गुरुवार, 30 जुलाई 2009

नवचेतना के छंद...


आज बूढा वृक्ष जर्जर
थककर सो गया है
भूमि-शय्या पर
अतल-तल तक धंसी
उसकी जड़ें
खींचती हैं --
जीवनी शक्ति,
शिथिल होती शिराएँ भी
स्पंदित हो रहीं अभी;
अधखुली आँखें
चेतना-उपचेतना
अर्ध-तंद्रा
अर्ध-जाग्रत की दशा में
देखती हैं स्वप्न !
और मानसलोक
अबतक बुन रहा
नवचेतना के छंद !!

मंगलवार, 28 जुलाई 2009

लाश इतनी क्यों गली है ?


अहमकों-सी अपनी तबीयत हो चली है,
सूखे पत्तों-से भर गई मेरी गली है !

वहशियाना हो रहा हवाओं का मिजाज,
इन धमनियों में महज़ सूखी नली है !

अगली सुबह शायद मेरी बेखौफ गुज़रे,
सुर्खियों में रात मेरी क्यों ढली है ?

सच, बहुत मुश्किल हुआ घर से निकलना,
इसी अहसास की शर्मिंदगी ज्यादा भली है !

राख के इस ढेर से खिलवाड़ क्यों करने लगे तुम ?
एक भींगी डाल उसमें अधजली है !

इस तंत्र ने जनतंत्र पर तेजाब डाली--
तुम पूछते हो, लाश इतनी क्यों गली है ??

शुक्रवार, 24 जुलाई 2009

संदल की हवा

रुबाइयाँ

दरो-दीवार पर चिपकी हुई मौसम की हवा,
लब-ए-नाज़ुक पे है सहमी हुई एक गम की हवा !
देखना चाहो, तो दिख जायेगी तुमको यारों--
हैरतअंगेज़ है, दहशत की वह वहशत की हवा !!

लोरियां अब नहीं देती किसी आँचल की हवा,
सूनी आँखों में है ठिठकी हुई सावन की हवा !
अब हवाओं में है कोई कशिश बाकी नहीं,
बहुत खामोश है दुबकी हुई हर घर की हवा !!

अब तो इन्सां को जलाती है इस फिदरत की हवा,
साँस में मिर्च मिला जाती है नफरत की हवा !
हाँ, ये शहर भी लगने लगा शमशान-सा है--
किसके सर नाचनेवाली है ये मरघट की हवा ?

आज सरगर्म है कानून के जंगल की हवा,
हर गली- कूचे में फैली है ये दंगल की हवा !
होश में आओ, हो जाओ करीने-से खड़े --
तुमको फिर छूने को बेताब है संदल की हवा !!

मंगलवार, 21 जुलाई 2009

अधूरा आकाश


एए मेरे सपनों के प्रेत !
मेरे आसपास नाचना, गाना या
धूम मचाना
तुम्हारे लिए मज़ाक हो सकता है;
लेकिन मेरे लिए
ताज़ा अफवाहों के सिवा कुछ नहीं !

वर्षों के इस नंगे और दुखदायक जुलूस को
मेरे टेबल लैंप की रौशनी में
छोड़ जाओ,
छोड़ जाओ कांपते संबंधों के नाम
अधूरा, अस्पष्ट ख़त,
जाहिल फरमान,
हाँ, दारियाई घोडों कि पीठ पर
तुम आओ हांफते हुए,
प्रश्नों और उत्तरों को जांचते हुए....

अनछुई मुद्राएँ,
अनदेखी प्यास,
संज्ञाएँ बाँध गईं कितना विश्वास ?
अन्तर के जिस कोने
अंट जाए जितना आकाश !!

सोमवार, 20 जुलाई 2009

जनता पूछती है...


बात बेमानी हुई जाती,
चाल ढुलमुल हो रही है,
और संभाषणों के रंग
बदले-से नज़र आने लगे हैं !
जाने क्यों, हम ही शरमाने लगे हैं !

