शुक्रवार, 27 नवंबर 2009

बर्फीली घाटियों का क्लेश...

[ताड़-पत्र से ली गई एक और पुरानी कविता]


मैं विवश हूँ सोचने पर
मान्यताओं और आस्थाओं का ज्वार
कब और क्यों
भावनाओं के तट से टकराता है,
एक साथ कई शून्य
कब मस्तिष्क में उभर आते हैं,
अशांति के गीत गाते हैं !

जख्मों की मरहम-पट्टी कर लो
शायद ज़िन्दगी फिर से बुलाने
आ गई है,
शब्द सारे शून्य में यूँ मत उतारो
भावनाओं का महासागर खड़ा है,
एक अन्तिम अस्त्र का विश्वास क्या है ?

रात्रि की निस्तब्ध काली यातनाओं का
करो मत ज़िक्र,
मित्र मेरे मान जाओ--
वह आघात ऐसा है
जो हृदय में सीधे उतरना चाहता है,
अवरोध तुम्हारा सरल है,
यह नहीं है बूँद अमृत की
अपमान का अमृत गरल है !

लेकिन,
मैं तुम्हें कैसे बताऊँ
आज का आदमी बहुत बंधा है,
विषमताओं के भयंकर
काल के सम्मुख खड़ा है;
दृष्टियों का दोष ही अब शेष है;
पर नियति की क्रूरता का क्या ठिकाना

यह बर्फीली घाटियों का क्लेश है !!

[पूज्य बच्चनजी को उनके १०२ वें जन्म-वर्ष पर सप्रणाम--आनंद !]

गुरुवार, 19 नवंबर 2009

साहित्याकाश के शब्द-शिल्पी : बेनीपुरी

[छठी और अन्तिम किस्त]

बेनीपुरीजी से जब कुछ पूछने, जानने और सीखने की योग्यता हुई, तब उन्होंने जीवन-जगत से छुट्टी पा ली थी। पूज्य पितामह के एकमात्र चित्र की जो चर्चा मैंने पहले की है, उसका पूरा विवरण भी मैंने उंनकी इसी संस्मरणात्मक पुस्तक में पढ़ा था, फिर पिताजी से पूछ-पूछकर सम्पूर्ण इति-वृत्त जाना था। संभवतः १९२९-३० में, इलाहबाद में बेनीपुरीजी ने किस तरह मेरे कठोर सिद्धांतवादी और अपनी मान्यताओं पर दृढ़ रहनेवाले पितामह को अपने वाक्-चातुर्य से एक चित्र खिंचवाने के लिए विवश कर दिया था।
बेनीपुरीजी ने अपने दीर्घ जीवन में साहित्य और राजनीति--दोनों दिशाओं में बहुत काम किया था। वह लोकनारायण जयप्रकाश नारायण के बहुत निकट और अंतरग रहे। उन्होंने हिन्दी गद्य को नए आयाम दिए, नई ऊँचाइयाँ दीं। अनेक पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन प्रकाशन किया, जिनमें 'बालक', 'युवक', 'जनता' और 'योगी' बहुचर्चित पत्रिकाएं रहीं। अपने हिंदीसेवी मित्र गंगाशरण सिंह के साथ मिलकर उन्होंने 'युवक' का सम्पादन किया था और माखनलाल चतुर्वेदी के आग्रह पर दैनिक पत्र 'कर्मवीर' से भी जुड़े थे। उनके ललित निबंध ऐसे थे कि उन्हें हिन्दी साहित्याकाश का चितेरा शैलीकार कहा गया। उन्हें भाषा पर असाधारण अधिकार था। वह शब्दों की पहचान रखनेवाले अनूठे शिल्पी थे।
मेरे पिताजी से उनकी युवावस्था की मित्रता थी। उम्र में बेनीपुरीजी ५ वर्ष बड़े थे, लेकिन मित्रता 'तुम-ताम' की थी। सन १९३४ में मेरे पितामह की मृत्यु के बाद पिताजी आजन्म-सेवित इलाहाबाद छोड़कर पटना आ बसे थे। सन १९३९ में पिताजी ने अज्ञेयजी के साथ मिलकर 'आरती' मासिक का सम्पादन-प्रकाशन किया था। 'आरती' के बारे में प्रसिद्ध कवि मोहनलाल महतो 'वियोगी' जी ने सन १९४० के एक पत्र में पिताजी को लिखा था--''भाई ! 'आरती' आयी। प्रकाशमान है। एक 'युवक' था, जिससे बड़ी उम्मीदें थीं, वह असमय ही काल-कवलित हो गया ! जैसी हरि-इच्छा ! बेटा न सही, बेटी ही सही। बिटिया 'आरती' ही घर को बेचिराग होने से बचावे !... और तुम--क्या मैं भूल गया हूँ तुम्हें ? इस जन्म में तो गंगा, मुक्त और बेनीपुरी--त्रिदेवों को भूल नहीं सकता, पर-जन्म की राम जाने !''
वक्त का कितना लंबा और बड़ा टुकड़ा हाथ से फिसल गया है, मौसम ने कितनी बार और कैसे-कैसे रंग बदले है कि अब बहुत पीछे तक साफ-साफ़ दीखता भी नहीं। लेकिन इतना तय है कि आज वे सारे मित्र देवलोक में निवास करते हैं, वे वहाँ भी मिलकर किसी नई कार्य-योजना में ही लगे होंगे। कौन जानता है, वे सभी कब अपना समय वहाँ पूरा करके पुनः भारत-भूमि का स्पर्श करेंगे और देश के वन्दन में सम्मिलित स्वर में गायेंगे... । जब ऐसा होगा, तब मैं जाने कहाँ होउंगा ! लेकिन मन में कामना जागती है.... और चाहता हूँ कि वे सभी जब भारत और भारती के वंदन में, समवेत स्वर में गायें, मैं भी वहीँ कहीं आसपास होऊं....!!

