर्सत के क्षण थे वे ! पिताजी और राजेंद्र बाबू के बीच वार्ता अधिकतर भोजपुरी में ही होती थी। वह शुरू हुई। पिताजी ने कहा--"जब आपके कक्ष में प्रवेश करता हूँ, तो द्वार पर लगे लकड़ी के पट्ट पर दृष्टि पड़ जाती है--उसे पढता हूँ और सोचता हूँ की बाबा तुलसीदासजी तो ज्ञानी थे; बात तो उन्होंने ठीक ही लिखी है; लेकिन इसमें आदमी का पुरुषार्थ महत्त्वहीन हो जाता है, उसके पौरुष का कोई मतलब नहीं रह जाता। वह बहुत दीन-हीन बन जाता है कि हे भगवान् ! तुम जैसे रखोगे, वैसे ही रहूंगा । मैं इसमें एक शब्द जोड़ दूंगा, तो छान्दोभंग तो हो जाएगा; किन्तु बात में मज़ा आ जाएगा ।" ['जब राउर कोठरिया में प्रवेश करेनीं, तअ दुअरा प लागल लकडिया के पट्ट पर दृष्टि परि जाला। ओकरा पढ़ेनीं अउर सोचेनीं कि बाबा तुलसीदासजी त गियानी अमदी रहले। बतिया त ठीके लिखले बाड़े, बाकिर एकरा में अदमी के पुरुषारथ एकदमे महत्त्वहीन हो जाला। ओकर पौरुष के कौनो मतलबे ना रहि जाला, ऊ बड़ा दीन-हीन बनि जाला कि हे भगवान् ! तूं जइसे रखब, ओसहीं रहब। हम एकरा में एगो शब्द जोड़ देब, त छान्दोभंग त हो जाई, बाकिर बात में मज़ा आ जाई।']

पिताजी बताते थे कि अपनी घनी और लम्बी मूंछों में राजेंद्र बाबू बड़ा मीठा मुस्कुराते थे। वैसी ही मीठी मुस्कुराहट के साथ उन्होंने पूछा--"क्या जोड़ देंगे ?" [ 'का जोर देब ?']
पिताजी ने कहा--" पहली पंक्ति तो ठीक ही है कि न हिम्मत हारिये और न प्रभु को बिसार दीजिये। दूसरी पंक्ति में--जाहि बिधि राखे राम, ताहि बिधि 'मस्त' रहिये। मैं बीच में एक शब्द 'मस्त' जोड़ देना चाहता हूँ कि हे प्रभु ! तुम जैसे भी रखो, मैं तो मस्त ही रहूँगा।" ['पहिल पंक्तिया त ठीके ह कि ना हिम्मत हार, ना प्रभु के बिसार द। दूसर पंक्तिया में--जाहि बिधि राखे राम, ताहि बिधि 'मस्त' रहिये। हम बीच में एगो शब्द 'मस्त' जोर दीहल चाह तानी कि हे प्रभु ! तूं जैसे राख, हम त मस्ते रहब।']

पिताजी कि बात सुनकर राजेंद्र बाबू ठठाकर हंस पड़े; किन्तु दो क्षण बाद ही संयत होकर गंभीर स्वर में उन्होंने काहा--"आप कह तो ठीक ही रहे हैं; लेकिन ये 'मस्त' रहना बड़ा कठिन है। यह इतना आसान नहीं है।" [रऊआ कहत त ठीके बानी, बाकिर ई 'मस्त' रहल बड़ा कठिन बा। ई एतना आसान नइखे ।']
बात आयी-गई, हो गई। पिताजी मुलाक़ात के बाद घर लौट आये, लेकिन राजेंद्र बाबू की बात उनके दिल में कहीं गहरे बैठ गई थी । सन १९५२ से १९९५ तक--४३ वर्षों के प्रसार में मैंने पिताजी के श्रीमुख से यह कथा बार-बार सुनी है, कभी किसी प्रसंग में, कभी किसी आगंतुक को सुनाते हुए, परिवारी या किसी मुलाकाती को सांत्वना देते हुए अथवा ज्ञानवर्धन के लिए हमें समझाते हुए।