फिर कुठाराघात,
वज्राघात हुआ है आत्मा पर,
सहनशीला बनी सरकार --
यह सब देखती है,
भारत अपनी अदम्य शक्ति पर
अंकुश डाले
कब तक रहेगा मौन --
जनता पूछती है ?

कौन जाने कब खुलेगा
नेत्र तीसरा शिवशंकर का,
पद-दलित करने दुश्मनों को
कब जमेंगे पाँव भारत के --
अचल होंगे ?
मनमोहन जाने कब अटल होंगे ??

शुक्रवार, 17 जुलाई 2009

गाओ ऐसा गान...

गाओ ऐसा गान कि मन की व्यथा रिक्त हो जाए,

पीड़ित प्राण पखेरू को आनंद अमित हो जाए ॥ गाओ ऐसा गान....

पंजों में नाखून नहीं तो मन में संचित बल है,

आज भेड़ियों की मांदों में रक्षित सारा बल है ,

लगता है कि दिशाहीन होती जाती राहें हैं ,

अपने शौर्य पराक्रम की तो शक्तिहीन बाहें हैं ।

धर्म तराजू पर तौलेंगे हम एक दिन भुजबल को,

और पुकारेंगे अतीत से प्राप्त हुए संबल को,

विजय पराजय होगी किसकी देखा जाएगा ,

विष-दंत चुभोनेवाले को भी रोका जाएगा ।

आओ मुट्ठी में भर लें हम ये सारा आकाश,

फैले जग में फिर भारत का तेजस् पुंज-प्रकाश,

पंखविहीन हुए तो क्या है, हम उड़ सकते हैं,

नए क्षितिज और नयी दिशाएं भी गढ़ सकते हैं ।

दुर्बल को दे शक्ति नयी, हम नया समाज रचेंगे,

जाती पाती और भेद-भाव से निश्चय सभी बचेंगे,

विकल आर्तजन को देंगे हम एक नया विश्वास,

सपनों को हो जाएगा, सच होने का आभास ।

पीड़ा के परिदृश्य बदलते जीवन के साथी हैं,

आतंक घोर फैलानेवाले कायर हैं, पापी हैं,

चिंगारी हो जहाँ कहीं उसे समेट लाना है,
जन गण मन का संदेश अमर हमको फैलाना है ।।

त्राहिमाम करती जनता भी कभी मुक्त मन गाये,

गाओ ऐसा गान कि मन की व्यथा रिक्त हो जाए ।।

मंगलवार, 14 जुलाई 2009

'तुम जब मिले...'

तुम जब मिले मुझको, नई दीवार-से मिले ।
लौटती हर राह पर, बीमार-से मिले ॥

कैसी खलिश कैसी व्यथा, कैसा मौसम था वहां,
तुम नदी में दूर जाती, धार-से मिले ॥

थी बहुत बारिश, मगर एक नदी सूखी रही,
शीत-लहरी में भी तुम अंगार-से मिले ॥

हर कशिश मेरे मन के आँगन में ठिठक गई,
तुम उसी दहलीज़ पर बेजार-से मिले ॥

अपनी गली की रौशनी में रूह मेरी मिल गई,
तुम उजालों के शहर में अन्धकार-से मिले ॥

आज रावण की कथा में राम मिलते हैं कहाँ ?
तुम विभीषण की तरह ही प्यार-से मिले ॥

शनिवार, 11 जुलाई 2009

यात्रा-कथा-काव्य

विलक्षण प्रतिदान !


वे जीवन जगत के जुए को
कन्धों पर नहीं, सर पर ढोते हैं,
खुले आकाश के नीचे
आग बरसाते सूरज को ओढ़
तपते विस्तृत भू-भाग पर
नागे पाँव चलते हैं !
वे जीवन जगत के जुए को ....