बुधवार, 18 नवंबर 2009

साहित्याकाश के शब्द-शिल्पी : बेनीपुरी

[पांचवीं किस्त]

दिन एक-सा नहीं रहता, मौसम एक-सा नहीं रहता; वह रंग बदलता रहता है। वे बौराए दिन भी बीत गए। सन १९६५ में मेरी माताजी विद्यालय निरीक्षिका के पद पर नियुक्त होकर हम बच्चों के साथ रांची चली गईं । आकाशवाणी की सेवा से बंधे पिताजी पटना में ही रहे। श्रीकृष्ण नगर में तिनका-तिनका जोड़कर जो नीड़ बना था, वह बिखर गया। मनन-रतन और छोटन--मेरे मित्र मुझसे बिछड़ गए--नशेमन उजड़ गया। बेनीपुरीजी भी पटना में अधिक समय तक नहीं रह पाते थे। वह कभी मुजफ्फरपुर तो कभी बेनीपुर चले जाते थे। सन १९६८ में एक दिन अचानक उनके देहावसान का दुखद समाचार हमें अखबारों से मिला। अपने समय में देश की तरुणाई को आवाज़ देनेवाला, शीतल छाया प्रदान करनेवाला विशाल बरगद धराशायी हो गया था....
राँची में दो साल कार्यरत रहने के बाद घर के समीप आने की लालसा से मेरी माताजी ने स्थानान्तरण की मांग की थी। उन्हें सोनपुर (पटना की गंगा के पार का एक शहर) स्थानांतरित कर दिया गया। वहां कुछ महीने ही बीते होंगे कि सन १९६८ के अन्तिम महीने में हृदयाघात से अचानक माताजी का भी निधन हो गया। माता के लोकान्तरण से आहात पूरा परिवार एक बार फिर पटना में एकत्रित हुआ; लेकिन मातृ-विहीन बच्चों को लेकर पिताजी श्रीकृष्ण नगर में न रह सके और पटनासिटी में मेरी ननिहाल में रहने लगे। तब मैं ग्यारहवीं कक्षा का छात्र था। मेरी अधकचरी कविताई तो आठवीं कक्षा से ही शुरू हो गई थी, लेकिन ग्यारहवीं तक आते-आते रुचियाँ परिष्कृत होने लगी थीं। युवा होते आम पर बौर आने लगे थे....
बाद के दिनों में मैंने बेनीपुरी साहित्य पढ़ा। उन पर लिखा पिताजी का संस्मरण पढ़ा। लेकिन बेनीपुरीजी के संस्मरणों का संग्रह (वे दिन...) पढ़कर मैं अवसन्न रह गया। कैसे संघर्षों के तपते रेगिस्तान को उन्होंने अपनी छाती के बल रेंगकर पार किया था ! अपनी माताजी के निधन का जो रोंगटे खड़े कर देनेवाला वृत्तान्त बेनीपुरीजी ने शब्दों में बांधा है, उसे पढ़कर मैं अन्दर तक हिल गया था। मैंने भी मातृ-वियोग का आघात ताज़ा-ताज़ा सहा था, आहत था, मर्म-विद्ध था। ऐसे में बेनीपुरीजी का वह दस्तावेज़ मेरे कलेजे की हड्डियाँ मरोड़ता था !.... रूढ़िवादी मान्यताओं और लोकाचारों की दुहाई देकर उनकी माता के शव-दाह के पूर्व किए गए अमानवीय कृत्यों का मार्मिक वृत्तान्त तो पाषाण को भी पिघला देनेवाला था। सच कहूँ तो बेनीपुरीजी की मातृ-विछोह की पीड़ा के सम्मुख मुझे मेरी पीड़ा छोटी जान पड़ी थी। और शोक-शमन के लिए वह मेरा संबल भी बनी थी कभी.... उस दस्तावेज़ को मैंने उन दिनों बार-बार पढ़ा था और मेरी आँखें बार-बार भर आती थीं। अंपनी बाल्य-काल की शैतानियों को याद करके मेरा मन क्षोभ से भर उठता था... और एक पश्चाताप मेरी अंतरात्मा पर छा जाता था दीर्घ-काल के लिए....
[क्रमशः]