राजेंद्र बाबू का कथन असंगत नहीं था। हम छोटी-छोटी तकलीफों में टूट जाते हैं, व्यथा के स्पर्श मात्र से हमारी रंगत बदल जाती है, निष्प्रभ और विदीर्ण हो जाता है हमारा मुख-मंडल--ऐसे में 'मस्त' रहने की कल्पना भी हम नहीं कर पाते। लेकिन होशगर होने के बाद से, पूज्य पिताजी से विछोह के क्षण तक, मैंने हमेशा उन्हें 'मस्त' ही देखा है। आत्यंतिक दुःख, कष्ट, पीड़ा और तनाव के क्षणों में भी मैंने उन्हें प्रसन्न और सस्मित ही देखा है। उन्होंने 'मस्त' रहने के कठिन कर्म को जाने किस योगबल से अपने लिए सरल बना लिया था--ऐसा मैं साधिकार कह सकता हूँ; क्योंकि मैं इसका साक्षी रहा हूँ !
[इति]

ताहि बिधि 'मस्त' रहिये....


[स्मृतियों की मंजूषा से एक लघु संस्मरणात्मक आलेख]

बात तब की है, जब देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ० राजेंद्र प्रसाद अपना कार्य-काल पूरा करके पटना लौट आये थे और सदाकत आश्रम में निवास करने लगे थे। तब मैं बहुत छोटा था, संभवतः पांचवीं कक्षा में पढता था। मुझसे पाँच साल छोटी बहन 'महिमा', मस्तिष्क-ज्वर की मारी हुई, अविकसित बोध की बच्ची, तो बहुत ही छोटी थी। उन दिनों उसे न जाने क्या धुन सवार रहती थी कि किसी भी आगंतुक को देखती तो झट अपने दायें हाथ की तर्जनी से उसके चरणों का स्पर्श करती और वही उंगली अपने मस्तक से लगाती। अपने इस आचरण में वह कोई भेद-भाव न करती। घर में काम करनेवाली धाय हो या धोबी, अखबारवाला हो या रिक्शेवाला, ढूधवाला हो अथवा संभ्रांत वेश-भूषावाला कोई मुलाकाती--वह सबके चरण अपने इसी कौशल से छुआ करती।

एक दिन पिताजी (पुण्यश्लोक पं० प्रफुल्लचन्द्र ओझा 'मुक्त') दफ्तर से जल्दी लौट आये । आते ही उन्होंने मेरी माता से कहा--"मुझे एक कप चाय दीजिये और आपलोग जल्दी से तैयार हो जाइए। सदाकत आश्रम जाना है। राजेंद्र बाबू ने मिलने के लिए सपरिवार बुलाया है।" हम सभी जितनी देर में तैयार हुए, उतनी देर में पिताजी ने चाय पी ली थी। उन्होंने अपनी कार निकाली और हम चारों भाई-बहन माता-पिताजी के साथ सदाकत आश्रम की ओर चल पड़े।

सदाकत आश्रम तो तपस्थली-सा था। वहाँ नीरव शान्ति विराज रही थी। गाँधी टोपीधारी एक कार्यपालक ने हमें सीधे पूज्य राजेंद्र बाबू के कक्ष में पहुंचा दिया। पुराने ज़माने की ऊँची पलंग पर देशपूज्य राजेंद्र बाबू पालथी लगाए बैठे थे। हम सबों ने बारी-बारी से उनके चरणों का स्पर्श किया। मेरी माता ने सबसे अंत में उन्हें प्रणाम निवेदित करने के बाद महिमा से कहा--"बाबा को प्रणाम करो बेटा ।" मेरी बहन फर्श पर खड़ी थी और राजेंद्र बाबू ऊँची पलंग पर थे। महिमा ने आँखें नीची कीं और राजेंद्र बाबू के चरण खोजने लगी; लेकिन चरण तो पालथी में दबे थे, मिलते कैसे ! महिमा संभ्रम में थी कि चरण ही नहीं हैं, तो प्रणाम कैसे करूँ ? अचानक उसने अपना सिर उठाया और तभी उसे राजेंद्र बाबू के एक पैर की उंगलियाँ पालथी से झांकती दिख गईं। उसके चहरे पर प्रसन्नता की रेखाएं खिंच आयीं। फिर उसने ज़रा भी देर नहीं की, अपनी तर्जनी से राजेंद्र बाबू के चरण को छूकर उसने अपने मस्तक से लगाया। राजेंद्र बाबू खुलकर हँसे और महिमा को फर्श से उठाकर उन्होंने अपनी गोद में बिठा लिया। हमलोग वहाँ करीब एक घंटे तक रहे। बच्चों के लिए मिठाइयाँ और बिस्कुट तथा माता-पिताजी के लिए चाय आयी। पिताजी देर तक राजेंद्र बाबू से घर-परिवार, स्वास्थ्य और काम-धाम की बातें करते रहे। हम लौटे, तो गौरव-भाव से भरे हुए थे--गर्व-स्फीत हुए-से ! बहुत नज़दीक से पहली और अंतिम बार वही उनका दुर्लभ दर्शन मुझे मिला था।