प्रकृति की उद्दाम सुन्दरता
और उर्वरा भूमि का प्रतिदान
उनके लिए नहीं है;
वे जाने किन-किन सलीबों पर
रोज़-रोज़ झूलते
और अपनी ही मशक्कत से
स्वयं उतर आते हैं;
फिर जाने किस कौशल से
आनंद के गीत गाते हैं।

झुनाठी से करपी तक
और तेलपा से खादासीन तक
चिंताओं की लम्बी सड़क जरा-जर्जर है,
तल-अतल को स्पर्श करने-जैसा
विचित्र अनुभव देती हैं--
उस पर मंथर गति से टहलती गाडियां !
सड़क के दोनों किनारों पर
मुंह खोले खड़ी हैं--
ताड़-पत्तों से बनी कुटिया
जहाँ मिट्टी के पात्र में रखा है--
ताड़-वृक्षों से उतारा गया खट्टा रस !
दिन भर की मशक्कत के बाद
शरीर जलाकर जिन भाग्य-बालियों ने
जुटा लिए हैं थोड़े-से पैसे
वे कतारबद्ध वहां बैठे हैं;
वे निर्विकार भाव से --
मानापमान, जहालत, भर्त्सना

और ज़िन्दगी सारी कड़वाहट को
ताड़ के खट्टे रस में डुबाते हैं,
फिर मदहोशी में
भद्दी गालियों के विशेषणों के साथ
अपने जीवन की विद्रूपताओं के
मंगल गीत गाते हैं!

लेकिन, दृष्टि-सीमा तक फैली सोने-जैसी
उर्वराभूमि को निहारता हूँ,
नमन करता हूँ उसे--
जो अपनी छाती फाड़
अन्न-जल उपजाती है
नदियों का नीर जिसे हर बरसात में--
सींच-सींच जाता है,
उसे नवीन परिधान पहनता है,
भूमि के कण-कण को प्राणवान बनाता है।
किंतु, उस प्राण-तत्व का एक कण भी
उन्हें नहीं मिल पाता--
जो बोझ बनी जिंदगी को
अपने ही सर पर ढोते हैं,
उर्वरा भूमि में बीज तो बोते हैं,
लेकिन क्षुधा-शान्ति के लिए
दाने-दाने को रोते हैं !

बेबस और अधनगे हैं उनके बच्चे,
मासूम, भोले और निरीह बच्चे--
सचमुच पीड़ित हैं !
सदियों से पीढी-दर-पीढी
होते रहे पद-दलित हैं ।
आज भी उनके साथ होता यही है,
यह निर्मोही विषम समाज क्या जाने
क्या ग़लत, क्या सही है !

किसी मांगलिक अवसर पर
इन अधनंगे बच्चों के
भाग्य-द्वार खुल जाते हैं!
जूठे पत्तलों पर बे-तरतीब हुई
भोज्य-सामग्री के
कुछ दाने उन्हें भी मिल जाते हैं !
पूरे मनोयोग से,
निःसंकोच भावः से,
वे पत्तलों की गहन छानबीन करते हैं,
व्यंजनों को अलग-अलग करीने से,
सहुजते-सम्हालते हैं
और खुशियाँ मनाते
अपने घर लौट जाते हैं !!

पीड़ित बच्चों के इस जश्न की
कुछ संभ्रांत लोग तस्वीरें उतारते हैं,
अपनी ही सामाजिक दशा
और वर्ग-वैषम्य की
नुमाइश लगाते हैं !
कला के नाम पर व्यथा को भुनाते हैं !!

अबोध बच्चे खुश हैं
उन्हें तो मिल गया है
प्रकृति की विपुल सम्पदा का
उच्छिष्ट अवदान !
वाह रे विधाता का --
विलक्षण प्रतिदान !!