मंगलवार, 17 नवंबर 2009

साहित्याकाश के शब्द-शिल्पी : बेनीपुरी

[चौथी किस्त]

सन १९६६ तक श्रीकृष्ण नगर में हमारा रहना हुआ और बेनीपुरीजी के परिवार से मेरी निकटता बढती गई। भाभी बहुत स्नेही, मुखर और सुदर्शना थीं। घर-भर को साफ़-सुथरा और व्यवस्थित रखना पसंद था उन्हें; लेकिन पुस्तकें और पत्र-पत्रिकाएं तो साहित्यकार के घर का भूषण होती हैं और जाने क्यों उन्हें अव्यवस्थित रहना ही प्रिय होता है; उनकी व्यवस्था में मेरी माता अपने घर में और भाभी बेनीपुरीजी के घर में परेशानहाल रहती थीं। दोनों घरों में कागज़-पत्तरों, पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों के अंबार को लेकर महीने-दो महीने में एक बार तो अवश्य ही विवाद हो जाता था; जिसे देखकर उस कच्ची उम्र में मुझे न मालूम क्यों बड़ा मज़ा आता था। आए दिन दोनों घरों की दहलीज़ पर रद्दीवाला आ बैठता और उसकी तौल पर निगाह रखने के लिए मुझे नियुक्त किया जाता। एक बार तो रद्दी के साथ बेनीपुरीजी की किसी पाण्डुलिपि का थोड़ा-सा अंश भी कांटे पर चढ़ गया था, जिसकी मैंने रक्षा की थी। बेनीपुरीजी ने उस दिन मेरी प्रशंसा की थी और घरवालों को डांट पिलाई थी। उन्होंने कहा था--''आनंद लेखक का बेटा है, रद्दी और महत्त्व के लेखन का फर्क न जानेगा ? पता नहीं कैसे तुम्हीं लोग ये अन्तर नहीं समझ पाते... ।'' मैं गर्वोन्नत हुआ उनके पूरे घर में पदाघात करता रहा उस दिन देर तक...
दोनों घरों का एक-सा हाल था। साहित्यिकों-मुलाकातियों की आवभगत में चाय की केतली चूल्हे पर ही चढ़ी रहती थी। वह युग 'प्लास्टिक पैक तैयार नाश्ते' का युग नहीं था। विशिष्ट अतिथियों के जलपान के लिए घर में ही सारी तैयारी की जाती थी। बेनीपुरीजी के घर में मेरी कई ऐसी शामें भी गुजरीं, जब अतिथियों के लिए तैयार किया गया नाश्ता हम बच्चों को भी दिया गया। उनके घर के चूरा-मटर का स्वाद आज ४४-४५ वर्षों बाद भी मेरी जिह्वा भूल नहीं सकी है। मनन-रतन से मिलने मैं जब भी उनके घर जाता, बेनीपुरीजी ज्यादातर मुझे तीन मुद्राओं में ही दीखते--कुछ लिखते हुए, कुछ पढ़ते हुए और अधलेटे-सोये हुए।
एक शाम अजीब वाकया हुआ। हम उत्साही किशोरों की टोली बेनीपुरीजी के घर के सामनेवाले मैदान में क्रिकेट के लिए एकत्रित हुई। बल्ला-विकेट, गेंद-दस्ताना मनन-रतन के घर में था। उसे लाने के लिए मनन के साथ मैं भी उसके घर गया। सारा सामान तो बाहरवाले कमरे में ही मिल गया, लेकिन गेंद उस कमरे में थी जिसमे बेनीपुरीजी थे। मनन कमरे की चौखट पर पहुंचकर ठिठक गए, इशारे से मुझे पास बुलाया और बहुत धीमी आवाज़ में बोले--''सामनेवाली अलमारी में गेंद है। तुम उसे ले आओ। बाबा मुझे देख लेंगे तो कोई-न-कोई काम बता देंगे।'' मैंने दबे पाँव बेनीपुरीजी के कमरे में प्रवेश किया और बिना उनकी तरफ़ देखे आलमारी तक पहुँच गया। आलमारी बेनीपुरीजी के सिरहाने थी। गेंद उठाकर जब मैं लौटने को तत्पर हुआ, तो उनपर दृष्टि पड़ी। वह बाएं करवट ऊँची तकिया पर लेटे थे। कमरे की खिडकियों पर परदा पड़ा था, फिर भी कमरे में मद्धम प्रकाश था और उनके खर्राटों की धीमी आवाज़ गूँज रही थी। मैं दो कदम आगे बढ़ा ही था कि बेनीपुरीजी की ओर एक बार फिर दृष्टिपात करके आश्चर्य से अवाक् रह गया ! उनके दायें हाथ में कलम थी और बिस्तर पर पड़े पैड पर वह कुछ लिखते-से दिखे। मैं हतप्रभ था। गहरी नींद में खर्राटे भरता कोई व्यक्ति भला लिख कैसे सकता है ! यह तो असंभव है। मैंने अपनी पलकें झपका कर सुनिश्चित किया कि मैं जो देख रहा हूँ, वह स्वप्न नहीं, सत्य है। हाँ, वह मेरी आंखों का देखा अपूर्व सत्य था। मन में आया कि उनके समीप जाकर देखूं कि वह क्या लिख रहे हैं; लेकिन मेरा सहमा हुआ किशोर मन इतना सहस नहीं जुटा सका। मैं कमरे से बाहर निकल आया। मैंने मनन को यह बात बताई तो वह बोला--''अरे, बाबा तो दिन-रात लिखते ही रहते हैं... ।'' उसके लिए यह वाकया कुछ खास, कुछ नया नहीं था। लेकिन मेरे मन पर बेनीपुरीजी की निद्रानिमग्नावस्था में लेखन करती अद्भुत मुद्रा यथावत अंकित है। मैं भूल नहीं पाता उस असंभव का बेनीपुरीजी के हाथो सम्भव होना।
हिन्दी-साहित्य-मन्दिर का वह पुजारी जो जीवन-भर 'भारती' की पूजा-अर्चना में भासमान दीपक जलाता रहा, वह आज असहाय, लाचार, अशक्त, निरुपाय और हतचेत होकर भी इसी चेष्टा में निमग्न है। वह आज शय्याबद्ध होकर भी साहित्य-मन्दिर के द्वार पर पूजन के लिए उपस्थित है.... ।
[क्रमशः]