लेकिन, अब जो मुझे कहना है, वह बात थोड़ी पुरानी है--सन १९४० के आसपास की। मेरे जन्म के प्रायः १२ वर्ष पहले की। कालान्तर में, ४३ वर्षों के सान्निध्य में, मैंने पिताजी से अनेक बार यह कथा सुनी है और यत्किंचित मन में गुनी भी है। उन दिनों पिताजी 'आरती' नाम की एक साहित्यिक पत्रिका का सम्पादन कर रहे थे। इस पत्रिका के संरक्षक थे--देशरत्न डॉ० राजेंद्र प्रसाद। पत्रिका से सम्बंधित अनेक विषयों पर चर्चा के लिए पिताजी जब-तब सदाकत आश्रम जाया करते थे। राजेंद्र बाबू के कक्ष के बाहर द्वार के दोनों तरफ लकड़ी के दो पट्ट लगे हुए थे। एक पट्ट पर लिखा था-- "हारिये न हिम्मत बिसारिये न हरि नाम।" और दूसरे पर अंकित था--"जाहि बिधि राखे राम ताहि बिधि रहिये ।" पिताजी जब जाते, इन दोनों पट्ट पर उनकी नज़र पड़ती और वह राजेंद्र बाबू के कक्ष में प्रविष्ट हो जाते।...

[अगली कड़ी में समापन...]

रविवार, 21 मार्च 2010

'चट्टान नहीं हूँ...'

[एक परित्यक्ता की व्यथा-कथा का यह काव्य पहले भी मेरे ब्लॉग पर अवतरित हुआ था। लेकिन मेरी ही किसी असावधानी से कतिपय टिप्पणियों के साथ विलुप्त हो गया था। उसे पुनः आपके सम्मुख रख रहा हूँ--आ।]

आओ मुझको तोड़ो
खंड-खंड कर दो
धूल-धूसरित कर दो मुझको
मैं प्रतीक्षा में मौन सदियों से खड़ी हूँ !

मन के आँगन की हरियाली
सूख गई है,
बंजर धरती बन
मरुभूमि की मृगतृष्णा भी
रूठ गई है।
फिर भी जाने कौन पुकारा करता मुझको
और न जाने मैं किसको
तकती रहती हूँ;
निपट अकेली, वन-प्रांतर में
क्षीण नदी की धारा-सी
बहती रहती हूँ !

टूटेंगे, सब भ्रम टूटेंगे,
दुर्दिन-दुर्योग कभी छूटेंगे--
इसी आस में चट्टान बनी
रह गई अकेली;
लडती हूँ अपने ही मन से
आसपास बिखरे कण-कण से ।

दैव-कृपा भी जाने कब हो
मन-ही-मन सोचा करती हूँ
उस निष्ठुर अपराधी प्रभु को
पल-प्रतिपल कोसा करती हूँ ।

जान रही हूँ,
बनी अहल्या -जैसी प्रतिमा
जाने किसके पदाघात से
कब, अनजाने--
प्राण-संचरण होंगे मुझमे
और न जाने प्रभु राघव की अनुकम्पा से
सदविचार, सदगुण, सद्भाव
जागेंगे तुममे !

मेरे पुण्य, तपस्या मेरी
यूँ ही क्या निष्फल जायेगी ?
एक घडी तो वह आएगी
बहुत दूर से चलकर तुमको
जब मुझ तक आना ही होगा;
कुलिश-कठोर अपने प्रहार से
वज्र सरीखी प्रीति-धार से
खंड-खंड कर मुझमे तुमको
नव-जीवन भरना ही होगा--
इतना ही विश्वास मुझे है,
इसका ही आभास मुझे है !