मंगलवार, 7 जुलाई 2009

'मैं मुक्त पंछी...' (अन्तिम किस्त)

(शेषांश)
बहरहाल, डायरी की पाण्डुलिपि तैयार कर और पत्र-मंजूषा को व्यवस्थित कर मैं बहुत संतुष्ट हुआ था। उसके बाद एक वर्ष बीत गया। दिनकरजी दिल्ली-पटना आते- जाते रहे। मैं अपनी पढ़ाई में मसरूफ रहा, लेकिन वह जब भी पटना आते मैं टेलीफोन पर उनसे बातें करता या जाकर मिल आता।
एक दिन दिल्ली से लिखा उनका पोस्टकार्ड पिताजी के नाम आया। उन्होंने लिखा था--''डायरी का प्रकाशन हो चुका है, इसकी जितनी प्रसन्नता मुझे है, उससे अधिक आनंदवर्धन को होगी। उनसे कहो कि घर जाकर केदार से एक प्रति ले लें। मैंने भूमिका में उन्हें आशीर्वाद दिया है।'' पत्र पढ़कर मैं रुक न सका, उसी दिन केदार भइया (दिनकरजी के कनिष्ठ पुत्र कविवर केदारनाथ सिंह) के पास जा पहुँचा और डायरी की एक प्रति ले आया। भूमिका के उस अंश को जब मैंने पढ़ा, जिसमें उन्होंने मुझे आशीर्वाद दिया था, तो मेरे पांव सचमुच ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे ।
साहित्यिक अभिरुचि के मेरे एक मित्र दिनकरजी के दर्शन के आकुल अभिलाषी थे। मित्र की जिद पर मैंने दिनकरजी को फोन किया। उस दिन बातचीत में दिनकरजी अवसन्न और खिन्न मन लगे, बोले--''तुम्हारे मित्र मिलना चाहते हैं, तो आज ही ले आओ। मुक्तजी से भी कहो कि मिलना हो तो आ जायें, कल मैं मुक्त पंछी बनकर उड़ जाऊँगा। दिल्ली जा रहा हूँ, वहां से दक्षिण की यात्रा पर निकलूंगा; फिर कब पटना लौटना होगा, कह नहीं सकता।''
कुछ ही दिनों बाद आकाशवाणी पर यह समाचार सुनकर मैं स्तब्ध रह गया कि हिन्दी साहित्य का सूर्य दक्षिण में अस्त हो गया है। उनका पार्थिव शरीर वायुयान से पटना लाया गया। पिताजी अपने परम मित्र को श्रधांजलि देने जाने लगे तो उन्होंने मुझसे पूछा--''तुम भी साथ चलते हो ?'' मैं उस पुरूष-सिंह को चिरनिद्रा में देखने का साहस नहीं जुटा सका। पिताजी अकेले ही गए। लौटे, तो उन्होंने कहा--''दिनकर के शव को देखकर लगता था, सो रहे हैं और अभी उठकर पूछ बैठेंगे--'कहो मित्र ! कैसे आना हुआ ?''
दिनकरजी चले गए। उनकी मधुर-मनोहर स्मृतियाँ मेरे मन-प्राण में बसी रह गईं । एक बार उन्होंने मेरी डायरी में दो पंक्तियाँ लिखी थीं--
'बड़ा वह आदमी जो जिंदगी भर काम करता है,
बड़ी वह रूह जो रोये बिना तन से निकलती है॥'

सच है, दिनकरजी ने जीवन भर काम किया और अपनी कंचन काया की चादर को ज्यों का त्यों छोड़ गए। मेरे कानों में तो अब तक उनका वह वाक्य गूंजता रहता है--'मुक्त से कहो, मैं मुक्त पंछी बनकर उड़ जाऊँगा.... ।'
(समाप्त)
[इसके प्रारंभिक अंश मेरे ब्लॉग पर पढने की कृपा करें ]

सोमवार, 6 जुलाई 2009

'मैं मुक्त पंछी....'