सोमवार, 16 नवंबर 2009

साहित्याकाश के शब्द-शिल्पी : बेनीपुरी

[तीसरी किस्त]

पटना के श्रीकृष्ण नगर के २३ संख्यक मकान में हमारा निवास था और बेनीपुरीजी का भरा-पूरा परिवार १०८ संख्यक मकान में रहता था। इन दोनों संख्याओं के बीच की दूरी चाहे जितनी हो, मेरे और उनके घर का फासला महज डेढ़ बांस का था। बेनीपुरीजी के पौत्रों की मित्रता के कारण उनके घर में मेरा नित्य का आना-जाना था। सबसे बड़े भाई लालन बेनीपुरी उन दिनों कालेज में पढ़ते थे और यदा-कदा हमारे क्रिकेट के खेल में शरीक हो जाते थे। मनन-रतन हमउम्र थे, छोटन थोड़े छोटे; किंतु इन तीनों भाइयों से मेरा मित्रवत व्यवहार था। कंचे से लेकर क्रिकेट तक जितने खेल हो सकते हैं, सबों में हम समान रूप से सम्मिलित होते थे। कतिपय देसी खेलों में भी उनका साथ-संग होता; जैसे--डोलापाती, कबड्डी, चोर-सिपाही, आइस-बाईस, लाली, बम्पास्तिक और दौड़ की स्पर्धा ! इन खेलों का मैदान बेनीपुरीजी के घर के सामने ही था। हमारे कई खेल वह अपने घर के अहाते में बैठकर चुपचाप देखते रहते थे।
बेनीपुरीजी के बारे में जिस रात मुझे पिताजी ने समझाया था, उसके दूसरे दिन जब मैं स्कूल से लौटा, तो घर में पुस्तकों-कापियों का बैग पटककर मैं पुनः बाहर जाने लगा। माताजी ने पीछे से आवाज़ दी--''खेलने जा रहे हो क्या ? कुछ खाकर तो जाओ।'' 'अभी आया' कहता हुआ मैं सीधे बेनीपुरीजी के घर गया। वहां तो मेरा निर्बाध प्रवेश था। मैं बेनीपुरीजी के कमरे में जा पहुँचा। वह पलंग पर अधलेटे थे। मैंने चरण-स्पर्श कर प्रणाम निवेदित किया, जैसे मैं अपने अपराधों की क्षमा-याचना कर रहा होऊं । बेनीपुरीजी ने इतना-भर पूछा--'कौन ?'
'आनंद' कहता हुआ मैं कमरे से बाहर आया और बेनीपुरीजी के एकमात्र (संभवतः) सुपुत्र देवेन्द्र बेनीपुरीजी के पास पहुँच गया और बोला--''बाबूजी ने कहा है कि आप मेरे बड़े भाई हैं, आज से मैं आपको 'भइया' कहूँगा।'' देवेन्द्र भइया को श्रवण-कष्ट था। मुझे लगा, उन्होंने मेरी बात नहीं सुनी; लिहाज़ा मैं तीर की तरह उनकी पत्नी और मनन-रतन की मम्मी जी के पास पहुँचा और बोला, जैसे घोषणा कर रहा होऊं--''आज से मैं आपको 'भाभी' कहूँगा। बाबूजी ने कल ही बताया है कि आप मेरी भाभी लगेंगी। '' अचानक मेरा यह प्रलाप सुनकर भाभी क्षण-भर को संभ्रम में ठिठकी रहीं; किंतु शीघ्र ही अभिप्राय समझकर बोलीं--''चाचाजी ने ठीक ही बताया है तुम्हें। तुम्हीं तो 'अंकल-आंटी' कहते रहे हो।'' उनके घर से बाहर आकर मैंने मनन-रतन-छोटन के बीच भी उच्च स्वर में घोषणा की--''याद रखना, मैं तुम्हारा चाचा हूँ।'' मेरे तीनों मित्र पलकें झपकाते रहे, और मैं गर्व-स्फीत हुआ शाम का नाश्ता करने कि लिए अपने घर कि ओर चल पड़ा...
[क्रमशः]

रविवार, 15 नवंबर 2009

साहित्याकाश के शब्द-शिल्पी : बेनीपुरी

[दूसरी किस्त]

बेनीपुरीजी के घर से जाने के बाद मैं अपनी उद्दंडता में उनके हकलाकर और अटक-अटककर बोलने की नक़ल उतारता। अपने भाई-बहनों के साथ मिलकर परिहास करता। मेरी माताजी के कानों में मेरे अभिनय और परिहास के स्वर पड़ते, तो वह आकर वर्जना दे जातीं; लेकिन जैसे ही वह आंखों से ओझल होतीं, मैं अपनी कारगुजारियों से बाज़ न आता। एक-आध महीने में ही बेनीपुरीजी के बारे में मेरा आकलन इतना परिपक्व हो गया था कि बगल के कमरे में पढ़ने के लिए बलात् बैठाया गया मैं भविष्यवाणियाँ किया करता कि बेनीपुरीजी अमुक प्रश्न का कोई उत्तर न देंगे; अमुक का इतने क्षणों के बाद यह उत्तर देंगे और जब शब्दों के थोड़े अन्तर से उनके मुख से वही उत्तर निकलता, तो हमारी हँसी रोके न रुकती।

बहरहाल, बेनीपुरीजी के 'केरिकेचर' करती मेरी अभिनय-प्रतिभा निखरती गई और मेरी शोखियाँ-शैतानियाँ परवान चढ़ती गईं । लेकिन, एक-न-एक दिन इसकी अनुगूंज तो पिताजी तक पहुंचनी ही थी। उन्होंने माताजी से पूछकर सारा मर्म जान लिया और मुझे बुलाकर पास बिठाया तथा प्यार से समझाया--''तुम जिनकी नकल उतारकर हँसी करते रहते हो, जानते भी हो, वह कौन हैं ? वह उम्र में मुझसे भी बड़े हैं, विद्वान् लेखक हैं और मेरे बहुत पुराने मित्र हैं। वह मेरे मित्र हैं तो तुम्हारे क्या हुए ?''

मैंने छूटते ही कहा--''चाचाजी !''