आओ मुझको तोड़ो
खंड-खंड कर दो
धूल-धूसरित कर दो मुझको
मैं प्रतीक्षा में मौन
सदियों से खड़ी हूँ !
किन्तु, यह विश्वास तुम्हें करना होगा--
चट्टान नहीं हूँ !!

मंगलवार, 16 मार्च 2010

दुविधा की देहरी से...

[सच, वह सच कहता है !]
साम्प्रदायिकता की बोतलों में
संकीर्णता का लेबल चिपका कर
कुंठाओं के कार्क लगा
तुम मुझे भी उसमें
बंद कर देना चाहते हो :
मेरे लिए तो बड़ी मुश्किल है,
भई , बड़ा द्वंद्व है !

प्रातः-प्रकाश
सांस लेने की
देता है अनुमति
और कलमुहीं रात
हाथ में काला हंसिया ले
मेरी ह्त्या कर देना चाहती है !
समझ नहीं पाता मैं
कब तक--
मैं अपने चहरे पर चूना रगड़ता रहूंगा;
और तुम्हारे चहरे पर
इंसानियत की नर्म रेखाओं की
तलाश में भटकता रहूंगा !
और मस्तिष्क के तूफ़ान को
कागज़ की फजीहत बनाता रहूंगा !!

क्या यही बेहतर है
कि मैं भी बोतल-बंद हो जाऊं ?
शांत कर लूं अपना भेजा
और मानवता की निस्सीम परिधि से
बाहर हो जाऊं ?
लेकिन, उस कैद से पहले,
मैं कुछ प्रश्न पूछ लेना चाहता हूँ--
आत्म-प्रहरी से,
दुविधा की देहरी से !

क्या आपने कभी
दुविधा की देहरी से
आत्म-प्रहरी के दरवाज़े की
सांकल बजायी है ?
एक अदद कोशिश से
क्या बिगड़ता है ?
क्योकि
वह प्रहरी जो कहता है--
सच कहता है !!

शनिवार, 13 मार्च 2010

इसी शहर में...

दीवारो-दर पे लिख दीं कहानियाँ तुमने,
हैं कहाँ-कहाँ छोड़ीं नहीं निशानियाँ तुमने !

मेरा जुनून रहा हाशिये पे आज तलक,
पशेमाँ हसरतों की बढ़ा दीं परेशानियां तुमने !

एक समंदर आँख में लबरेज़ होता ही रहा,
नज़रअंदाज़ नज़रों को सौंपीं निगहबानियाँ तुमने !

हर दरखत की ज़मीन पुख्ता हो, ज़रूरी तो नहीं,
शाख के पत्तों को दीं क्यों जवानियाँ तुमने !

इसी शहर में कहीं खो गया मेरा जख्मी वजूद,
बड़े ख़ुलूस से पैदा कर दीं निगरानियाँ तुमने !!

बुधवार, 3 मार्च 2010

कागज़ से उठकर...

[वि-संवादी कविता]

एक दिन तुम्हारे शब्द
ठीक तुम्हारे सामने आ खड़े होंगे !
घूरेंगे तुम्हें,
पूछेंगे सवाल,
कुछ कहते बनेगा तुमसे ?
क्या उत्तर दोगे उन्हें ?
उत्तर के लिए
शब्दों को तौलकर
जोड़ लिया है क्या ??

गैरमुनासिब वक़्त में
आवेश में, और--
क्रोध की गिरफ्त में
वमन किया था
जिन शब्दों का तुमने
वे समयाकाश में
पंक्तिबद्ध, प्रतिबद्ध खड़े हैं
एक अंतराल की प्रतीक्षा में
कि कब --
सघर्षों और तनावों की डोर में
थोड़ी-सी ढील हो
और वे सम्मुख उपस्थित हो जाएँ
तुमसे हिसाब मांगते हुए...

और...
और जीवन की डोर में
ढील तो होनी थी --
हुई;
और वे उगले हुए शब्द
सचमुच आ पहुंचे हैं
ठीक तुम्हारे सामने !
अपने प्रश्नों और
तुम्हारे उत्तरों की समीक्षा के लिए !
पलटवार के लिए !!

मैंने भी अन्तराकाश में
जोड़ लिए हैं कुछ शब्द--
नवीनतम उत्तर के लिए--
दीनता से नहीं,
दृढ़ता से कहूंगा उनसे :--
"कविता एक दिन
जीवन बन जायेगी
कागज़ से उठकर !!"