सोमवार, 6 जुलाई 2009

'मैं मुक्त पंछी...' (गतांक से आगे)

दोनों घनिष्ठ मित्रों की वार्ता गंभीर वीथियों से गुजरने लगी और २०-२५ मिनट का समय व्यतीत हो गया। अचानक पिताजी को मेरा ध्यान आया और उन्होंने दिनकरजी से कहा--''अरे भाई, इनकी परीक्षा का क्या हुआ ?'' दिनकरजी मुस्कुराकर बोले--''वह तो परीक्षा में अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हो गया है।'' पिताजी को आश्चर्य हुआ, बोले--''लेकिन अभी तो तुम कह रहे थे की इन्हें 'क' भी लिखना नहीं आता। ... दिनकरजी ने एक छोटा ठहाका लगाया, फिर गंभीरतापूर्वक बोले--''आनंद तुम्हारे पीछे बैठे हैं, इसलिए तुम उन्हें देख नहीं सके, लेकिन मैं बातचीत कि बीच बार-बार उन्हें देखता रहा हूँ। हमारी चर्चा से निर्लिप्त रहकर जिस मनोयाग से वह मेरे लिखे 'क' पर कलम चलाते रहे हैं, डायरी का कम करने के लिए इसी मनोयोग की आवश्यकता है। फिर यह तुम्हारे पुत्र हैं, शुद्ध तो इन्हे लिखना ही चहिये।'' अपना अन्तिम वाक्य उन्होंने मेरी और मुखातिब होकर कहा--''बोलो, डायरी की पाण्डुलिपि तैयार करने का काम कब से शुरू करोगे ?'' मैंने उत्साहपूर्वक कहा--''कल से।'' तभी पिताजी ने हस्तक्षेप किया--''काम तो ये कल से ही शुरू कर सकते हैं, लेकिन इन्हें दिन का भोजन तुम्हें ही करवाना पड़ेगा। ये कॉलेज के लिए घर से सुबह-सुबह निकल जाते हैं, वहां से सीधे तुम्हारे पास चले आयेंगे और शाम तक तुम्हारा काम करेंगे।'' दिनकरजी ने गुरु-गंभीर स्वर में कहा--''तुम इसकी चिंता मत करो, चाय और भोजन की व्यवस्था यहीं हो जायेगी।''
(क्रमशः)

2 टिप्‍पणियां:

अर्कजेश ने कहा…

आपके संस्मरणों से हमें ’दिनकर’ जी जैसे हस्ती से रुबरु होने का अवसर मिल रहा है, यह हमारे लिये सौभाग्य की बात है । ’हुंकार’ जैसी रचना के के सॄष्टा । आदरणीय वरिष्ठ लेखकों को आने वाली पीढी के लिये संस्मरणों की विरासत जरूर देनी चाहिये । इससे कई नये पहलू प्रकाश में आते हैं ।

आनन्द वर्धन ओझा ने कहा…

अर्कजेशजी,
आपकी टिपण्णी के लिए आभार प्रकट करता हूँ. दिनकर, बच्चन, अज्ञेय, नागार्जुन, रेणु, जैनेन्द्र आदि मेरे चिन्तन का हिस्सा रहे हैं. लिखना बहुत है और ब्लॉग पर लिखना सचमुच कठिन है. फिर भी ये कोशिश करता रहूँगा. 'मैं मुक्त पंछी...' संस्मरण को पूरा करके ब्लॉग पर प्लेस कर चूका हूँ. निवेदन है, इसे पूर्णता में पढ़ के अपनी सम्मति लिखें, मुझे प्रसन्नता होगी. --आनंद