पिताजी बोले--''तब कहो, चाचाजी की कोई खिल्ली उड़ाता है ? मज़ाक बनाता है ? सभी उनका सम्मान करते हैं, उन्हें पूज्य मानते हैं, उनके चरण छूकर आशीर्वाद लेते हैं।''

मेरी चपलता काम आयी, मैंने कहा--''जब वह आते हैं, मैं भी तो पैर छू कर उन्हें प्रणाम करता हूँ।''

पिताजी ने कहा--''लेकिन पीठ पीछे तुम उनका उपहास भी तो करते हो ! यह तो अच्छी बात नहीं है।''

थोडी देर चुप रहकर पिताजी ने मेरे पूज्य पितामह (साहित्याचार्य पंडित चंद्रशेखर शास्त्री) के चित्र की ओर इशारा करते हुए कहा--''अपने बाबा का यह जो एकमात्र चित्र तुम देख रहे हो, बहुत पहले यह चित्र बेनीपुरीजी ने ही खींचा था, जब तुम्हारा जन्म भी नहीं हुआ था। बेनीपुरीजी न होते, तो तुम अपने बाबा का चित्र भी कैसे देख पाते ? बोलो तो ?''

बात मेरे किशोर-मन में कहीं गहरे बैठ गई; लेकिन मेरे फितूरी दिमाग ने हठ न छोड़ा--''लेकिन वह इतना हकलाते और बोलते-बोलते चुप क्यों हो जाते हैं ?''

अब पिताजी की मुख-मुद्रा गंभीर हो गई, बोले--''वह तो अपने समय के बहुत स्पष्ट वक्ता थे। उच्च स्वर में बोलते थे और जो बोलते थे, दृढ़ता से बोलते थे। अब तो बीमारी ने उन्हें ऐसा बना दिया है।''

मैंने पूछा--''क्या बीमारी है उन्हें ?''

पिताजी ने कहा--''पक्षाघात से अभी-अभी उबरे हैं वह।''

मेरा अगला सवाल था--''यह पक्षाघात क्या होता है ?''

पिताजी ने समझाया--''फालिज जानते हो ?--लकवा ?'' मेरे इनकार करने पर वह फिर बोले--''यह हवा की चोट से उत्पन्न हुआ एक प्रकार का शारीरिक विकार है।''

''हवा चोट कैसे करती है... बाबूजी ?'' मेरे प्रश्नों का अंत नहीं था कहीं ! लेकिन मेरे इस प्रश्न से पिताजी के चहरे की गंभीर वक्र रेखाएं शिथिल हुईं । वह हलके-से मुस्कुराए और बोले--''तुम अभी इतना ही समझ लो कि वह बीमारी से उठकर खड़े तो हो गए हैं; लेकिन पूरी तरह स्वस्थ नहीं हुए हैं।''

पिताजी की बातें सुनकर मेरा मन ग्लानि और क्षोभ से भर उठा। पिताजी के पास से हटा, तो एक संकल्प मन में दृढ़ हो चुका था--बेनीपुरीजी पूज्य हैं, उनका मुझे आदर करना है, आशीष लेना है, उपहास नहीं करना है कभी... ।

[क्रमशः]

शनिवार, 14 नवंबर 2009

साहित्याकाश के शब्द-शिल्पी : बेनीपुरी

'बौर नया आया अमिया पर,
विशाल बरगद सूख गया...!