(गतांक से आगे...)
उस दिन की लम्बी मुलाकात के बाद हम घर लौट आए और मैं दुसरे दिन से ही दिनकरजी के पास प्रतिदिन जाने लगा। डेढ़ महीने की दीर्घ अवधि में उनके सान्निध्य में बैठकर काम करना अपूर्व सुखदायक था। पुरानी डायरियों को खोज निकलना, उनका सिलसिला बिठाना, डायरी के अंशों का चयन करना और पाण्डुलिपि तैयार करने का काम मैंने किया। दिनकरजी मेरे श्रम और मेरी कार्य-निष्ठां से बहुत प्रसन्न थे और आगंतुकों से मेरा परिचय देते हुए कहते थे--''मुक्तजी के पुत्र को तो ऐसा ही होना चाहिए था।'' मुझे बड़ा संकोच होता।
दिनकरजी के सान्निध्य के वे दिन मेरे जीवन के अविस्मरणीय दिन हैं। इस अवधि में मैंने उनसे बहुत कुछ सीखा, बहुतेरी बातें कीं और ढेरों कवितायें सुनीं। उनके सिरहाने कलमों का ढेर होता था। एक दिन मैंने पूछा--''आप इतनी सारी कलमें क्यों रखते हैं ?'' वह अपनी कलमों से मेरा परिचय करवाने लगे--''देखो, इस कलम से मैंने 'उर्वशी' लिखी थी और इससे 'परशुराम की प्रतीक्षा'। इससे.... ।'' अपनी कलमों से उनका प्रेम अद्भुत था। उनका सेवक रामदेव जब उनकी तेल मालिश करता, तो उनकी सुंदर काया का अंग-प्रत्यंग रक्ताभ हो उठता । पौरुषपूर्ण सौन्दर्य की वह साक्छात मूर्ति थे।
'दिनकर की डायरी' की प्रेस कॉपी तैयार हो गयी थी। मेरी छुट्टी होने को थी, लेकिन उस विराट पुरूष की कृपा-छाया से हटने को मेरा मन तैयार नहीं हो रहा था। दिनकर जी के शयन-कक्षा के कोने में लोहे का एक बॉक्स रखा था। मैंने जिज्ञासावश दिनकरजी से पूछा--''इसमें क्या रखा है ?'' उन्होंने एक वाक्य में उत्तर देकर शेर सुनाया--
चंद तस्वीरें बुतां, चंद हसीनों के खुतूत,
बाद मरने के मेरे घर से ये सामन निकला॥'
मैंने कहा--'बॉक्स में बंद उन तस्वीरों और पत्रों को मैं देखना चाहूँगा, आप कहें तो पत्रों की सिलसिलेवार एक व्यवस्था भी बना दूँ।'' दिनकरजी मेरी बात से खुश हुए, बोले--''क्या तुम यह भी कर दोगे ? मैं तो पिछले कई वर्ष से इसके बारे में बस सोचता ही रहा हूँ ।'' मैंने हामी भरी और उनके सत्संग-सुख के दो अतिरिक्त दिनों की व्यवस्था कर ली । सचमुच, जब वह बॉक्स खुला, तो मैं उसे देखता ही रह गया। उसमे बहुमूल्य पत्रों का अम्बार था, तस्वीरें थीं, छोटे-बड़े पुर्जों पर विश्वविख्यात लोगों के हस्ताक्षर थे--लेकिन सब गडमड ! मैंने दिनकरजी से निवेदन किया ki वह दो दिनों के लिए अपने कमरे का परित्याग कर दे; क्योंकि पूरे कमरे में पत्रों को फैलाकर उन्हें क्रमवार व्यवस्थित करना पड़ेगा। उन्होंने मेरी बात मान ली, मैं बाहर से छोटे-छोटे धेले उठा लाया और एक-एक लेखक की चिट्ठियां तिथि के अनुसार सहेजने लगा। तस्वीरें एक किनारे रख दीं। पूरा कमरा चिट्ठियों से भर गया, लेकिन चिट्ठियां ख़त्म न हुईं, उसमें हिन्दी जगत के बड़े-से-बड़े महारथियों और दिग्गज राजनेताओं के पत्र थे--प्रसाद, प्रेमचंद, निराला, महादेवी, पन्त, बनारसीदास, मैथिलीशरण, हजारीप्रसाद, राजेंद्र प्रसाद, जवाहरलाल, राजर्षि टंडन, इंदिराजी आदि-आदि के पत्र !
पत्रों के उस अद्भुत संग्रह में १९३६-३७ के पिताजी के कई पत्र देख कर मैं अभिभूत हुआ था। इसी कालावधि में पिताजी 'बिजली' नाम की एक साहित्यिक पत्रिका का संपादन और प्रकाशन करते थे। मेरी जिज्ञासा पर दिनकरजी ने मुझे बताया था की उनकी प्रारंभिक कई कवितायें सर्वप्रथम 'बिजली' में पिताजी ने ही पकाशित की थीं ...
(क्रमशः)