वे अजीब बौराए दिन थे। मौसम भी बौराया-सा था... । शहतूत में रस और आम में नया बौर आ गया था... और फालसे का रंग चटख सुर्ख हुआ जाता था। महुआ टपकने को और कपास की फलियाँ चटखने को तैयार थीं... सब पर एक अजीब नशा तारी था। और मैं...? मेरी न पूछिये... ! सन १९६३-६४ का साल और मैं छठी कक्षा का उद्दंड छात्र ! पटना के श्रीकृष्ण नगर की चौहद्दी के बाहर भी मेरी ख्याति थी। कॉलेज में पढ़नेवाले लड़कों की टोली भी मुझ किशोर से डरती थी, परहेज करती थी। सारा मोहल्ला जानता था कि इस सिरफिरे को छेड़ना किसी शामत को दावत देना है। स्कूली पढ़ाई में कभी अनुत्तीर्ण नहीं हुआ; लेकिन ग्यारहवीं कक्षा तक पिताजी ने कम-से-कम बारह स्कूल तो बदलवाए ही होंगे। हर विद्यालय के हिन्दी और गणित शिक्षक से मेरी पटरी बैठती ही नहीं थी; या तो उन्हें मुझसे या मुझे उनसे जल्दी ही ढेरों शिकायतें हो जाती थीं। कभी शिक्षक महोदय की साइकिल का टायर, ट्यूब सहित मुंह खोले पड़ा रहता था और विद्यालय की छुट्टी के बाद जब वह अपनी साइकिल उठाते तो अपना सिर पीटते और दूसरे दिन प्राचार्य के कार्यालय से मेरी पुकार हो जाती। मैं कहता--''मैंने ऐसा कुछ किया ही नहीं।'' शिक्षक कहते--''ऐसा करनेवाला दूसरा कोई छात्र पूरे स्कूल में है ही नहीं।'' अजब मुसीबत के दिन थे वे ! लेकिन, मैं जाने किस सनसनाते घोडे पर सवार रहता हरदम ! स्कूल में खटापटी हो गई तो मैं किसी आम या इमली के पेड़ पर जा चढ़ता या किसी अमरुद के बगीचे की शरण ले लेता। दिन आराम से गुज़र जाता और शाम होने के पहले मैं घर पहुँच जाता बेधड़क ! कहना न होगा, मैं भी बौराया-सा था उन दिनों !
उन्हीं गर्म दिनों की बात है। शाम होते-न-होते पिताजी की पुरानी बेबी ऑस्टिन कार शोर-शराबे के साथ गैरेज में आ लगती और वह दफ्तर के कपड़े बादल भी न पाते कि एक वयोवृद्ध सज्जन छड़ी टेकते हुए मेरे घर आ जाते और बैठक में पड़ी किसी कुर्सी पर बैठ जाते--मुमूर्शुवत ! बोलते कुछ नहीं ! लम्बा कद, गह्नुआ रंग, भरी-पूरी देह, आंखों पर चश्मा, श्वेत परिधान--धोती-कुर्ता ! पिताजी कपड़े बदलकर बैठक में आते और पूछते, ''कैसे हो भाई ?'' वह कोई उत्तर न देते, टुकुर-टुकुर देखते रहते पिताजी कि ओर निरीह भावः से; जैसे दम साध रहे