'मैं मुक्त पंछी...' (गतांक से आगे)

दोनों घनिष्ठ मित्रों की वार्ता गंभीर वीथियों से गुजरने लगी और २०-२५ मिनट का समय व्यतीत हो गया। अचानक पिताजी को मेरा ध्यान आया और उन्होंने दिनकरजी से कहा--''अरे भाई, इनकी परीक्षा का क्या हुआ ?'' दिनकरजी मुस्कुराकर बोले--''वह तो परीक्षा में अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हो गया है।'' पिताजी को आश्चर्य हुआ, बोले--''लेकिन अभी तो तुम कह रहे थे की इन्हें 'क' भी लिखना नहीं आता। ... दिनकरजी ने एक छोटा ठहाका लगाया, फिर गंभीरतापूर्वक बोले--''आनंद तुम्हारे पीछे बैठे हैं, इसलिए तुम उन्हें देख नहीं सके, लेकिन मैं बातचीत कि बीच बार-बार उन्हें देखता रहा हूँ। हमारी चर्चा से निर्लिप्त रहकर जिस मनोयाग से वह मेरे लिखे 'क' पर कलम चलाते रहे हैं, डायरी का कम करने के लिए इसी मनोयोग की आवश्यकता है। फिर यह तुम्हारे पुत्र हैं, शुद्ध तो इन्हे लिखना ही चहिये।'' अपना अन्तिम वाक्य उन्होंने मेरी और मुखातिब होकर कहा--''बोलो, डायरी की पाण्डुलिपि तैयार करने का काम कब से शुरू करोगे ?'' मैंने उत्साहपूर्वक कहा--''कल से।'' तभी पिताजी ने हस्तक्षेप किया--''काम तो ये कल से ही शुरू कर सकते हैं, लेकिन इन्हें दिन का भोजन तुम्हें ही करवाना पड़ेगा। ये कॉलेज के लिए घर से सुबह-सुबह निकल जाते हैं, वहां से सीधे तुम्हारे पास चले आयेंगे और शाम तक तुम्हारा काम करेंगे।'' दिनकरजी ने गुरु-गंभीर स्वर में कहा--''तुम इसकी चिंता मत करो, चाय और भोजन की व्यवस्था यहीं हो जायेगी।''
(क्रमशः)