हों। थोडी देर बाद पिताजी फिर पूछते--''चाय पियोगे ?'' वह फिर भी कुछ न कहते। सिर्फ़ अपने बांये हाथ को हवा में लहरा देते और कलाई को विपरीत दिशा में मोड़ते हुए अपनी लम्बी उँगलियों को हवा में काँपने के लिए छोड़ देते; जैसे कह रहे हों--'पी लूँगा' या नहीं भी पियूँगा तो क्या फर्क पड़ेगा ?' थोडी देर में चाय आ जाती। पिताजी चाय पी लेते, फिर पान बनाकर खाने लगते और अचानक कहते--''भाई, तुमने चाय तो पी ही नहीं, वह ठंडी हुई जाती है... ।'' तब वह हकलाते हुए बड़ी मुश्किल से इतना भर कह पाते--''प्याली संभलेगी नहीं मुझसे, गिलास मंगवा दो।'' इस एक वाक्य को बोलने में भी उन्हें दो-तीन मिनट लग जाते। कई बार ऐसा भी होता कि वह क्या कहना चाह रहे थे, यही भूल जाते। फिर एक लंबे विराम के बाद वाक्य वहीँ से शुरू करते, जहाँ से उन्होंने बोलना प्रारम्भ किया था। सप्ताह में तीन-चार बार सुबह अथवा शाम वह मेरे घर आ जाते और घंटे भर बैठे रहते। कभी जल्दी ही ऊब जाते और पितजी से कहते, ''किसी को कहो कि मुझे सड़क पार करा दे, मैं अब जाना चाहता हूँ।'' सड़क पार कराने कि जिम्मेदारी हमेशा मुझे ही सौपी जाती थी; क्योंकि मैं घर का बड़ा बेटा था।
मैं खूब पहचानता था उन्हें। वह मेरे बाल-सखा मनन, रतन और छोटन के पितामह थे। यह तो कुछ समय बाद पता चला कि वह साहित्य-जगत के अनूठे रचनाकार, शब्द-शिल्पी रामवृक्ष बेनीपुरीजी थे।
[क्रमशः]

बुधवार, 11 नवंबर 2009

कुछ तल्ख़ अहसास...

[सन बहत्तर की डायरी से तिहत्तर की कविता]

तल्खियों से भरा एक जुलूस
चल पड़ा है ।
काले झंडे,
विरोध व्यक्त करता जनाक्रोश,
प्रचार-प्रपत्र,
नारेबाजी में झुलसता माहौल;
लेकिन एक और सच्चाई
यहाँ छूट रही है--
हर आदमी के हाथ में
उसी का चेहरा
कोलतार भरे गुब्बारे-सा
फैलता जा रहा है--
यह एक और मृत्यु की शुरुआत है,
सचमुच...
सचमुच अहसास ही मर गया है !

मेरे जवान बेटे की
एक्सीडेंट में टूटी टाँगें,
खून और मांस के लोथडे
सबकुछ एकदम नंगा
देख लेने के बाद भी
पूरी निश्चिन्तता से मेरा
यह कह उठाना--
'अस्पताल कितनी दूर है ?'
इस बात का सुबूत है कि
अहसास मर गया है
और जब अहसास मर जाता है
तो कहने को कुछ शेष नहीं रहता ।
हाँ, तल्खियों से भरा एक जुलूस
फिर भी गतिशील रहता है !

मैं उस बदनसीब कि ज़िन्दगी से
ये कविता शुरू करना चाहता था;
क्योकि जड़ता ही मेरा अहसास है
और मुझे ये पूरा विश्वास है
कि विवशताओं कि सुरसा से बचता हुआ
त्रिकोण में फंसा मेरा काला चेहरा
मेरे स्तब्ध अहसास को शब्द देगा;
क्योंकि अहसासहीन निस्तब्धता के क्षण
रात में सोये-थके मुसाफिर के शरीर पर
एक साथ हजारों-हज़ार विषैले बिच्छुओं के
फ़ैल जाने जैसा है...
यां फिर,
किसी की हथेलियों से
उम्मीदों की सारी लकीरें चुरा लेने जैसा है !

ऐ मेरे मित्र !
अपने गूंगे अस्तित्व के हाथों
अहसानों का तोहफा लेने से
कहीं बेहतर है तेरा घुटना
और घुटकर दम तोड़ देना...!!
[महाकवि नागार्जुन की उपस्थिति में कई बार पढ़ी गई बिहार आन्दोलन की एक कविता]

शनिवार, 7 नवंबर 2009

मेरा ठिकाना हो नहीं सकता...!

[आत्म-परिचय]

तुम पूछते क्यों हो
मुझसे पता मेरा ?
मैं तो ख़ुद अपना ठिकाना ढूंढ़ता हूँ--
भई ! मुक्ताकाश हूँ,
बादलों के शीश पर
चढ़कर टहलता हूँ;
मैं ज़मीं की नर्म-कोमल दूब पर
जी-भर मचलता हूँ;
ओस-कण हूँ
सुबह की धूप में--
सोने-सा चमकता हूँ !
और फिर वातास में घुल,
उल्लास में भरकर
भारहीन पैरों से थिरकता हूँ !

तुम पूछते क्यों हो--
मुझसे पता मेरा ?
क्या करोगे जानकर मेरा ठिकाना ?
मैं करता हूँ सवारी
धूलि-कण की,
उत्तप्त गहरी वेदना से भर जला करता
और रक्तिम कण बना
ऊपर उठा करता,
...और ऊपर... और ऊपर...
मोद में भरकर
मत्त हो गाता चला जाता--
अनंत आकाश के पथ पर
विचरता हूँ;
फिर बादलों के शीश से
तुहिन-कण बना
हीरे-सा बरसता हूँ !
प्यास धरती की बुझाने को
तरसता हूँ !

तुम पूछते क्यों हो
मुझसे पता मेरा ?
उत्तुंग शिखरों पर जमी
जो बर्फ की परतें
उन्हें छूता हूँ, सिहरता हूँ,
फिर लौट आता
कुसुमगंधी वाटिका में !
सुरभि अपनी लुटाने को
खिले जो फूल रंगीले,
चपलता से पहुंचता हूँ वहां,
चूम लेता हूँ उन्हें;
सुगंधि उनकी चुराता हूँ,
फिर गन्धवाही बन
सहज ही मुस्कुराता हूँ !

तुम पूछते क्यों हो
मुझसे पता मेरा ?
मैं नील अम्बर से उतरता,
झुककर चला आता
नद-नदी और सागर-वक्ष पर
अठखेलियाँ करता--
मैं उनकी विस्तृत छाती पर
लहरें बनता हूँ;
अवसाद उनका इस तरह
हंसकर मिटाता हूँ !

कभी-कभी अपने पंख की
सुकोमल थपकियों से
हंस-कौवे और श्वेत कपोत के जोड़े
मुझसे खेलते हैं,
और छ़प-छ़प के उल्लासमय
आघात करते
उड़ते चले जाते--
मुझे चुनौतियाँ देते हुए...
मैं मुस्कुराता हूँ !
वाष्प के गुब्बार को
अपने कन्धों पर लिए
मैं भी उड़ता चला जाता...
नील अम्बर में पहुंचकर
पिघल जाता--
स्वयं मुक्ताकाश हो जाता !

स्नेह से स्पर्श कर देखो कभी
मैं प्राण में एक गंध बनकर
समा जाऊँगा !
तुम्हें अकेला छोड़कर
भला मैं कहाँ जाऊँगा ?

तुम बार-बार मुझसे
पूछते क्यों हो--
पता मेरा ?
विश्वास करो--
जो कुछ कहा मैंने,
वह बहाना हो नहीं सकता;
इस बे-ठिकाने का
ठिकाना हो नहीं सकता !!