रविवार, 5 जुलाई 2009

पुण्य-स्मरण : संस्मरण

'मैं मुक्त पंछी बनकर उड़ जाऊंगा....'
यशःकाय दिनकर अपूर्व थे, अद्वितीय थे। बहुत छोटी उम्र से उनके पास बैठने, उन्हें देखने और उनकी बातें सुनने का सौभाग्य मुझे प्राप्त रहा है। १९७१-७२ में, जब मैं स्नातक द्वितीय वर्ष का छात्र था, एक दिन अपने पूज्य पिताजी (स्व. पंडित प्रफुल्लचंद्र ओझा 'मुक्त') के साथ उनके राजेंद्र नगर स्थित आवास पर गया। दिनकरजी और मेरे पिताजी की मित्रता प्रगाढ़ थी। दोनों जब भी मिलते, ढेरों बातें होतीं, उस दिन भी बातों का सिलसिला चल निकला। दिनकरजी कम ऊंचाईवाले तख्त पर विराजमान थे। पिताजी वहीँ उनके पास बैठ गए और मैं पिताजी के पीछे बैठा उनकी बातें सुनने लगा। बातचीत में पिताजी ने पूछा--''मित्र, तुम्हारी डायरी के प्रकाशन का क्या हुआ ?'' दिनकरजी ने क्षोभ के साथ कहा--''आजकल के ग्रेजुएट लड़कों को शुद्ध लिखना-पढ़ना भी नहीं आता। विश्विद्यालय से कई लड़के बुलाये, टंकक रखे, लेकिन उनसे यह आशा करना व्यर्थ है कि वे लिखे हुए पाठ की भी शुद्ध नक़ल कर सकेंगे। अब तक न प्रेस कॉपी बनी है, न उसके प्रकाशन की कोई सूरत दीखती है। सोचता हूँ, मेरे बाद इन कागज़-पत्रों में दिनकर को कौन दूँदेगा ?'' पिताजी मेरी ओर इशारा करते हुए बोले--''तुम चाहो तो इनका लाभ ले सकते हो। ये हैं तो वाणिज्य के विद्यार्थी, लेकिन हिन्दी शुद्ध लिखते-पढ़ते हैं और सुनता हूँ, अब कवितायें भी करने लगे हैं। दिनकरजी की आंखों में प्रसन्नता की चमक दिखी, वह बोले--''क्या सचमुच आनंद यह सब कर सकेंगे ?'' पिताजी ने कहा--''तुम इनकी परीक्षा ले लो।''
हिन्दी साहित्य के सूर्य दिनकरजी ने मेरी अनूठी परीक्षा ली । उन्होंने अपने क्लिपबोर्ड पर एक फुलस्केप कागज़ लगाकर उसे कलम के साथ मेरी ओर बढाया और कहा--''देवनागरी का पहला अक्षर 'क' लिखो ।'' बच्चनजी की हस्तलिपि से प्रभावित मेरे-जैसे तरुण कवि ने त्वरा में लहरदार 'क' लिख दिया। दिनकरजी ने हाथ बढ़ाकर क्लिपबोर्ड लिया और उसे देखने के बाद बोले--तुम्हें तो देवनागरी का पहला अक्षर 'क' भी लिखना नहीं आता ।'' उनके इस वाक्य से मैं संकुचित हो गया, लेकिन सफाई देने का साहस भी कहाँ था ! उन्होंने क्लिपबोर्ड पर कागज़ को उलटकर लगाया और एक बड़ा-सा 'क' लिख कर मेरी ओर बढ़ा दिया और कहा--''इस पर हाथ फिरावो ।'' फिर दोनों बुजुर्ग आपसी चर्चा में मशगूल हो गए और मैं दिनकर जी के लिखे सुडौल 'क' पर हाथ फिराने लगा।
(क्रमशः)

बुधवार, 1 जुलाई 2009

क्यों है ?

सलीब यहाँ-वहां क्यों है ?
दोस्तों ने कह दिया खुदाहाफिज़,
दुश्मनों की ही ज़रूरत अब यहाँ क्यों है ?
रेश-रेशा जल रही है ज़िन्दगी अपनी,
फिर उजाले में जली शमा क्यों है ?

लुटने को क्यों खड़े हुए सरे-बाज़ार हम,
दीवानगी इतनी बेजार अमाक्यों है ?
इस झुलसती आग से तो दिन निकल गया,
मुझको जला रही ये बादे-सबा क्यों है ?

हर गली के मोड़ पर कुछ हादसे हुए,
चौराहों पर सहमी हुई हवा क्यों है ?
अब झाँकने लगी हैं खिड़कियाँ माकन से,
कतरा-कतरा बिखरा लहू वहां क्यों है ?

वो अब अमन के नाम की देंगे दुहाईयाँ,
ये बे-गैरत शोर ही बरपा वहां क्यों है ?
हम झूल जाने को तैयार बैठे हैं सलीब पर,
मेरा घर छोड़ कर सलीब यहाँ वहां क्यों है ?